‘ इन आँखिन देखी ‘-3 : विभूति नारायण राय, IPS
महात्मा गांधी पर पहले भी कई बार हमले की असफल कोशिशें ही चुकी थीं, फिर भी उन्हें पर्याप्त सुरक्षा उपलब्ध नहीं कराई गई थी। आखिर क्यों? यह सवाल रह रह कर उठते रहे हैं लेकिन सरकार ने कभी भी इनके वाजिब जवाब देने की कोशिश नहीं की। 20 जनवरी 1948 को भी उनकी सभा में बम विस्फोट हुआ था लेकिन सरकार ने यह कह कर पल्ला झाड़ लिया था कि गांधी जी सुरक्षा नहीं चाहते थे। क्या यह जवाब गले के नीचे उतरता है?
विभूति नारायण राय
लेखक सेवानिवृत्त पुलिस महानिदेशक हैं और महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति भी रह चुके हैं
गांधी को सुरक्षा क्यों नहीं दी गई?
तत्कालीन गृह मंत्री पटेल ने कहा था, 20 जनवरी को हुए बम ब्लास्ट की घटना के पहले बिड़ला हाउस की सशस्त्र सैनिकों की तैनाती की गई थी। घटना के दौरान करीब 30 अधिकारी सादे ड्रेस में सभी कमरे में तैनात थे। लेकिन हकीकत यह थी कि 30 जनवरी को गांधी जी की सुरक्षा के लिए एक भी सिपाही मौजूद नहीं था, क्यों?
महात्मा गांधी की हत्या क्या सुरक्षा में चूक की वजह से हुई थी, इस विवाद को लेकर हमेशा चर्चा का बाज़ार गरम रहता ही है। आखिर उस समय की सरकार ने खतरों की तमाम सूचनाओं के बाद भी इतनी लापरवाही क्यों बरती? क्या गांधी जी की सुरक्षा में हुई चूक तत्कालीन सरकार के लिए क्षम्य मान ही लिया जाए? सेंट्रल असेंबली, जो उस समय संविधान सभा के रूप मे काम कर रही थी, की एक दिलचस्प बहस हाल ही मे मुझे पढ़ने को मिली । महात्मा गांधी की हत्या के फ़ौरन बाद हुए सत्र मे उत्तेजित सदस्य जानना चाहते थे कि सरकार ने उनकी सुरक्षा के पुख़्ता इंतज़ाम क्यों नही किये थे ?
सभी जानते हैं कि 30 जनवरी 1948 के आखिरी सफल प्रयास के पहले उनकी हत्या के कई असफल प्रयास किये गये थे और उनमे से कुछ मे तो षणयंत्रकारियों के बारे में पुलिस को कार्यवाही करने लायक सूचनाएँ भी प्राप्त हो गयीं थीं । तत्कालीन बंबई प्रांत के प्रधानमंत्री ( आज मुख्यमंत्री ) मोरारजी देसाई को तो किसी सूत्र ने हत्या से सम्बंधित एक गहरे षड़यंत्र की सटीक सूचना तक दे दी थी ।
“मैं जानता था कि महात्मा को यह पसंद नहीं था और उन्होंने इस बारे में कई बार मुझसे बहस की थी। अंत में गांधीजी झुके और उन्होंने जोर देकर कहा कि किसी भी हालत में प्रार्थना में शामिल होने वाले लोगों की तलाशी न ली जाए”: पटेल
इन सब के बाद भी ऐसा क्यों कर हुआ कि 30 जनवरी की उस दुर्भाग्यपूर्ण सुबह 11 बजे नाथूराम गोडसे न सिर्फ़ प्रार्थना सभा मे गांधी जी के निकट तक पहुँच गया बल्कि यदि बिड़ला हाउस के एक माली ने बहादुरी न दिखाई होती तो संभवत: हत्या के बाद घटनास्थल से भाग भी गया होता । स्वाभाविक था कि कई सदस्य सरकार की इस लापरवाही पर चिंतित थे । ग़नीमत थी कि सेंट्रल असेंबली या केंद्रीय धारा सभा अपने आज के अवतार लोकसभा की परंपराओं से काफ़ी दूर थी अन्यथा इस मुद्दे पर तो कई दिनों तक सदन की कार्यवाही न चल सकना लाज़िमी था ।
