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दिशाहीन है हैदराबादी “दिशा ऐक्ट”: वी एन राय IPS

तेलंगाना के एक मंत्री के बयान से यह स्पष्ट हो गया कि मुठभेड़ राज्य के मुख्यमंत्री की सहमति और जानकारी में हुई है ।

दिशाहीन है हैदराबादी “दिशा ऐक्ट”

इन आँखिन देखी ‘-6 : विभूति नारायण राय, IPS

“दिशा ऐक्ट” पुलिस के विवेचक से तफ़तीश ख़त्म कर सात दिनों में चार्जशीट दाख़िल करने और अदालत से चौदह दिनों के अंदर मुक़दमे का फ़ैसला सुनाने की अपेक्षा करता है । 

विभूति नारायण राय

लेखक सेवानिवृत्त पुलिस महानिदेशक हैं और महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति भी रह चुके हैं

हम भारतीय एक सभ्य समाज बनने के लिये ज़रूरी शर्त हिंसा के निषेध से कम से कम अभी तो बहुत दूर हैं।

हैदराबाद की दरिंदगी के बाद रक्षात्मक हुई आन्ध्र प्रदेश की सरकार ने अंग्रेज़ी मुहावरे “नी जर्क रिऐक्शन” या घबराहट मे पूर्णतया समर्पण करते हुये एक क़ानून बना डाला । पूरी तरह से दिशाहीन यह दिशा एक्ट राज्य हिंसा के समर्थन के अभूतपूर्व दस्तावेज़ के रूप मे सामने आया है ।

ऐक्ट कितनी हड़बड़ी में बना है , इसी से पता चलता है कि इसमें इस ज़मीनी यथार्थ की उपेक्षा की गयी है कि ज़्यादातर मामलों मे तो दोषियों की शिनाख़्त और गिरफ़्तारी में ही महीनो – सालों लग जाते हैं ।

यह सर्वविदित है कि मनुष्य के सभ्य होने की यात्रा कई चरणों से होकर गुज़रती है । इस यात्रा का हर पड़ाव उसे हिंसा से दूर ले जाता है । कम से कम कोई समाज हिंसा की सैद्धांतिकी को सम्मानित कर अपने सभ्य होने का दावा नही कर सकता , वे समाज भी नही जिन्होंने मानव जाति के इतिहास मे विनाश के अभूतपूर्व और भयंकरतम हथियारों का ज़ख़ीरा अपने पास इकट्ठा कर रखा है । पिछले एक पखवारे मे देश मे कई ऐसी चिंताजनक घटनाएँ घटी हैं जो हमारे मन मे शंका उत्पन्न कर सकती हैं कि क्या हम एक सभ्य समाज बन सके हैं या उस दिशा मे बढ़ भी रहे हैं ?

हैदराबाद में 6 दिसंबर की रात एक असहाय महिला पशु चिकित्सक दिशा की कुछ दरिंदों ने बलात्कार के बाद निर्मम हत्या कर दी । पूरे देश मे इस घटना के बाद उबाल सा आ गया है और आज से ठीक सात साल पहले 16 दिसंबर 2012 को देश की राजधानी दिल्ली मे निर्भया के साथ घटी नृशंसता की याद ताज़ा हो गयी है । पूरा माहौल वैसा ही हो गया । हर तरफ़ मारो काटो की आवाज़ें आने लगीं । लोग किसी भी क़ीमत पर ख़ून का बदला ख़ून चाहते थे । दोनो मामलों में पुलिस पर कुछ कर दिखाने के लिये भयंकर दबाव था । निर्भया के मामले मे हत्यारे पकड़े गये, फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट मे उन पर मुकदमा चला और सभी चार बालिग़ अभियुक्तों को मृत्यु दंड मिला । सात वर्षों से वे अपने दंड की प्रतीक्षा कर रहे हैं ।

हैदराबाद में सरकार और पुलिस पर दबाव कितना अधिक था इसका पता सिर्फ़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि पुलिस ने चौबीस घंटों के अंदर दोषियों को पकड़ कर जेल तो भेज दिया। पर निर्भया के हत्यारों को सात साल तक फाँसी पर न लटकाये जाने से क्षुब्ध जन भावनाओं को संतुष्ट करने के लिये चारों हत्यारों को पुलिस रिमांड पर जेल के बाहर लाया गया और फिर एक पुलिस ‘मुठभेड़’ मे वे सभी मारे गये ।

यह मुठभेड़ किस हद तक वास्तविक या फ़र्ज़ी थी इसका पता तो उस जाँच समिति की रिपोर्ट आने पर चल सकेगा जिसे सुप्रीम कोर्ट ने नियुक्त किया है, पर तेलंगाना के एक मंत्री के बयान से यह स्पष्ट हो गया कि मुठभेड़ राज्य के मुख्यमंत्री की सहमति और जानकारी में हुई है ।
हैदराबादी मुठभेड़ के बाद पूरे देश मे जिस तरह से जश्न मनाया गया , महिलाओं ने पुलिस कर्मियों को राखियाँ बाँधी या मुठभेड़ करने वाले दल पर फूल बरसाये गये या फिर जैसा ओजपूर्ण उल्लास अखबारी सुर्खियों से छलक रहा था, वह राज्य हिंसा के लिये भारतीय समाज मे छिपी स्वीकृति का ही लक्षण है ।

इस स्वीकृति का ही एक बड़ा उदाहरण कुछ दशकों पहले भागलपुर मे पुलिस द्वारा कुछ दुरदाँत अपराधियों के फोड़े जाने के मौक़े पर भी दिखायी दिया था जब शहर की जनता पुलिस के पक्ष मे सड़कों पर निकल आई थी ।

