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” सिर्फ़ धर्म के आधार पर राष्ट्र नहीं”: विभूति नारायण राय IPS

“इन आँखिन देखी”-7 : विभूति नारायण राय, IPS

दो घंटे से कुछ अधिक हम यह समझने की कोशिश करते रहे कि पाकिस्तान का इतिहास कब से शुरू होता ? क्या 15 अगस्त 1947 से? अगर यही सच है तो फिर मोहनजोदड़ो और तक्षशिला से उसके क्या रिश्ते होंगे ? पंजाब के स्वर्णिम युग के निर्माता रणजीत सिंह उसके इतिहास का अंग हैं या नहीं ?

विभूति नारायण राय

लेखक सेवानिवृत्त पुलिस महानिदेशक हैं और महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति भी रह चुके हैं

1971 में बांग्लादेश बनने के बाद यह साबित हो जाने पर कि सिर्फ़ धर्म के आधार पर राष्ट्र नहीं बन सकता, इस सैद्धांतिकी को पुनर्व्याख्यायित करने की ज़रूरत महसूस हुई और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के नेतृत्व में बुद्धिजीवियों का एक समूह सक्रिय हुआ

अगर कोई कहे कि पाकिस्तान का पहला नागरिक मोहम्मद बिन क़ासिम था तो आप का यह कहना तो बनता ही है कि 15 अगस्त 1947 को अस्तित्व मे आये देश का पहला नागरिक आठवीं शताब्दी का एक आक्रांता कैसे हो सकता है ?

कोलम्बिया यूनिवर्सिटी मे पाकिस्तानी मूल के एसोसिएट प्रोफ़ेसर मन्नान अहमद ने अपनी किताब अ बुक आफ़ कांक्वेस्ट में इसी गुत्थी को सुलझाने की कोशिश की है । यह कोशिश उस नैरेटिव को समझने से शुरू होती है जो एक नव निर्मित राष्ट्र राज्य अपने अस्तित्व का औचित्य सिद्ध करने के लिये निर्मित करता है । सबसे पहले एक सैद्धान्तिक़ी गढ़ी जाती है कि हिंदू और मुसलमान दो अलग राष्ट्र हैं और एक साथ नहीं रह सकते । 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद यह साबित हो जाने पर कि सिर्फ़ धर्म के आधार पर राष्ट्र नहीं बन सकता, इस सैद्धांतिकी को पुनर्व्याख्यायित करने की ज़रूरत महसूस हुई और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के नेतृत्व मे बुद्धिजीवियों का एक समूह सक्रिय हुआ । ख़ास बात यह थी कि ये इस्लामी विद्वान नहीं थे, बल्कि अधिकतर उस बौद्धिक पक्ष से संबंधित थे जिसे वाम कहा जाता है ।

अ बुक आफ़ कानक्वेस्ट पर बहस सुनते हुये याद आया कि कुछ वर्ष पूर्व अपनी कराची यात्रा के दौरान मुझे कराची विश्वविद्यालय के पाकिस्तान अध्ययन विभाग में जाने का अवसर मिला था और वहाँ एक ऐसी ही स्थिति से दो-चार हुआ था । भुट्टो के प्रधानमंत्रित्व काल के दौरान विश्वविद्यालयों में पाकिस्तान अध्ययन विभागों की स्थापना हुई थीं । इन विभागों का मुख्य काम पाकिस्तान और इस्लाम के रिश्तों और एक राष्ट्र राज्य के रूप मे पाकिस्तान की वैधता के तर्कों को रेखांकित करना था ।कराची में विभागाध्यक्ष प्रो सैय्यद जाफ़र अहमद थे जो ख़ुद प्रगति शील विचारधारा के थे और पाकिस्तान प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े थे । उन्होंने विभाग के कुछ अध्यापको और शोध छात्रों को मुझसे मिलने के लिये अपने कक्ष मे बुला लिया ।
दो घंटे से कुछ अधिक हम यह समझने की कोशिश करते रहे कि पाकिस्तान का इतिहास कब से शुरू होता ? क्या 15 अगस्त 1947 से ? अगर यही सच है तो फिर मोहनजोदड़ो और तक्षशिला से उसके क्या रिश्ते होंगे ? पंजाब के स्वर्णिम युग के निर्माता रणजीत सिंह उसके इतिहास का अंग हैं या नही ? बहुत सारे ऐसे असुविधाजनक प्रश्न थे जिनका उत्तर ढूँढ़ने से ज़्यादा बेहतर था उनको नज़रंदाज़ कर देना । शायद यह विभागाध्यक्ष का असर था कि विभाग के ज़्यादातर अध्यापक और छात्र इतिहास से छेड़छाड़ से बहुत आश्वस्त नहीं लग रहे थे ।

