रामधनी द्विवेदी
आज जीवन के 72 वें वर्ष में जब कभी रुक कर थोड़ा पीछे की तरफ झांकता हूं तो सब कुछ सपना सा लगता है। सपना जो सोच कर नहीं देखा जाता। जिसमें आदमी कहां से शुरू हो कर कहां पहुंच जाता है? पता नहीं क्या-क्या घटित होता है? कभी उसमें कुछ दृश्य और लोग पहचाने से लगते हैं, तो कभी हम अनजाने लोक में भी विचरने लगते हैं। जगने पर असली दुनिया में आने पर जो देखें होते हैं,उसके सपना होने का बोध हेाता है। यदि सपना सुखद है तो मन को अच्छा लगता है, यदि दुखद है तो नींद में और जगने पर भी मन बोझिल जाता है। सुखद सपने बहुत दिनों तक याद रहते हैं, हम अपने अनुसार उनका विश्लेषण करते हैं और दुखद सपने कोई याद नहीं रखता, क्योंकि वह पीड़ा ही देते हैं। यही हमारी जिंदगी है। जब हम कभी रुक कर पीछे देखते हैं तो सुखद और दुखद दोनों बातें याद आती हैं। इनमें से किसी अपने को अलग भी नहीं किया जा सकता क्योंकि बिना ‘ दोनों ‘ के जिंदगी मुकम्मल भी तो नहीं होती। जिंदगी की धारा के ये दो किनारे हैं। बिना दोनों के साथ रहे जिंदगी अविरल नहीं होगी और उसमें थिराव आ जाएगा। तो मैं अपनी जिंदगी के दोनों पक्षों का सम्मान करते हुए उन्हें याद कर रहा हूं। जो अच्छा है, उसे भी और जो नहीं अच्छा है उसे भी, सुखद भी दुखद भी। तो क्यों न अच्छे से शुरुआत हो। यह स्मृति में भी अधिक है और इसमें कहने को भी बहुत कुछ है। जो दुखद या अप्रिय है, वह भी कालक्रम में सामने आएगा। लेकिन मैं सबसे अनुनय करूंगा कि इसे मेरे जीवन के सहज घटनाक्रम की तरह ही देखें। मैं बहुत ही सामान्य परिवार से हूं, मूलत: किसान रहा है मेरा परिवार। आज भी गांव में मेरे इस किसानी के अवशेष हैं, अवशेष इसलिए कि अब पूरी तरह किसानी नहीं होती। पहले पिता जी अवकाश ग्रहण के बाद और अब छोटा भाई गांव पर इसे देखता है। खुद खेती न कर अधिया पर कराई जाती है लेकिन कागजात में हम काश्तकार हैं। उस गांव से उठकर जीवन के प्रवाह में बहते-बहते कहां से कहां आ गया, कभी सोचता हूं तो जैसा पहले लिखा सब सपना ही लगता है। कभी सोचा भी न था कि गांव के खुले माहौल में पैदा और बढ़ा-बड़ा हुआ मैं दिल्ली-एनसीआर में बंद दीवारों के बीच कैद हो जाऊंगा। लेकिन वह भी अच्छा था, यह भी अच्छा है। जीवन के ये दो बिल्कुल विपरीत ध्रुव हैं जो मुझे परिपूर्ण बनाते हैं। कुदाल के बीच शुरू हुई जिंदगी ने हाथों में कलम पकड़ा दी और अब वह भी छूट गई और लैपटॉप ने उसका स्थान ले लिया। कुदाल से शुरू और कलम तक पहुंची इस यात्रा के पड़ावों पर आप भी मेरे साथ रहें, जो मैने देखा, जिया, भोगा उसके सहभागी बनें।
रामधनी द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और दैनिक जागरण समाचार पत्र की कोर टीम के सदस्य हैं।
“पत्रकारिता की दुनिया: 31”
गतांक से आगे…
जब संगम ने बुलाया: 10
“संबंधों की प्रगाढ़ता”
