पाकिस्तान में 11 सितंबर को एक ऐसा अपराध हुआ जिसके बारे मे पढ़ते हुए मुझे बेतहाशा अपना देश याद आया। घटना ऐसी थी जो हमारे देश मे भी कही घट सकती है और पुलिस और राजनीतिज्ञों की प्रतिक्रिया भी कमोबेश वैसी ही थी जो अक्सर भारत मे भी दिख जाती है । आधी रात के थोड़ा पहले लाहोर से एक पाकिस्तानी मूल की फ़्रांसीसी महिला किसी संबंधी के पास इस्लामाबाद जाने के लिये अपने दो बच्चों के साथ मोटर वे पर निकली । उसने चलने के पहले अपना पेट्रोल चेक नही किया और लाहोर छोड़ने के थोड़ी देर बाद ही उसका तेल ख़त्म हो गया और उसकी गाड़ी खड़ी हो गयी ।
“भारत और पाकिस्तान कमोबेश एक”
विभूति नारायण राय, IPS
लेखक सेवानिवृत्त पुलिस महानिदेशक हैं और महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति भी रह चुके है
संघीय बँटवारा भले हो गया है, पर भारत और पाकिस्तान की सामाजिक सांस्कृतिक परिस्थितियाँ कमोबेश एक जैसी हैं । दोनों के सत्ताधारी दल पुलिस के दुरुपयोग की बेशर्म आकाँक्षा रखते हैं, पुलिस समान रूप से ग़ैर पेशेवर है या अपराधी दोनों समाजों मे बेख़ौफ़ दनदनाते घूमते हैं । हमारे अनुभव के अनुसार इस मामले मे भी शुरू मे पुलिस की दो इकाइयाँ सीमा विवाद मे उलझी रहीं और तफ़तीश का कबाड़ा होता रहा । मुझे तो इस मामले की रपटें पढ़ते हुये सुशांत सिंह राजपूत का मामला, मुंबई और अपनी संस्थाएँ याद आती रहीं ।
सात – आठ साल पहले पाकिस्तानी दैनिक डान में एक किताब की समीक्षा पर कई कारणों से मेरा ध्यान गया था। लेखक एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी था और उसने कराची के अपराध जगत, माफ़िया तथा राजनीतिज्ञों के अंतरसंबंधों और पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार , गलाकाट प्रतिस्पर्धा और अपने राजनैतिक आकाओं को ख़ुश करने के लिए कुछ भी करने को तैयार बहुत से पुलिस अधिकारियों पर एक अंदरूनी व्यक्ति के रूप मे क़िस्सागोई की थी । पुलिस सर्विस आफ़ पाकिस्तान या पीएसपी (भारत की इंडियन पुलिस सर्विस या आईपीएस के समकक्ष ) के सदस्य ओमर शहीद हामिद ने अपने पहले उपन्यास द प्रिज़नर से ही पाकिस्तान और विदेशों मे भी लेखक के रूप मे पहचान बना ली है । पढ़ते समय इस उपन्यास के सिहरन पैदा कर देने वाले विवरण आपके रोंगटे खड़े कर सकते हैं ।
1960 के दशक तक पाकिस्तान की राजधानी रही और बाद मे भी अकूत सम्भावनाओं से भरी एक नगरी के रूप मे उभरी कराची कुछ ही वर्षों मे एमक्यूएम की अपराधी राजनीति , मौक़ापरस्त राजनीतिज्ञों , भ्रष्ट पुलिस तंत्र और लोकतंत्र की धज्जियाँ उड़ाते फ़ौजियों के मकड़ज़ाल मे फँस कर कैसे नष्ट हो गयी , इसको समझना हो तो हामिद को पढ़ना चाहिये । कोई ताज़्ज़ुब नही कि आपको मुंबई याद आ जाय । उसी तरह राजनीतिज्ञों , अपराधियों और पुलिस के भ्रष्ट कर्मियों का गठबंधन। ग़नीमत है कि अभी तक भारत में, न्याय पालिका या नागरिक समाज की कुछ साख बाक़ी है और सेना ने अभी तक राजनीति मे दख़ल नही दिया है ।
पाकिस्तान मे 11 सितंबर को एक ऐसा अपराध हुआ जिसके बारे मे पढ़ते हुए मुझे बेतहाशा अपना देश याद आया। घटना ऐसी थी जो हमारे देश मे भी कही घट सकती है और पुलिस और राजनीतिज्ञों की प्रतिक्रिया भी कमोबेश वैसी ही थी जो अक्सर भारत मे भी दिख जाती है । आधी रात के थोड़ा पहले लाहोर से एक पाकिस्तानी मूल की फ़्रांसीसी महिला किसी संबंधी के पास इस्लामाबाद जाने के लिये अपने दो बच्चों के साथ मोटर वे पर निकली । उसने चलने के पहले अपना पेट्रोल चेक नही किया और लाहोर छोड़ने के थोड़ी देर बाद ही उसका तेल ख़त्म हो गया और उसकी गाड़ी खड़ी हो गयी । उसने मोटर वे पुलिस को मदद के लिए फ़ोन किया , वहाँ से उत्साहजनक प्रतिक्रिया न मिलने पर लाहौर पुलिस से संपर्क करने का प्रयास किया और इस्लामाबाद के अपने रिश्तेदार को भी सूचित कर दिया । उसके पास किसी मदद के पहुँचने के पहले ही दो गुंडे वहाँ पहुँच गये और उन्होंने अपने को बच्चों के साथ कार के अंदर लाक कर बैठी महिला को शीशे तोड़ कर बाहर निकाला और खेतों में घसीट कर बच्चों के सामने ही उसके साथ बलात्कार किया । थोड़ी देर बाद जब पहली मदद पहुँची और उस बदहवास महिला को वापस कार तक लाया गया , बदमाश भाग चुके थे ।
