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रोमेश भंडारी और कोशियारी के निर्णय में क्या फर्क दिखा

महाराष्ट्र में ऊहापोह में रह गए तीनों दल

डॉ दिलीप अग्निहोत्री


महाराष्ट्र में नई सरकार को लेकर संशय अवश्य है, लेकिन इसकी तुलना उत्तर प्रदेश में जगदम्बिका पाल को मुख्यमंत्री बनाने के प्रकरण से नहीं कि जा सकती।

महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव के बाद सरकार का गठन होना था। चुनाव में भाजपा शिवसेना गठबन्धन को बहुमत मिला था, शिवसेना ने पाला बदल लिया। इसके बाद भाजपा और अजित पवार गुट का गठबन्धन हुआ। उस समय तक शिवसेना, कांग्रेस ,एनसीपी कुछ तय नहीं कर सके थे। सत्रह दिन बाद राज्यपाल के समक्ष भाजपा अजित गठबन्धन का दावा सबसे मजबूत था। इसलिए उन्हें शपथ दिलाई गई।
उत्तर प्रदेश में राज्यपाल रोमेश भंडारी ने बहुमत के दावे को मनमाने ढंग से नजरअंदाज किया था। उनका यह निर्णय संविधान की भावना व संसदीय व्यवस्था के प्रतिकूल था। जबकि भगत सिंह कोशियारी ने उस समय पेश बहुमत के दावे के आधार पर देवेंद्र फडणवीस को आमंत्रित किया। सत्रह दिन के इंतजार को जल्दीबाजी नहीं कहा जा सकता। सुबह जल्दी शपथ अवश्य दिलाई गई,ऐसा करके कोशियारी ने हॉर्स ट्रेडिंग को हतोत्सित किया है।


उस समय रोमेश भंडारी उत्तर प्रदेश के राज्यपाल थे। उनके समक्ष भाजपा के कल्याण सिंह ने सरकार बनाने का दावा पेश किया था। बहुमत का आंकड़ा भी उनके पास था। लेकिन उनके दावे को नकार कर रोमेश भण्डारी ने जगदम्बिका पाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी थी। उनका यह कार्य संविधान के विरुद्ध था। क्योंकि उन्होंने बहुमत की जगह अल्पमत दल के नेता को मुख्यमंत्री बना दिया था।

यह सही है कि संविधान के अनुसार राज्यपाल ही मुख्यमंत्री की नियुक्ति करता है। लेकिन उसका यह अधिकार संसदीय व्यवस्था से ही निर्धारित होता। इसके अनुसार उसे बहुमत के संबन्ध में प्रमाणिक आकलन करना होता है। यदि किसी के पास स्पष्ट बहुमत होता है, तो राज्यपाल उसके नेता को सरकार बनाने हेतु आमंत्रित करने को विवश होता है। इस अधिकार के प्रयोग में वह अपने विवेक का प्रयोग नहीं कर सकता।

विधानसभा त्रिशंकु हो तो उससे सबसे बड़ी पार्टी के नेता को सरकार बनाने हेतु आमंत्रित करने की अपेक्षा रहती है। रोमेश भंडारी ने अपने अधिकार का दुरुपयोग किया था। इस कारण उस समय अटल बिहारी बाजपेयी स्वयं लखनऊ आये थे। उन्होंने विधायकों के साथ राजभवन में धरना दिया था। न्यायपालिका द्वारा जगदम्बिका पाल की नियुक्ति को शून्य घोषित किया गया था।

इसके बाद उन्ही रोमेश भंडारी ने कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई थी। जबकि महाराष्ट्र में अभी का प्रकरण अलग है।

उन्नीस सौ अठानवे को बहुमत परीक्षण के दौरान उत्तर प्रदेश विधानसभा में हिंसक हंगामा हुआ था। रोमेश भंडारी ने राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश कर दी। किंतु केंद्र ने इसे स्वीकार नहीं किया था। ऐसे में कल्याण सिंह को सरकार बनाने का अवसर मिला था।

लेकिन इस सरकार को बसपा से आए विधायकों के समर्थन को रोमेश भंडारी ने अमान्य कर दिया। रात में ही उन्होंने कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त कर दिया। उनकी जगह जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवा दी थी। इसी के विरोध में अटल बिहारी वाजपेयी
अनशन पर बैठ गए थे। जबकि कल्याण सिंह के दमर्थको ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। कोर्ट ने गवर्नर के आदेश पर रोक लगा दी। इसके बाद कल्याण सिंह की सरकार बहाल हुई थी।

कुछ समय के लिए जगदम्बिका पाल और कल्याण सिंह दोनों अपने को वास्तविक मुख्यमंत्री बता रहे थे। यह अभूतपूर्व समय था। इसकी तुलना महाराष्ट्र की वर्तमान स्थिति से नहीं हो सकती।
यह दिलचस्प था कि जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर ही मिली कोर्ट के आदेश की प्रति मिली थी। अंततः कल्याण सिंह को ही बहुमत साबित करने का अवसर मिला। वह इसमें सफल हुए। इससे भी साबित हुआ कि जगदम्बिका पाल को मुख्यमंत्री बनाना गलत था।
जबकि महाराष्ट्र में नए सिरे से सरकार का गठन होना था। राज्यपाल भगत सिंह कोशियारी ने सभी पक्षों को पर्याप्त अवसर दिया। कांग्रेस,एनसीपी व शिवसेना सत्रह दिन बाद भी किसी निर्णय से राज्यपाल को अवगत कराने में विफल रही। मतलब जब देवेंद्र फडणवीस को शपथ दिलाई गई, उस समय तक भाजपा व अजित पवार से अधिक सँख्याबल का दावा किसी ने नहीं किया था। वैसे भी भाजपा सबसे बड़ी पार्टी थी,अजित पवार, उनके कई साथी विधायक और कुछ निर्दलीय विधायको ने समर्थन दिया। ऐसे में राज्यपाल ने इस नए गठबन्धन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया। इसके बाद बहुमत का निर्णय विधानसभा में ही होना चाहिए।

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