मैंने पांच अखबारों में काम किया और इनमें सबसे अधिक पारिवारिक संबंध अमृत प्रभात में लोगों के रहे। जनवार्ता और आज में अधिक समय नहीं रहा लेकिन अमृत प्रभात में कुल मिलाकर 21 साल रहा 1977 से 1998 तक। कई साथियों से पारिवारिक संबंध रहे जो दीर्घजीवी भी बने। लोगों काआपस में मिलना जुलना होता,खाना- पीना होता, साल में दो एक बार जरूर। हम कई लोग अल्लापुर में ही रहते। श्रीधर जी, मैं, शिव शंकर गोस्वामी , महेश जोशी, हिमांशु रंजन, स्नेह मधुर, जगदीश द्ववेदी, रामअवतार यादव, सभी अल्लापुर में ही रहे। इसलिए उनके बीच अधिक निकटता रही। लेकिन अन्य लोगों से भी पारिवारिक संपर्क बना रहा। केबी माथुर साहब भी शुरू में अल्लापुर में ही रहे, बाद में जब दोबारा इलाहाबाद आए तो पत्रिका गेस्ट हाउस में रहने लगे।
पारिवारिक संबंध जेपी सिंह, लक्ष्मी नारायण शर्मा, सुधांशु उपाध्याय आदि से भी थे। सुभाष राय, परमानंद पांडेय आदि उस समय अकेले थे, लेकिन घर आना जाना सबका था। सुधांशु उपाध्याय और लक्ष्मी नारायण शर्मा से तो मेरा धर्म रिश्ता है। चूंकि मेरी ससुराल बनारस के मुहल्ले राज मंदिर में थी, इसलिए मैं इन दोनों से मजाक करता। शर्मा जी से अधिक। इन दोनों को मेरा बेटा आज भी मामाजी ही कहता है। सुधांशु जी ने तो उस रिश्ते को बहुत संजीदगी से निभाया और अब भी निभा रहे हैं।
हुआ यह कि एक बार वह शायद सुभाष राय के साथ मेरे आवास पर आए। उन्होंने मेरी पत्नी को भाभी जी कह कर संबोधित किया तो मैंने मजाक में ही कहा – अरे भाभी जी, यह आपकी भाभी कब हु्ईं!
वह बिचारे अचकचा गए और बोले तब क्या लगेंगी। मैने कहा कि मेरी ससुराल राजमंदिर में है और आप गायघाट (लालघाट) में रहते हैं। दोनों मुहल्ले सटे हैं तो यह तो एक मुहल्ले की बात हुई। यह आपकी बहन लगीं। बिचारे उपधिया धर्म संकट में फंस गए। कुछ रुक कर बोले- मैंने तो इन्हें दीदी मान लिया लेकिन आपको जीजा नहीं मानूंगा।
मैंने भी हंस कर कहा- ठीक है, आप दीदी मानिए, फिर देखिए मैं जीजा कैसे बनता हूं।
हंसी में कही गई बातें रिश्ते में बदलीं।
लक्ष्मी नारायण शर्मा इस रिश्ते को नहीं मानते थे। वह कहते मेरी शादी द्विवेदियों में हुई है, इसलिए मैं आपका जीजा हुआ। मैंने कहा शादी मेरी पहले हुई है, इसलिए मैं जीजा हुआ। एक बार उनके घर कोई कार्यक्रम हुआ, शायद बच्चे का जन्म दिन समारोह था। मैं भी बेटे के साथ गया। उस समय बेटा आठ दस साल का रहा होगा। मैने उसे सिखाया कि जिसको मैं इशारा करुं, उसे मामा जी कह कर पैर छू लेना। शर्मा जी के मीरापुर स्थित मकान के छत पर कार्यक्रम था। हम लोग पहुंचे तो शर्मा जी पत्नी के साथ सामने दिखे तो मैंने मंटू को इशारा किया और उसने दोनों के पैर छुए, मामाजी प्रणाम कहते हुए। शर्मा जी अचकचा गए लेकिन बेटे को क्या कहते। यह सब आपस में चलता रहता था। इससे संबंधों की प्रगाढता बनी रहती थी।