जब मैंने इस अपराध के बारे मे पढ़ा मुझे कुछ भी अजीब नहीं लगा। समान भूगोल और सांस्कृतिक परंपराओं के चलते हमारे यहाँ भी ऐसी आपराधिक घटनाएँ होती ही रहतीं हैं । ताज्जुब इस बात पर हुआ कि पुलिस , नेताओं और नागरिक समाज की प्रतिक्रिया भी भारत जैसी ही हुयी । शुरुआत हुई लाहोर के सीसीपीओ ( कैपिटल सिटी पुलिस आफ़िसर – भारत के पुलिस कमिश्नर का समकक्ष ) उमर शेख़ ने पत्रकारों को दी पहली ब्रीफ़िंग मे ही पीड़ित महिला को इस बात के लिये दोषी ठहराया कि वह देर रात गये छोटे छोटे बच्चों के साथ मोटर वे पर निकली , उसने चलने के पहले चेक नही किया कि गाड़ी मे पर्याप्त तेल है भी या फिर उसने रात में निर्जन रहने वाला मोटर वे चुना और भीड़ – भाड़ वाली जीटी रोड़ से नही गयी । ये वही उमर शेख़ थे जिन्हें मुश्किल से तीन ही दिन पहले पंजाब के आईजी पुलिस के विरोध के बावजूद लाहोर का सीसीपीओ तैनात किया गया था । उनके ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे हुये थे और पद ग्रहण के दूसरे ही दिन लाहोर के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों ने उनके आदेशों को मानने से इंकार कर दिया था । प्रधानमंत्री इमरान खान के चहेते सीसीपीओ को तो नही हटाया गया पर आईजी पुलिस को हटा कर दूसरे पुलिस अधिकारियों को संदेश दे दिया गया कि उन्हें उमर शेख़ की मताहती मे ही काम करना होगा । सत्ताधारी पार्टी पीटीआई के नेताओं की शुरुआती प्रतिक्रिया उन्हीं जैसी थी
ग़नीमत है कि प्रेस और नागरिक समाज की प्रतिक्रिया भी भारतीय संस्थाओं की तरह हुई । महिला संगठन सीसीपीओ पर टूट पड़े और सत्ता पार्टी के समर्थक अख़बारों , जो चंद दिन पहले तो इमरान खान की पसंद उमर शेख़ की क़सीदाकारी कर रहे थे , को भी उनकी ख़बर लेनी पड़ी । सत्ता पार्टी के नेताओं ने भी पलटी मारी और उमर शेख़ को बिना शर्त माफ़ी माँगनी पड़ी । देश भर में उबाल सा आ गया है , लोग सड़कों पर हैं और सरकार रक्षात्मक मुद्रा में आ गयी । यह देखना बड़ा रोचक था कि एक टीवी चैनल पर एक मौलवी की इस दलील पर कि एक ‘भली’ औरत को बलात्कार की शिकायत नही करनी चाहिये और राज्य भी तभी कार्यवाही कर सकता है जब घटना के चार चश्मदीद मर्द गवाह हों , सारी महिला प्रतिभागी उस पर टूट पड़ीं और कार्यक्रम की शुरुआत मे मौलाना के प्रति अतिशय सम्मान से लबरेज़ ऐंकर को भी उनकी तंबीह करनी पड़ी ।
भारतीय महिला संगठनों की तरह पाकिस्तान मे भी मज़बूत संगठनों की एक शृंखला बन गयी है । इनके ऐक्टिविस्ट किसी भी कट्टरपंथी को रक्षात्मक कर सकते हैं। पिछले कुछ वर्षों से वे हर साल एक औरत मार्च निकालते रहे हैं । गत वर्ष इसका थीम था ‘मेरा जिस्म मेरा हक़’ । थीम ही मर्दवादी समाज के लिये इतनी चुनौती पूर्ण थी कि जमाते इस्लामी या जमाते उलेमा ए पाकिस्तान जैसे कट्टर पंथी मज़हबी संगठनों ने मार्च निकलने के पहले ही उन पर हमले शुरू कर दिये पर मज़बूत इरादों वाली औरतें ज़मीं रहीं और कुछ ही दूर सही पर मार्च निकला ज़रूर । इस साल के औरत मार्च का समय आ गया है और लाहोर बलात्कार कांड ने महिला संगठनों मे अतिरिक्त जोश भर दिया है ।
संघीय बँटवारा भले हो गया है, पर भारत और पाकिस्तान की सामाजिक सांस्कृतिक परिस्थितियाँ कमोबेश एक जैसी हैं । दोनों के सत्ताधारी दल पुलिस के दुरुपयोग की बेशर्म आकाँक्षा रखते हैं, पुलिस समान रूप से ग़ैर पेशेवर है या अपराधी दोनों समाजों मे बेख़ौफ़ दनदनाते घूमते हैं । हमारे अनुभव के अनुसार इस मामले मे भी शुरू मे पुलिस की दो इकाइयाँ सीमा विवाद मे उलझी रहीं और तफ़तीश का कबाड़ा होता रहा । मुझे तो इस मामले की रपटें पढ़ते हुये सुशांत सिंह राजपूत का मामला, मुंबई और अपनी संस्थाएँ याद आती रहीं ।