हैदराबादी मुठभेड़ के बाद सांसद जया बच्चन ने प्रतिक्रिया दी है कि यह देर से उठाया गया दुरुस्त क़दम है। यह स्वीकृति दर्शाती है कि हम भारतीय एक सभ्य समाज बनने के लिये ज़रूरी शर्त हिंसा के निषेध से कम से कम अभी तो बहुत दूर हैं ।

इस बीच दो अन्य घटनाओं ने मेरी इस धारणा को और मज़बूत किया है । हैदराबाद की दरिंदगी के बाद रक्षात्मक हुई आन्ध्र प्रदेश की सरकार ने अंग्रेज़ी मुहावरे नी जर्क रिऐक्शन या घबराहट मे पूर्णतया समर्पण करते हुये एक क़ानून बना डाला । पूरी तरह से दिशाहीन यह दिशा एक्ट राज्य हिंसा के समर्थन के अभूतपूर्व दस्तावेज़ के रूप मे सामने आया है । इसके मुताबिक़ दंड प्रक्रिया संहिता या सीआरपीसी मे ऐसे परिवर्तन किये गये हैं जिनके अनुसार कुछ ख़ास श्रेणी के अपराधों में इक्कीस दिनों के अंदर अदालती फ़ैसला आ जाना चाहिये । दिशा ऐक्ट पुलिस के विवेचक से तफ़तीश ख़त्म कर सात दिनों मे चार्जशीट दाख़िल करने और अदालत से चौदह दिनों के अंदर मुक़दमे का फ़ैसला सुनाने की अपेक्षा करता है । ऐक्ट कितनी हड़बड़ी मे बना है , इसी से पता चलता है कि इसमें इस ज़मीनी यथार्थ की उपेक्षा की गयी है कि ज़्यादातर मामलों मे तो दोषियों की शिनाख़्त और गिरफ़्तारी मे ही महीनो – सालों लग जाते हैं ।

निर्भया या हैदराबादी पशु चिकित्सक दिशा के मामले तो अपवाद हैं, जिनमे दो दिनों के अंदर गिरफ़्तारी हो गयी । अब या तो “दिशा ऐक्ट’ के निर्माता मानते हैं कि अपराधी कुकृत्य के बाद सीधे पुलिस के पास चला आयेगा या फिर सात दिन की बंदिश के चलते पुलिस किसी निर्दोष को पकड़ कर खानापूरी कर लेगी ।

एक बार चार्ज शीट लग जाने के बाद तो अपेक्षा की जा सकती है कि अदालतें चौदह दिन के अंदर फ़ैसला सुना दें। पर यह भी आज के संसाधनों और क़ानूनी प्रक्रियाओं के बल पर नही हो सकता । इसके लिये सरकारों को न सिर्फ़ न्यायिक संसाधनों मे कई गुना वृद्धि करनी पड़ेगी वरन सीआरपीसी और साक्ष्य अधिनियम मे भी वे बुनियादी परिवर्तन करने होंगे जिनके अभाव मे मुक़दमे साल दर साल घिसटते रहते हैं ।

ज़ाहिर है कि इन सब में तो लम्बा समय लगेगा, फ़ौरी जन समर्थन के लिये आवश्यक था भावनाओं को संतुष्ट कर सकने वाले किसी धमाकेदार क़दम का और तेलंगाना सरकार इसके लिये दिशा बिल ले आई । इससे भारतीय समाज के अंदर छिपी ढ़की हिंसक बदले की भावना निश्चित रूप से संतुष्ट हुई ।
हिंसा के समर्थन की दूसरी चिंताजनक प्रवृत्ति सात वर्ष पूर्व निर्भया के साथ हुई दरिंदगी के बाद दिखी । यह घटना इतनी बर्बर और शर्मनाक थी कि उसने पूरे देश को हिला डाला । सड़कों पर उतरे आक्रोशित लोग हत्यारों को खुले आम फाँसी पर लटकाने की माँग कर रहे थे । आक्रोश का यह लाभ तो हुआ कि सरकार ने क़ानूनों और प्रक्रिया मे कई महत्वपूर्ण परिवर्तन किये और समाज की सोच मे भी एक बड़ा फ़र्क़ यह आया कि ज़्यादा महिलायें अपने ख़िलाफ़ होने वाली ज़्यादतियों के ख़िलाफ़ मुखर हुई हैं और अब कम परिवार उनसे हुई छेड़छाड़ के लिये उन्हें ही दोषी ठहराते हैं । पर इन सब के साथ हिंसक प्रतिरोध की भावना भी अधिक मुखर हुई है । अब जब निर्भया के हत्यारों की फाँसी आसन्न है लोग बड़े चाव से संभावित जल्लादों के प्रोफ़ाइल, फंदे की रस्सी के विवरण या फाँसी घरों के क्षेत्रफल के बारे में पढ़ रहे हैं और हमारा मीडिया भी उन्हें निराश नही कर रहा है ।
इन सब से हमारे सभ्य बनने की यात्रा बाधित हो रही है । स्मरण रहे कि फाँसी एक मध्ययुगीन बर्बर दंड है और अमेरिका, चीन या कुछ मुस्लिम मुल्कों के अलावा ज़्यादातर देशों ने इसे ख़त्म कर दिया है ।

एक लैटिन कहावत है कि दंड की भयंकरता से अधिक उसकी सुनिश्चितता अपराध को रोकती है । यदि हम अपनी न्याय प्रणाली मे सुधार कर सकें और अपराधियों को कम समय मे दंडित कर सकें तो न तो हैदराबादी मुठभेड़ की ज़रूरत पड़ेगी और न ही बर्बर दंड के लिये जनता सड़कों पर निकलेगी ।

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