711 ईसवी ( कुछ स्रोतों के अनुसार 712 ईसवी ) में बग़दाद के ख़लीफ़ा के हुक्म पर अपने लश्कर के साथ सिंध और मुलतान पर चढ़ाई कर राजा दाहिर को परास्त करने वाला मोहम्मद बिन क़ासिम इतिहास लेखन की तत्कालीन सीमाओं के कारण वास्तविकता और मिथक की मिली जुली निर्मिति है । इसके अलावा एक राष्ट्र को वैध बनाने के लिये इतिहास को इस्तेमाल करने की कोशिशों ने इसे और मिथकीय बना दिया है । पाकिस्तान में पढ़ाई जाने वाली इतिहास की पाठ्यपुस्तकों के अनुसार जब कुछ मुस्लिम औरतें समुद्र के रास्ते हज करने मक्का जा रहीं थी, सिंध की सीमा में जल दस्युओं ने उन्हें लूट लिया और उनके साथ बदसलूकी की । उनके लुटने-पिटने की ख़बर जब बग़दाद के गवर्नर हज़ाज बिन यूसुफ़ के पास पहुँची तो उसने उनकी रक्षा मे असमर्थ राजा दाहिर को सज़ा देने के लिये अपने विश्वसनीय सिपहसालार मोहम्मद बिन क़ासिम के नेतृत्व मे एक सेना भेजी । 17 – 18 वर्ष के मोहम्मद ने अपने सैन्य कौशल और बहादुरी से न सिर्फ़ राजा दाहिर को हराया बल्कि भारत के पहले मुस्लिम राज्य की नीव भी डाली । हालाँकि भारत का इस्लाम से संपर्क व्यापारिक कारणों से पहले ही दक्षिणी समुद्र तटों पर हो चुका था, पर यह राजनीतिक इस्लाम से उसका पहला परिचय था ।
भुट्टो के इतिहासकारों ने इस परिघटना को एक नये राष्ट्र के निर्माण की सैद्धांतिकी के रूप मे गढ़ने के लिये इस्तेमाल किया । कुछ सौ वर्षों बाद अंग्रेज़ शासन को वैध ठहराने के लिये गढ़े गये व्हाइट मैंन्स बर्डन जैसा एक तर्क यहाँ भी काम आया । असहाय मुस्लिम औरतों की मदद करना और बुतपरतों को दंडित करना मुस्लिम शासकों का फ़र्ज़ था । यह अलग बात है कि प्रो मन्नान समकालीन साक्ष्यों का इस्तेमाल कर साबित करते हैं कि औरतों की जलदस्स्युओं द्वारा बेरहमुती और मोहम्मद बिन क़ासिम के सिंध आगमन के बीच लगभग दस वर्षों का फ़ासला है । इस बात को मानने के भी पर्याप्त साक्ष्य हैं कि चौथे ख़लीफ़ा अली के बहुत से समर्थक उनके मरने के बाद शासकों के दमन से बचने के लिये सिंध भाग आये थे । उन्ही को पकड़ने के लिये ख़लीफ़ा ने सेना भेजी थी । यह तथ्य भी सच और मिथ की भूलभुलैया मे उलझ गया है कि ख़लीफ़ा ने मोहम्मद बिन क़ासिम को भैंस की खाल में सिलवा मँगवाया था । यह संभवतः बग़दाद के सत्ता संघर्षों का नतीजा था पर इतिहास मे तब्दील मिथक के अनुसार हारे राजा दाहिर की बेटियाँ जब माले ग़नीमत के रूप मे ख़लीफ़ा के सामने पेश की गयीं, उन्होंने अपने पिता के हत्यारे से बदला लेने के लिये यह झूठी शिकायत की कि शासक की सेवा मे भेजने के पहले मोहम्मद बिन क़ासिम ने उन्हें जूठा कर दिया था और सज़ा के तौर उसे मौत की सज़ा दी गयी ।
बांग्लादेश बनने के बाद 1975  कराची में पहली बार पाकिस्तान एजुकेशन काउंसिल की बैठक हुई और गंभीरता से पाठ्य पुस्तकें बनाने का काम शुरू किया गया। यहीं तय किया गया कि पाकिस्तानी इतिहास सिंध पर मुस्लिम फ़तह के साथ शुरू हुआ था । पाकिस्तान ने मोहम्मद बिन क़ासिम को ईज़ाद किया ताकि वह पाकिस्तान को ईज़ाद कर सके ।
उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दियों की सबसे बड़ी परियोजना राष्ट्र निर्माण की रही है । इस बीच तमाम राष्ट्र राज्य बने और सबने अपने अपने तर्क गढ़े । ये तर्क अक्सर इतिहास की शरण में जाते दिखते हैं, पर आमतौर से मिथकों को ही इतिहास मानने का आग्रह करते हैं । पाकिस्तान तो बहुत नया राष्ट्र राज्य है , इसके बनने से बहुत पहले से एक ऐसे भारत राष्ट्र की परिकल्पना की जाने लगी थी जिसका अतीत बहुत समृद्ध था और वहाँ जो कुछ समकालीन कुरूपता थी, वह सब लम्बे मुस्लिम शासन और अंग्रेज़ी राज की देन है । स्वामी दयानंद सरस्वती या बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय , जो प्रशिक्षित इतिहासकार नही थे , का लेखन भारत के स्वर्णिम अतीत की खोज जैसा है जिसमे प्रमाणित इतिहास से अधिक मिथ है । यह अस्वाभाविक नहीं है कि आज़ादी की लड़ाई की हिंदुत्व केंद्रित धारा स्वर्णिम अतीत की तलाश में मोहम्मद बिन क़ासिम जैसे हिंदू नायक गढ़ने की कोशिश करती रही है । दुर्भाग्य से यह प्रयास हिंदुत्व आज भी कर रहा है ।

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