हैदराबाद कांड
‘ इन आँखिन देखी ‘-5 : विभूति नारायण राय, IPS
आरोपियों को मुठभेड़ में मार दिए जाने के बाद जनता द्वारा पुलिसकर्मियों पर फूल बरसाना अच्छे संकेत नहीं हैं
विभूति नारायण राय
लेखक सेवानिवृत्त पुलिस महानिदेशक हैं और महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति भी रह चुके हैं
जिस तरह से हैदराबाद पुलिस ने चार लोगों को गोली मारी, उससे लगता है कि हमने भारतीय पुलिस को हत्यारों के गिरोह में बदल दिया है। यह एक कस्टोडियल हत्या है। पुलिस को जांचकर्ता, न्यायाधीश और जल्लाद तीनों के रूप में एक साथ व्यवहार करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता है।
हैदराबाद की घटना का सबसे दुखद पहलू यह है कि देश में अधिकतर लोग हास्यास्पद ढंग से तब इसकी खुशी मना रहे हैं, जब उन्हें इसका पुरजोर ढंग से विरोध करना चाहिए था।
जिस तरह से हैदराबाद पुलिस ने चार लोगों को गोली मारी, उससे लगता है कि हमने अपनी पुलिस को हत्यारों के गिरोह में बदल दिया है। यह एक कस्टोडियल हत्या है। पुलिस को जांचकर्ता, न्यायाधीश और जल्लाद के रूप में व्यवहार करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। इसमें सबसे दुखद पहलू यह है कि देश में बहुसंख्य लोग तब इसकी खुशी मना रहे हैं जब उन्हें इसका पुरजोर ढंग से विरोध करना चाहिए।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे समाज में इस तरह की पुलिस हिंसा को प्रोत्साहन मिल रहा है। आपने संसद में मॉब लिंचिंग का समर्थन करते लोगों को देखा। अगर भीड़ ही न्याय करने में सक्षम है तो फिर हमें पुलिस और अदालतों की आवश्यकता क्यों है?
उत्तर प्रदेश में क्या हो रहा है? पिछले ढाई वर्षों से मैं सुन रहा हूं कि मुठभेड़ में लोग मारे जा रहे हैं। क्या यही न्याय है? हम देश को क्रूर बना रहे हैं और सभ्यता कम करते जा रहे हैं। मैंने ऐसी कई घटनाओं की रिपोर्ट्स पढ़ी हैं, जहां पुलिस संदिग्धों या आरोपी के पैर में गोली मार देती है। केवल कमअक्ल व्यक्ति ही इसे न्याय के रूप में सोच सकता है।
अगर यही न्याय है तो, अंग्रेजों ने हैदराबाद पुलिस की तरह व्यवहार किया होता। वे भी भगत सिंह को मुठभेड़ में मार देते। उन्हें महीनों तक अदालत में मुकदमा चलाने की जरूरत क्यों पड़ी? इसी तरह, वे गांधी, नेहरू और पटेल को पुलिस मुठभेड़ में मार सकते थे।
इन सब से इतर मुझे इसमें कोई संदेह नहीं कि यह एनकाउंटर तेलंगाना सरकार में ऊपर बैठे लोगों के आदेश पर हुआ है। हो सकता है इसमें मुख्यमंत्री भी शामिल रहे हों। यह काम मुख्यमंत्री और राज्य के गृह मंत्री के अनुमोदन और संरक्षण के बिना नहीं हो सकता।
इस कथित मुठभेड़ के लिए कोई सिपाही या दरोगा जिम्मेदार नहीं है। पुलिस के आलाकमान ही सबसे अधिक ही दोषी हैं। हो सकता है, किसी कांस्टेबल या सब-इंस्पेक्टर ने ट्रिगर दबाया हो, लेकिन अंततः वे पुलिस अफसरों के आदेश पर ही काम करते हैं। आईपीएस अधिकारी ही नीचे के लोगों को बताते हैं कि यदि वे ऐसा करते हैं तो उन्हें पुरस्कृत किया जाएगा और ऐसा नहीं करने पर उन्हें दंडित किया जाएगा।
यहां यह कहना अनुचित नहीं होगा कि इस तरह के जघन्य अत्याचार करने का पुलिस का अपना इतिहास रहा है। यह पैटर्न 1987 के हाशिमपुरा नरसंहार मामले में भी स्पष्ट तरीके से देखा गया था। (उत्तर प्रदेश पुलिस की पीएसी ने उनकी हिरासत में रहे 42 मुस्लिमों को मार दिया था।)। गोली चलाने वालों को सजा तो मिल गई, लेकिन इसके पीछे जो लोग थे, जो अफसर थे, वे बचने में सफल रहे। अगर हैदराबाद की घटना की सीबीआई जांच होती है, तो निश्चित रूप से सिपाही दरोगा स्तर के पुलिसकर्मियों को सजा मिलेगी लेकिन जिन लोगों ने वास्तव में उन्हें ऐसा करने दिया, उन्हें कोई सजा नहीं मिलेगी, वे हैं आईं पी एस अफसर।
इस पूरे घटनाक्रम में सब में सबसे अधिक परेशान करने वाली बात यह है कि इस तरह के पुलिस अत्याचार को सामाजिक स्वीकृति मिल रही है। 1979-80 में भागलपुर आंखफोड़वा कांड के वक्त (पुलिस ने 31 को अंधा कर दिया था) शहर में लोग पुलिस के समर्थन में सड़कों पर उतर आए थे। इससे ज्यादा शर्मनाक और कुछ नहीं हो सकता। इसका साफ मतलब है कि हमारी अदालतें और पूरी न्याय प्रणाली विफल हो गई है।
आम तौर पर देखा गया है कि ऐसा तभी होता है जब लोग महसूस करने लगते हैं कि उन्हें अदालतों से इंसाफ नहीं मिलेगा। तब वे हताशा में पुलिस की ओर देखते हैं। लेकिन इसके बावजूद यह शर्मनाक ही माना जायेगा और इसका विरोध किया जाना चाहिए। आप अभियुक्तों के खिलाफ मुकदमा चलाते हैं, त्वरित सुनवाई करते हैं और उन्हें मृत्युदंड देते हैं। यह प्रक्रिया चलती रहनी चाहिए। हालांकि मैं निजी रूप से मृत्यु दंड जैसी कठोर सजा से सहमत नहीं हूं, मेरे विचार के अनुसार मृत्युदंड समाप्त कर दिया जाना चाहिए।
एक पुरानी कहावत है, यह सजा की कठोरता नहीं है जो अपराध होने से रोकती है, बल्कि सजा दिए जाने की निश्चिंतता है जो भय पैदा करती है। उदाहणार्थ अगर आप किसी को 20 साल जैसी लंबी सजा देते हैं और अगर किसी को सजा नहीं भी देते हैं, तो इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इसके उल्टे, अगर कानून के तहत 20 माह की ही सजा दी जाती है और दोषी को तीन महीने में आरोपित कर दिया जाता है तो इसका ज्यादा प्रभाव पड़ेगा।