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“शाहीन बाग़ की औरतें”: विभूति नारायण राय IPS

“इनआँखिन देखी”-6 : विभूति नारायण राय, IPS

आज़ादी के उनके नारे सिर्फ़ एनआरसी पर नहीं रुकेंगे। ये नारे आगे जाकर पित्र सत्ता से आज़ादी की माँग करेंगे ।

विभूति नारायण राय

लेखक सेवानिवृत्त पुलिस महानिदेशक हैं और महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति भी रह चुके हैं

…सब कामधाम निबटाने के बाद समय मिलते ही घर से निकल कर औरतें धरना स्थल पर बैठ जाती हैं और बीच-बीच में ज़रूरत के मुताबिक़ वे घर और धरने के बीच आवाजाही करती रहतीं हैं…

शाहीनबाग की औरतों पर आजकल ख़ूब लिखा जा रहा है । वहाँ जाकर मुझे हिंदी कवि आलोक धन्वा की कविता ब्रूनो की बेटियाँ याद आयीं । बड़ी कविताएँ होती ही हैं कमज़ोरों की पक्षधर इस लिये स्वाभाविक है कि दुनिया की तमाम भाषाओं मे औरतों पर यादगार रचनायें रची गयीं हैं । कोई आश्चर्य नही कि इधर शाहीनबाग की औरतों पर कई कवितायें दिखीं – शुरुआत मे तो सोशल मीडिया पर और अब पत्र पत्रिकाओं में ।

जनांदोलन की फ़ौरी प्रतिक्रियाओं की उपज इन कविताओं से बहुत रचनात्मक प्रौढ़ता की अपेक्षा नही करनी चाहिये पर जिस तरह से ये वाइरल हुईं हैं और लोगों ने इन्हें आपसी बातचीत मे गुनगुनाना शुरू कर दिया है, उससे यह तो कहा ही जा सकता है कि शाहीनबाग राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में आ गया है ।
इन औरतों मे ज़्यादातर मुस्लिम हैं और यह स्वाभाविक भी है । एक तो नागरिकता से जुड़ा मुद्दा मुसलमानों के लिये जीवन मरण जैसा है और दूसरे शाहीनबाग के आस-पास मुख्यरूप से मुस्लिम आबादी वाले इलाक़े हैं जहाँ अपना दैनिक कामधाम निबटाने के बाद समय मिलते ही घर से निकल कर औरतें धरना स्थल पर बैठ जाती हैं और बीच-बीच मे ज़रूरत के मुताबिक़ वे घर और धरने के बीच आवाजाही करती रहतीं हैं । बहुतों के गोद मे छोटे-छोटे बच्चे हैं और कुछ के बच्चे भीड़ मे खेल रहे हैं । कई बार तो माहौल नौचंदी मेले जैसा लगता है । खाने पीने के स्टाल लगे हुए हैैं, मंच पर कविता पाठ या भाषण चल रहे हैं, लोग अंदर बाहर आ-जा रहे हैं और इन सब से ज़्यादा दिलचस्प औरतें बीच-बीच में नारे लगा रहीं हैं ।


यह प्रदर्शन सिर्फ़ इसलिये पिछले किसी प्रदर्शन से भिन्न नहीं है कि डेढ़ महीने से अधिक समय से दिल्ली की एक महत्वपूर्ण सड़क बंद है और लाखों दैनिक यात्री लम्बे रास्तों से अपना ज़रूरी सफ़र पूरा कर रहे हैं । दिल्ली पुलिस जिसने ज़ामिया मिल्लिया या जेएनयू के अति सक्रियता या संदिग्ध निष्क्रियता से बदनामी हासिल की थी, चुपचाप खड़ी तमाशा देख रही है ।

इस प्रदर्शन को दो अन्य कारणों से याद किया जायेगा – एक तो भारतीय संविधान पहली बार किसी इतने बड़े आंदोलन के केंद्र में है और लगभग एक किलोमीटर बंद सड़क तिरंगे झंडो , देश के विशाल नक़्शों और दूसरे राष्ट्रीय प्रतीकों से पटी हुई है । इस के पहले किसी भी आंदोलन में राष्ट्रीय प्रतीकों का इतना रचनात्मक उपयोग नहीं हुआ था ।
हमे याद रखना चाहिये कि धार्मिक पहचान के आधार पर आज़ादी के बाद कई आंदोलन हुए, पर कभी भी मुस्लिम औरतों की इतनी मुखर उपस्थिति नही दिखी । यह भी स्मरण करना होगा कि 1985 में एक बूढ़ी बेसहारा औरत को 180 रुपये से भी कम का वज़ीफ़ा दिये जाने के बाद मुस्लिम उलेमा ने इस्लाम के ख़तरे में होने का फ़तवा दे दिया था और प्रधान मंत्री राजीव गांधी को समर्पण करना पड़ा था । तीन तलाक़ के मुद्दे पर भी उलेमा का यही रवैया था। दोनो मौक़ों पर विरोध प्रदर्शनों में परदानशीन औरतें शरीक दिखीं, पर इस बार वे मर्दों के नेतृत्व मे ठेल-ठाल कर लायी गयी भीड़ नहीं हैं। यहाँ तक कि उलेमा या ओवैसी जैसे नेताओं के स्वर भी बदले हुए हैं ।

