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“पीपल को एक बहुत ही पवित्र वृक्ष माना जाता है”: प्रबोध राज चंदोल

“रामायण में वर्णित पेड़ पौधों के सामाजिक सरोकार”
भाग – दो
प्रबोध राज चन्दोल
संस्थापक, पेड़ पंचायत
“…बालकाण्ड के 36वें सर्ग के 18वें श्लोक में दिव्य सरकंड़ों के वनों का वर्णन आता है। सरकण्डों का प्रयोग छप्पर, टोकरी, सूप, कलम, चटाई, कागज आदि बनाने के लिए होता आया है तथा अब इसके रस से दन्तमँजन, साबुन व दवाई भी बनने लगीं है…”

अयोध्या काण्ड के तीसरे सर्ग में श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारी करने की कथा में ऐसा वर्णन आता है कि वहाँ जगह-जगह देवस्थान बने थे व चैत्य वृक्ष लगे हुए थे। चैत्य वृक्ष को पीपल के नाम से भी जाना जाता है। भारतीय संस्कृति में पीपल को एक बहुत ही पवित्र वृक्ष माना जाता है जो चौबिसों घण्टे प्राणुवायु का उत्सर्जन करता रहता है। इस वृक्ष के फल और पत्तों के औषधीय प्रयोग भी देखने को मिलते हैं। दसवें सर्ग के 13वें श्लोक में कैकई के महल का चित्रण करते हुए वहाँ उपलब्ध चम्पा और अशोक के वृक्षों का वर्णन किया गया है। चम्पा एक पुष्प प्रदान करने वाला वृक्ष है तथा अशोक के वृक्ष को शुभता लाने के लिए अपने निवास स्थान के निकट लगाया जाता है। चौदहवें सर्ग में श्रीराम के राज्याभिषेक के लिए गूलर की लकड़ी से बने भद्रपीठ का उल्लेख है। गूलर एक फलदायक वृक्ष भी है जिसका फल अत्यन्त शक्तिप्रदायक व पाचन क्रिया को तेज करने वाला होता है।
अयोध्या काण्ड के पचासवें सर्ग में कौशल देश का वर्णन आता है-यह अत्यन्त रमणीक भू-भाग है और जहाँ हर जगह चैत्य वृक्ष व्याप्त हैं। इस जनपद में अनेक उद्यान और आमों के वन हैं। वन की ओर प्रस्थान करते हुए कौशल देश से आगे बढ़कर श्रीराम गंगाजी के तट पर पहुंच जाते हैं। दिव्य गंगा क्षेत्र का वर्णन करते हुए महर्षि वाल्मीकि जी ने वहाँ विद्यमान जलीय वनस्पतियों व आस-पास के क्षेत्र में फैले पेड़-पौधों का उल्लेख करते हुए कहा है कि नदी का जल नीलकमलों अथवा कुमुदों से आच्छादित था। मालाकार फैले तटवर्ती अनेक वृक्ष उस दिव्य नदी की शोभा को बढ़ाते हैं। वन गमन के अपने प्रारंभिक पड़ाव में श्रीराम ने गंगाजी के किनारे स्थित इंगुदी के वृक्ष के नीचे रात्रि विश्राम किया। इंगुदी एक कंटीला जंगली पेड़ होता है जोकि कड़वे गूदे वाला फल देता है। इसके फल और फल के बीज के औषधीय प्रयोग हैं। यहां निषादराज गुह से श्रीराम की भेंट हुई थी। राजा गुह ने श्रीराम को अपने राज्य का स्वामित्व ग्रहण करने की विनती की जिसे श्रीराम ने विनयपूर्वक अस्वीकार कर दिया तथा गुह से बड़ का दूध लाने के लिए कहा जिससे वह अपनी जटाएँ बना सकें। हमारी सनातनी संस्कृति में बड़ या बरगद के वृक्ष को पूजनीय माना जाता है, इस वृक्ष में त्रिदेवों का वास माना गया है। इस वृक्ष के बहुत लम्बे समय तक जीवित रहने के कारण इसे अक्षयवट भी कहते हैं। इस पेड़ के फल, दूध, छाल, जड़ों और पल्लवों के अनेकानेक उपयोग होते हैं।