मैं जब अतरसुइया के मकान को छोड़कर आया तो श्रीधर जी के मकान में रहने लगा। उन्होंने चार कमरों का मकान लिया था जिसमें आगे के दो कमरे, पोर्च और किचन उनके कब्जे में,पीछे के दो कमरे में पहले रमेश जोशी और विनोद घिल्डियाल रहते थे। वे दोनों बाद में सिविल लाइंस के रॉयल होटल में चले गए तो दो कमरे खाली हो गए। मैं मनोहर नायक के साथ उन्हीं कमरों में आ गया। कुछ महीने बाद पत्नी भी आईं तो नायक दूसरी जगह रहने चले गए। शायद मार्च- अप्रैल 78 में। दिसंबर 78 में ही वह मकान छोड़ना पड़ा। घर बदलने के 18 दिन बाद मेरी बड़ी बेटी का जन्म हुआ। मेरे सबंधों को बिगाड़ने के पीछे विनोद घिल्डियाल थे। उन्होंने कुछ उलटी-सीधी बातें कह दी थीं जिससे हम लोगों में गलतफहमी पैदा हो गई और मुझे अलग होना पड़ा।
मैने वहीं पास में ही मिर्जापुर के नंदलाल शुक्ला जी के मकान में दो कमरे किराये पर लिए और उसमें चला गया। स्थिति यह हो गई थी, कि खाना बना श्रीधर जी के मकान में और खाया हम लोगों ने शुक्ला जी के मकान में।
महेश जोशी और गोस्वामी आए थे, मेरा सामान दूसरे मकान में शिफ्ट कराने के लिए। मैंने तो श्रीधरजी को पूरी बात स्पष्ट की लेकिन वह विश्वास नहीं कर रहे थे। मैंने उनका मकान छोड़ने के बाद भी उनसे माफी मांगी लेकिन वह उस समय माफ नहीं कर सके। बाद में जब विनोद घिल्डियाल का लखनऊ ट्रांसफर हो गया तो उन्होंने जाने के पहले मुझसे अपने कृत्य के लिए माफी मांगी। वह मुझे बुलाकर प्रेस के बाहर ले गए और कहा कि उनसे गलती हो गई और मजाक में कही गई बात का बतंगड़ बन गया। मैने कहा कि आपने तो संबंध बिगाड़ ही दिए हम लोगों के,अब माफी मांगने से क्या फायदा। खैर, बाद में महेश जोशी हम लोगों के बीच संबंध कायम कराने के सूत्रधार बने।
दो तीन साल बाद होली पर वह मेरे घर आए और मुझसे कहा कि चलिए श्रीधर जी के यहां चलते हैं। मैंने संकोच किया तो बोले- आज होली है, मिलन का त्योहार, आप लोग पुरानी बातें भूल जाइए और आज से फिर अच्छे संबंध बनाइए। मैं उनकी बात मान कर श्रीधर जी के यहां गया,पुरानी बातें भुला दी गईं और संबंध फिर नए हो गए। श्रीधर जी और भाभी जी को भी यह अच्छा लगा।संबंध फिर अच्छे हो गए।
बाद में एक बार फिर जब मेरी उप समाचार संपादक के रूप में पदोन्नति हुई तो श्रीधर जी नाराज हुए। वह मुझसे सीनियर थे। पद तो एक ही था लेकिन उनका वेतनमान दो इंक्रीमेंट अधिक था। लेकिन माथुर साहब ने मुझे प्रमोट किया। वह मेरे काम से संतुष्ट रहते थे। तमालकांति घोष भी इसपर सहमत थे। कुछ और लोग भी नाराज हुए लेकिन बात आई-गई हो गई। यह स्वाभाविक भी था। यदि किसी को उसका हक नहीं मिलेगा तो नाराज तो होगा ही, लेकिन इसमें मेरा दोष नहीं था। मैंने कभी अपनी सिफारिश नहीं की। काम ही मेरी पूंजी थी। हां, प्रमोशन लेने से भला कैसे मना कर देता? लोग चाहते थे कि मैं प्रमोशन से मना कर देता।