महात्मा गांधी के हत्यारों पर दिल्ली के लालक़िले मे एक विशेष अदालत मे मुकदमा चला और देश भर के अख़बारों ने दैनिक कार्यवाही की रपटें छापीं थीं । अदालती कार्यवाही की ऐसी ही एक रिपोर्टिंग जो बनारस से छपने वाले दैनिक आज मे प्रकाशित हुई थी ।पुस्तकाकार गांधी – हत्याकांड के नाम से मुकदमा ख़त्म होने के फ़ौरन बाद 1949 मे छपी । विषय की नज़ाकत को देखते हुुुुए संपादक ने अपना छद्म नाम दिया। था – विहंगम । पुस्तक मे न्यायालय की कार्यवाही के दौरान आये तथ्यों के अलावा अन्य श्रोतों से भी गांधी हत्याकांड से जुड़ी सामग्री जुटाई गयी है । इसी क्रम मे सेंट्रल असेंबली की बहस का ज़िक्र है।
असफलता का मुख्य कारण गांधी जी का असहयोग था। मसलन गांधी जी इस बात के लिये तैयार नही हुये कि उनकी प्रार्थना सभाओं मे आने वालों की तलाशी ली जाये।
इंदिरा गांधी के जन्म दिन पर इस बहस का स्मरण स्वाभाविक है । सदस्यों के बार बार पूछने पर कि महात्मा गांधी के लिये त्रुटिहीन सुरक्षा की व्यवस्था क्यों नही की गयी , तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने स्पष्ट किया कि सरकार महात्मा गांधी के जीवन पर आसन्न ख़तरे से वाक़िफ़ थी और उसने सुरक्षा के प्रबंध करने के विभिन्न प्रयास भी किये पर ये सफल नही हुये । असफलता का मुख्य कारण गांधी जी का असहयोग था । मसलन गांधी जी इस बात के लिये तैयार नही हुए कि उनकी प्रार्थना सभाओं मे आने वालों की तलाशी ली जाय या फिर उनके कार्यक्रमों मे सशस्त्र पुलिस बल लगाया जाय । एक सदस्य ने यहाँ तक सलाह दी कि किसी अति विशिष्ट व्यक्ति को ख़तरा होने पर उसकी सुरक्षा की व्यवस्था पर निर्णय का मसला पुलिस पर छोड़ देना चाहिये । गृह मंत्री का कहना था कि महात्मा गांधी जैसे व्यक्ति को उनकी इच्छा के विरुद्ध सुरक्षा नही प्रदान की जा सकती । स्पीकर ने अधिक बहस की अनुमति नही दी इस लिये बहुत कुछ अनकहा ही रह गया ।
आपरेशन ब्लू स्टार के बाद इंदिरा गांधी के जीवन को लेकर भी ऐसी ही एक स्थिति उत्पन्न हो गयी थी । उन दिनो एसपीजी का गठन नही हुआ था और प्रधानमंत्री की सुरक्षा मुख्य रूप से इंटेलीजेंस ब्यूरो की देख रेख मे दिल्ली पुलिस करती थी । ख़ुफ़िया रिपोर्टों मे प्रधानमंत्री सुरक्षा मे लगे सिक्ख पुलिस कर्मियों की निष्ठा पर शक प्रकट किया जा रहा था और उन्हें नज़दीकी सुरक्षा घेरे से हटाने की सिफ़ारिश भी की जा रही थी । इंदिरा गांधी ने इस सलाह को मानने से इनकार कर दिया और इसकी क़ीमत चुकाई ।
इन्दिरा गांधी की सुरक्षा में लगे सिक्ख पुलिस कर्मियों को उनकी नज़दीकी सुरक्षा घेरे से हटाने की सिफ़ारिश को इंदिरा गांधी ने मानने से इनकार कर दिया और इसकी क़ीमत चुकाई ।
गांधी और श्रीमती इंदिरा गांधी के संदर्भों मे एक नैतिक पक्ष है । गांधी जी अहिंसा के पुजारी थे और उनके लेखन तथा भाषणों का एक बड़ा हिस्सा हिंसा के विरुद्ध भी अहिंसा का मार्ग न छोड़ने की ज़िद को रेखांकित करता है । वे केवल कायरता के बरक़्स हिंसा की स्वीकृति दे सकते थे और अपनी सुरक्षा के लिये सशस्त्र सुरक्षा की इजाज़त न देना तो किसी भी तरह से कायरता की श्रेणी मे नही आता ।
इंदिरा गांधी और ख़ालिस्तानी उग्रवाद के रिश्तों में भी एक नैतिक पेंच है । अब पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है जिससे सिद्ध किया जा सकता है कि शुरुआती दौर मे जरनैल सिंह भिंडराँवाले को इंदिरा गांधी के क़रीबी पंजाबी नेताओं का वरदहस्त हासिल था ।