कुछ ही समय पहले यह कहने वाले कि मुसलमान के लिये भारतीय संविधान से अधिक महत्वपूर्ण शरिया है , अब संविधान बचाने की बात कर रहे हैं ।

यह कहना तो सरलीकरण होगा कि सिर्फ़ औरतों की उपस्थिति मात्र से कट्टरपंथियों ने शरिया छोड़ कर एक धर्मनिरपेक्ष और उदार संविधान के पक्ष मे गोलबंद होना शुरू कर दिया है। पर उनके बढ़-चढ़ कर आंदोलन में भाग लेने से उस के स्वरूप पर पड़ने वाला प्रभाव एक गंभीर समाजशास्त्रीय अध्ययन का विषय हो सकता है । मुख्य रूप से औरतों के हाथ में नेतृत्व होने के कारण कई बार उकसाने वाली कार्यवाही के बावजूद प्रदर्शन शांति पूर्ण बना हुआ है ।


संविधान के प्रति बढ़ते लगाव को एक अवसरवादी प्रतिक्रिया कह कर ख़ारिज नहीं किया जा सकता । हमें याद रखना होगा कि कट्टरपंथी उलेमा कभी भी ख़ुशी से औरतों के हाथों नेतृत्व नहीं सौंपेंगे। एक टैक्टिस के तहत तो उन्होंने इस बार उन्हें बाहर निकाला है। अगर औरतें बाहर निकलीं हैं तो इसके पीछे यह समझ है कि एनआरसी उनके घरों को बर्बाद कर देगी ।

उन्हें बढ़-चढ़ कर आज़ादी के नारे लगाते देखना एक अलग ही अनुभव है । वे पित्र सत्ता और धार्मिक कठमुल्लों पर एक साथ हमला कर रहीं हैं । एक बार हौसला बढ़ने पर कल को परदे से भी मुक्ति की सोच सकती हैं । इस लड़ाई मे वे तभी कामयाब होंगी जब बड़ी संख्या में ग़ैर मुस्लिम औरतें भी उनके साथ आयें।

आज की स्थिति यह है कि मुसलमानों से इतर बहुत कम औरतें एनआरसी आंदोलनों मे आगे आ रहीं हैं । मंच पर पर तो पर्याप्त हैं, पर सामने बैठी कम दिखती हैं । दृश्यमान नेतृत्व से मुस्लिम औरतों की काफ़ी हद तक अनुपस्थिति शायद स्वाभाविक ही है पर एक बार पित्र सत्ता और कठमुल्लों की जकड़ बंदी से निकलने के बाद उन्हें वापस उसी माहौल मे भेजना बहुत मुश्किल हो जायेगा । यहाँ सोवियत रूस के टूटने के बाद सेंट्रल एशिया के उसके गणराज्यों के अनुभवों को याद करना प्रासंगिक होगा । सोवियत रूस से अलग हुुए मुस्लिम बहुल राष्ट्रों में वहाबी इस्लाम ने औरतों को परदे और घरों की चहारदीवारी में धकेलने की कोशिश की तो उसे मुँह की खानी पड़ी । तुर्कमानिस्तान और कजाकिस्तन में तो दोनो पक्षों के बीच कई स्तरों पर संघर्ष हुुए । सत्तर साल तक आज़ादी की साँस लेने वाली औरतों ने वापस घरों की चहारदीवारी तक सीमित होने से इंकार कर दिया और कट्टर पंथियों को पीछे हटना पड़ा ।

आज़ादी का सपना कितना सम्मोहक हो सकता है, इसका पता तो इसी से चलता है कि शाहीनबाग़ से शुरू हुआ आंदोलन देश के विभिन्न हिस्सों मे फैल चुका है और हर जगह नेतृत्व मुस्लिम महिलाओं ने संभाल रखा है । पुन: इस निवेदन के साथ कि कि सिर्फ़ इन आंदोलनों से किसी बहुत बड़े परिवर्तन की कल्पना करना सरलीकरण होगा , यह मानने के पर्याप्त कारण है कि औरतों के नेतृत्व को कट्टरपंथियों ने आसानी से स्वीकार नहीं किया होगा ।

औरतों के बढ़-चढ़ कर आज़ादी के नारे लगाने से उन्हें अपने पाँवों के नीचे से ज़मीन फिसलती हुई महसूस हो रही होगी । आज़ादी के उनके नारे सिर्फ़ एनआरसी पर नहीं रुकेंगे। ये नारे आगे जाकर पित्र सत्ता से आज़ादी की माँग करेंगे । ऐसे मौक़े पर ग़ैर मुस्लिम ख़ास तौर से हिंदू बहनों का साथ उनकी लड़ाई को मज़बूत करेगा ।

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