पुलिस मे सुधारों को तो हमारे राजनैतिक दल इस लायक भी नही समझते कि चुनाव पूर्व अपने घोषणापत्र मे शरीक ही कर लें ।
विभूति नारायण राय
लेखक सेवानिवृत्त पुलिस महानिदेशक हैं और महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति भी रह चुके हैं
चुनाव चर्चा से नदारद पुलिस सुधार
17वीं लोकसभा के आमचुनावों को लेकर सभी प्रमुख दलों ने अपने घोषणापत्र जारी कर दिये हैं और इन सभी मे एक समान अनुपस्थिति आपका ध्यान आकर्षित कर सकती है । किसी भी दल ने पुलिस सुधारों पर एक भी पंक्ति लिखने की ज़रूरत नही समझी । पहले की ही तरह इस बार भी किसी को यह ज़रूरी नही लगा कि जिस संस्था से जनता का रोज़मर्रा की ज़िंदगी मे सबसे ज़्यादा वास्ता पड़ता है और जिस के बारे मे कम ही लोगों के मन मे अच्छे विचार होंगे , उसमे किसी तरह के बुनियादी बदलावों का वायदा जनता से किया जाय ।
वैसे तो घोषणपत्र चुनावों के बाद रद्दी के टुकड़ों मे तब्दील हो जाते हैं पर कम से कम उन में दर्ज होने के बाद कुछ कार्यक्रम राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा ज़रूर बन जाते हैं । पुलिस मे सुधारों को तो हमारे राजनैतिक दल इस लायक भी नही समझते कि चुनाव पूर्व अपने घोषणापत्र मे शरीक ही कर लें ।
देनिंदंनी में जिस संस्था से सबसे अधिक वास्ता एक नागरिक का पड़ता है वह पुलिस ही है । जीवन की हर गतिविधि को किसी न किसी रूप मे यह प्रभावित करती है । कई बार तो राज्य के लोकतांत्रिक या फ़ासिस्ट होने प्रमाण भी उसकी पुलिस के आचरण मे निहित होता है।
विदेशी सैलानी भी आपके राष्ट्र के बारे मे जो राय बनाते हैं उसे तय करने मे काफ़ी हद तक पुलिस का प्रदर्शन ज़िम्मेदार होता है । फिर ऐसा क्योंकर है कि किसी भी राजनैतिक दल ने चुनावी वायदों मे पुलिस सुधारों की बात नही की ?
कहीं ऐसा तो नही कि उन्हें लगता है कि जनता के लिए पुलिस के चरित्र मे बुनियादी बदलाव का कोई मतलब ही नही है ? इसी लिये तो आज तक इसके लिए कोई बड़ा जनांदोलन नही खड़ा हो सका ?
नक्सलबाड़ी के सशत्र संघर्ष के बाद 1970 के दशक से सरकारी हल्कों मे पुलिस आधुनिकीकरण नाम से एक कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय रहा है । आम तौर से पुलिस आधुनिकीकरण का मतलब होता है पुलिस को हथियारों , परिवहन या संचार उपकरणों के क्षेत्र में बेहतर सुविधाएँ प्रदान करना , उनके लिए अधिक आवासीय परिसर खड़े करना या अनुसंधान के लिये कुछ वैज्ञानिक संसाधन निर्मित कर देना ।
इन कार्यक्रमों में शायद ही कभी पुलिस के बुनियादी चरित्र या व्यवहार में ऐसे परिवर्तनों की बात सोची गयी जो उसके एक लोकतांत्रिक समाज की पुलिस मे बनने मे सहायक हों ।
इसमें कोई शक नही कि भारत मे पुलिस संसाधनों और आबादी के अनुपात संख्या बल मे दुनिया के तमाम विकसित और विकासशील देशों की तुलना मे बहुत पीछे है । पर क्या यही उसकी समस्या है और क्या बेहतर हथियार , संचार और परिवहन उसे एक दक्ष और पेशेवर संस्था मे तब्दील कर सकते हैं ? भारतीय पुलिस को नेतृत्व प्रदान करने वाली सेवा आइ.पी.एस. का तीन दशकों से अधिक सदस्य रहने के बाद कम से कम मै तो यह नही कह सकता ।
मेरा अनुभव कहता है कि बिना बुनियादी चारित्रिक परिवर्तन किये संसाधनों मे बेतहाशा वृद्धि पुलिस को अधिक अलोकतांत्रिक ही बनायेगी ।