जब उन्हें अहसास हो भी गया कि भिंडरावाला भस्मासुर बन गया है, उन्होंने वे सारे मौक़े गँवा दिये जिनमे पंजाब पुलिस ही उससे निपटने में सक्षम थी और ऐसी स्थिति आने दी कि फ़ौज का इस्तेमाल करना पड़ा । यह तो ग़नीमत थी कि सिक्खों का विशाल बहुमत ख़ालिस्तानियों के चक्कर मे नही पड़ा और तब तक तो ख़ामोश बैठा रहा जब तक भारतीय राज्य कमज़ोर दिखता रहा पर जैसे ही सरकार को बढ़त मिली ख़ालिस्तान के ख़िलाफ़ बोलने लगा ।
इंदिरा गांधी ने अपनी अदूरदर्शी नीति के कारण एक बड़ी देशभक्त क़ौम के एक हिस्से को पृथकतावादी बना दिया था । उनका अपने सिक्ख सुरक्षाकर्मियों को न हटाना संभवतः इसी भूल का परिमार्जन था ।
इतिहास जब भी इंदिरा गांधी का मूल्याँकन करेगा यह नही भूलेगा कि अपनी अदूरदर्शी नीति के कारण उन्होंने एक बड़ी देशभक्त क़ौम के एक हिस्से को , भले ही वह बहुत छोटा रहा हो , पृथकतावादी बना दिया था । उनका अपने सिक्ख सुरक्षाकर्मियों को न हटाना संभवतः इसी भूल का परिमार्जन था । उनके समय मे भी हमेशा की तरह भारतीय सेना और दूसरे सुरक्षा बलों मे बड़ी संख्या मे सिक्ख मौजूद थे और उनकी देशभक्ति पर कभी किसी को शक नही रहा , इस लिये उनके फ़ैसले को ग़लत नही ठहराया जा सकता । यह इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व का नैतिक पक्ष था कि उन्होंने राष्ट्रीय हित के मुक़ाबले अपनी सुरक्षा को तरजीह नही दी ।
सेंट्रल असेंबली की बहस का यह सुझाव कि अति विशिष्ट महानुभावों की सुरक्षा का निर्णय पूरी तरह से पुलिस पर छोड़ दिया जाय , एक लम्बी बहस की माँग करता है । लोकतंत्र मे जन प्रतिनिधियों की स्वाभाविक इच्छा हो सकती है कि वे अपने मतदाताओं से सीधा संपर्क रखें । उनके और समर्थकों के बीच देहभाषा ही सबसे कारगर सेतु बन सकती है और इस माध्यम का संप्रेषण निकट सम्पर्क मे ही हो सकता है । ऐसे मे अगर सुरक्षा तंत्र राजनेताओं को समर्थकों के निकट सम्पर्क से अलग थलग करना चाहे तो यह उन्हें स्वीकार्य नही होगा। साथ ही अति विशिष्ट व्यक्तियों को भी सुरक्षा एजेंसी की ज़रूरतों से तार्किक संगत बिठाना ही पड़ेगा । किसी की भी ज़िद नही चल सकती ।
महात्मा गांधी और इंदिरा गांधी -दोनो की सुरक्षा में चूक का एक नैतिक पक्ष भी है । दोनों ज़िंदगी की लड़ाई ज़रूर हार गये पर दोनों की नैतिक विजय हुई
5 फरवरी 1948 को संविधान सभा में सरदार पटेल ने कहा कि हत्यारे ने उसी हालात का फायदा उठाया जिस पर गांधीजी के कहने के कारण सरकारी कार्रवाई नहीं की जा सकी। बापू की सुरक्षा के लिए यह बेहद जरूरी था कि वहां आने वाले लोगों की तलाशी ली जाए। पटेल ने उन अफसरों, पुलिसकर्मियों और सेना के जवानों का ब्यौरा संविधान सभा में पेश किया जो बापू की प्रार्थना सभा के पास तैनात थे। क्या सुरक्षा में लापरवाही का ठीकरा खुद महात्मा गांधी के सिर पर फोड़ कर सरकार अपनी ज़िम्मेदारी से बच सकती है?
लेखक : विभूति नारायण राय
लेखक सेवानिवृत्त पुलिस महानिदेशक हैं और महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति भी रह चुके हैं