वन गमन के पश्चात श्रीराम ने अपनी प्रथम रात्रि वटवृक्ष या बड़ के नीचे ही लक्ष्मणजी द्वारा निर्मित शय्या पर सोकर बिताई। प्रयागराज में गंगाजी, यमुनाजी और सरस्वती नदी के संगम के निकट भरद्वाज आश्रम की ओर प्रस्थान करते हुए श्रीराम-लक्ष्मण ने भांति-भांति के वृक्षों का दर्शन किया। वहाँ आश्रम के निकट नानाप्रकार के वृक्ष समूह विद्यमान थे। महर्षि भरद्वाज के परामर्श पर श्रीराम ने चित्रकूट पर्वत पर अपने वनवास का समय व्यतीत करने का निर्णय किया था। चित्रकूट पर्वत के मार्ग में नीलवन में बरगद, सल्लकी (चीड़), बेर तथा बांस के पेड़ फैले हुए थे। हमारी सभ्य-सुसंस्कृत और पूर्ण समृद्ध भारतीय संस्कृति में बरगद एक देवतुल्य वृक्ष है। चीड़ के पेड़ के रस से गोंद, मोम, ज्वलनशील पदार्थ तारपीन, पत्तों के रेशे से चटाई व इसकी लकड़ी से हल्के फर्नीचर बनाए जाते हैं। बेर एक खाने योग्य फल है जो पेड़ तथा झाड़ियों पर अलग-अलग आकार का होता है। बाँस के भी अनेक प्रकार के परम्परागत उपयोग हैं, जिनमें ग्रामीण आवास, छप्पर, बाड़, कागज निर्माण आदि अनेक प्रकार के प्रयोग हैं। यहाँ नदी पार करने के लिए बेड़ा तैयार करने के लिए श्रीराम-लक्ष्मण दोनों भाईयों ने बाँस का प्रयोग किया ऐसा वर्णन विभिन्न रामायणों व रामकथाओं में मिलता है। नदी पार करने के लिए बनाए गये बेड़े के ऊपर खस बिछाकर फिर बैंत और जामुन की टहनियों से आसन तैयार करने का उल्लेख है। बेंत कई प्रकार का होता है। यह गृहनिर्माण तथा घरेलू उपयोग की वस्तुएँ-टोकरी, छड़ी, छाता, पलंग, कुर्सी आदि बनाने के काम आता है। जामुन एक औषधीय फल है तथा इसके पेड़ जमीन के कटाव को रोकते हैं। देवी सीता चित्रकूट के मार्ग में पड़ रहे वृक्ष, झाड़ी और पुष्प लताओं को देखकर उनके विषय में श्रीराम से जानकारी ले रहीं थी। जिससे यह प्रमाणित होता है कि वहाँ नानाप्रकार के पेड़-पौधे उपलब्ध थे I
उस समय बसन्त ऋतु चल रही थी जिसमें पलाश या ढाक के फूलों के गुच्छे अत्यन्त मनमोहक लग रहे थे। पलाश एक औषधीय वृक्ष है, इसके फूलों से उपचार किया जाता है और इसके फूलों से रंग भी बनाया जाता है। मार्ग में आगे भिलावा और बेल के पेड़ों का उल्लेख है जो फलों और फूलों से लदे हुए हैं।
भिलावा-मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, असम तथा हिमालय के बाहरी क्षेत्रों में पाया जाता है। इसके फल और बीज अनेक बीमारियों के उपचार में प्रयोग होते हैं। इसकी तासीर गर्म होती है, इसके विपरीत बेल का प्रयोग गर्मियों में शीतलता प्रदान करने के लिए होता है। सनातनी संस्कृति में बेल का सांस्कृतिक, धार्मिक महत्व भी है। चित्रकूट पर्वत नानाप्रकार के वृक्ष और लताओं से भरा हुआ था। इस पर्वत पर महर्षि वाल्मीकि आश्रम भी था। अपने वनवास का समय यहाँ व्यतीत करने के लिए श्रीराम ने विभिन्न पेड़-पौधों की लकड़ियों और पत्तों से कुटी तैयार करवाई और पूजन करने के लिए लक्ष्मणजी से गजकन्द लाने के लिए कहा तथा इसके गूदे से उन्होंने पर्णशाला के अधिष्ठाता देवताओं का पूजन किया। गजकन्द एक काले छिलके वाला कन्द होता है। गजकन्द एक रोग विकारक कन्द है, जो चर्मदोष और रक्त विकार में काम आता है। यहाँ लक्ष्मण जी स्वयं श्रीराम को संबोधित करते हुए कहते हैं कि यह काले छिलके वाला गजकन्द जो बिगड़े हुए अंगों को ठीक करने वाला है, मेरे द्वारा पूर्णतया पका दिया गया है।
रामायण काल में यज्ञ के लिए कुश और खदिर या खैर के यूप बनाए जाते थे इस बात का उल्लेख अयोध्या काण्ड के 61वें सर्ग में दिया गया है। कुश या कुशा एक पवित्र घास है जिसका उपयोग अनेक धार्मिक सामाजिक अनुष्ठानों में किया जाता है। खैर से कत्था भी बनाया जाता है। बिपाशा या व्यास नदी के तट पर तटवर्ती वृक्षों के अतिरिक्त शाल्मली या सेमल के पेड़ थे। सेमल के पेड़ के औषधीय उपयोग तो है ही इसके अलावा इससे मिलने वाली रूई से कपड़ा भी बनाया जाता है।
क्रमशः
#Ped 2 #पेड़ 2 Peepal Prabodh chandol writer पीपल प्रबोध चंदोल 2025-01-01
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