एक आधुनिक संस्था के रूप मे भारतीय पुलिस का जन्म 1860 के दशक मे बने औपनिवेशिक क़ानूनों के आधार पर हुआ था । यह सही है कि पहली बार वर्ण व्यवस्था के कठोर शिकंजे से मुक्त एक ऐसी संस्था का निर्माण हो रहा था जिसमें कम से कम सिद्धांतत: तो कोई भी व्यक्ति सिर्फ़ योग्यता के बल पर शामिल हो सकता था । पर यह भारत का यथार्थ नही था , यथार्थ तो यह था कि जात पात मे बटे भारतीय समाज मे नागरिकों की सारी गतिविधियाँ – शिक्षा , व्यापार , सम्पत्ति या शासकीय सेवाएँ – सब कुछ जन्म की जाति से निर्धारित होता था । अंग्रेज़ इस यथार्थ को पूरी तरह से नकार नही पाये ख़ास तौर से इस लिये भी कि सिर्फ़ तीन ही साल पहले 1857 मे धार्मिक विश्वासों मे दख़ल देने की क़ीमत वे एक बड़े विद्रोह के रूप मे चुका चुके थे ।
उन्होंने शासकों की ज़रूरत के अनुरूप पुलिस बनायी जिसका एक मात्र मक़सद औपनिवेशिक शासन की रक्षा करना और उसके ख़िलाफ़ उठने वाले जन उभारों को कुचलना था । अपने इस कर्तव्य को लगभग एक शताब्दी तक भारतीय पुलिस ने बख़ूबी निभाया भी । नुक़सान सिर्फ़ यह हुआ कि शासकों को ख़ुश रखने के चक्कर मे उसकी आदतें और छवि एक ऐसे संगठन की बन गयीं जो क़ानून क़ायदे को अपने ठेंगे पर रखती रही है , जिन नागरिकों की सेवा के लिये उसे खड़ा किया गया उनके मानवाधिकार उसके लिये कोई मायने नही रखते और जो क़ानून की नही शासक वर्गों की सेवा करने मे सदा उत्सुक रहती है ।
पुलिस सुधारों का कोई भी मक़सद उसकी उपरोक्त छवि मे बदलाव करना होना चाहिये और यह तभी होगा जब हम उसे संविधान और क़ानून का सम्मान करने वाली संस्था मे तब्दील कर सकें । आज़ादी के फ़ौरन बाद यह किया जा सकता था । जो लोग शासन के लिए चुने गये वे सभी पुलिस ज़्यादतियों के शिकार रह चुके थे, पर हमने वह मौक़ा खो दिया ।
पुलिस को जब कभी आधुनिक बनाने की बात की गयी , विमर्श के केंद्र मे उसके भौतिक उपकरण ही रहे । शायद ही कभी उन बुनियादी परिवर्तनों के बारे में गंभीरता से सोचा गया जो उसे एक लोकतांत्रिक समाज के अनुकूल और जनता की मित्र छवि वाली संस्था बना सके । पुलिस को बेहतर बनाने के उद्देश्यों से बने बहुत से आयोगों और कमेटियों की रिपोर्टें सचिवालयों मे धूल खा रहीं हैं ।
सबसे तकलीफ़देह उदाहरण धर्मवीर कमीशन का है जो आपात काल की समाप्ति के बाद बना था और जिसने बड़े विस्तार से पुलिस से जुड़े पेशेवर सवालों पर ग़ौर किया था । 1902 के पुलिस कमीशन के बाद यह पहला कमीशन था जिसने पुलिस तंत्र मे आमूलचूल परिवर्तनों की परिकल्पना की थी । फ़र्क़ भी बड़ा सामयिक था – जहाँ 1902 के कमीशन की चिंता ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा थी वहीं आपातकाल के पुलिस दुरुपयोगों की पृष्ठभूमि मे निर्मित धर्मवीर कमीशन ने मुख्य ध्यान पुलिस के राजनैतिक दुरुपयोगों को रोकने और उसे जनता का मित्र तथा पेशेवर बनाने पर था ।
दुर्भाग्य से किसी भी दल के लिये इसकी सिफ़ारिशें ऐसी नही थीं कि वे कुछ देर ठहर कर इसके बारे मे सोचते । उन्हें भी दोषी अकेले नही माना जा सकता क्योंकि उनके मतदाता ने ही कब उन्हें यह अहसास दिलाया है कि उसके जीवन के लिए महत्वपूर्ण पुलिस मे बुनियादी सुधार होने चाहिये । वक्तन बेवक्तन किसी पुलिस ज़्यादती के ख़िलाफ़ सड़क पर उतरने के अलावा उसने भी तो कोई ऐसा आंदोलन नही खड़ा किया जो राजनैतिक दलों को सोचने पर मजबूर कर दे कि जनता एक औपनिवेशिक मानसिकता वाली नही बल्कि संविधान और क़ानूनों का सम्मान करने वाली मित्र पुलिस चाहती है ।
ऐसा आंदोलन ही राजनैतिक दलों को चुनावों के लिए मुद्दे तय करते समय पुलिस सुधारों पर भी सोचने को मजबूर करेगा ।
लेखक : विभूति नारायण राय
लेखक सेवानिवृत्त पुलिस महानिदेशक हैं और महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति भी रह चुके हैं