तमाल कांति घोष ने सबके सामने कहा भी कि रामधनी द्विवेदी जी का प्रमोशन मैंने किसी की सिफारिश पर नहीं किया है। उनका प्रमोशन मैने इसलिए भी किया कि वह कभी मेरे बंगले पर नहीं आए और अपने लिए कुछ नहीं मांगा, यह बात मुझे अच्छी लगती है। जो नाराज हों, वह दूसरी जगह जा सकते हैं, मैं उन्हें अच्छा प्रमाण पत्र दे दूंगा।
नाराजगी थोड़े दिनों की रही, फिर सब सामान्य हो गया। बाद में श्रीधर जी के परिवार से मेरे संबंध बहुत अच्छे हो गए।
गोस्वामी जी और महेश जोशी आदि तो जैसे परिवार के सदस्य हो गए। शुरू में गोस्वामी अकेले रहते थे। एक हॉस्टलनुमा कालोनी थी जिसमें कई कमरे थे और उनमें पढ़ने वाले लड़के और दो एक नौकरी करने वाले युवक रहते थे। उसीमें कोने वाले कमरे में गोस्वामी जी रहते थे। महीने में एकाध दिन जरूर उनके यहां खाना-पीना होता था।
स्नेह मधुर का परिवार भी वहीं रहता था। उस समय वह फोटोग्राफी करते थे। घर आते, बच्चों की फोटो खींचते। वह फोटो में प्रयोग करते रहते। कुछ दिन दैनिक जागरण में भी काम किया। मनोरमा और माया में भी लिखते पढ़ते और फोटो देते। उसके बाद अमृत प्रभात में आए। उनके पिता जी जिला विकास अधिकारी थे। वह भी मुझे बहुत चाहते।
मुझे याद है जब इलाहाबाद में दूरदर्शन का प्रसारण शुरु हुआ तो मेरे पास टीवी नहीं थी। स्नेह मधुर घर आते और मुझे और बच्चों को रविवार को फिल्म दिखाने ले जाते। उन दिनों रविवार की शाम का एक फिल्म दूरदर्शन पर आती। इतने चैनल नहीं थे। उनके बरामदे में फिल्म देखने आसपास के लोग आ जाते। किसी को कुर्सी मिलती तो कोई स्टूल पर बैठता। बच्चों का नीचे भी बैठा दिया जाता। मेरे उसी समय से उनके परिवार से संबंध हुए।
उसी मकान से उनके बड़े भाई शील मधुर आइपीएस हुए और हरियाणा कैडर में डीजीपी पद से रिटायर हुए और अब हरियाणा में ही बस गए हैं। मैंने शील मधुर को हमेशा पढ़ते देखा, वह कुछ शरमीले स्वभाव के थे और लोगों के सामने कम ही आते।
महेश जोशी से इसी तरह के गहरे संबंध रहे। वह बहुत ही प्रेमी जीव थे। उस समय मटियारा रोड पर एक कमरे में रहते थे। उनकी छोटी बहन चंद्रा एमबीबीएस कर रही थी और जगदीश बीए में पढ़ रहे थे। 1979 में चार दिन घनघोर बारिश हुई। पूरा अल्लापुर पानी पानी हो गया। यह पानी लगभग एक महीने तक कुछ इलाकों में भरा रहा।अच्छी बात यह थी कि सिर्फ वह इलाका जलभराव से बचा था जहां हम लोग रहते थे- लेबर चौराहे के आसपास। ऐसा जलभराव बाद में कई बार हुआ।
अल्लापुर निचला इलाका था, यहां कई तालाब थे जिसे पाट कर लोगों ने घर बना लिए थे। पानी का प्राकृतिक प्रवाह रुक गया तो जलभराव तो होना ही था।पूरा इलाका बक्शी बांध से घिरा था,पानी कहीं बाहर भी नहीं निकल सकता था। 1979 की मुझे खूब मुझे याद है। मैं और श्रीधर जी रात की शिफ्ट में आफिस से लौट रहे थे। पूरा अल्लापुर पानी में डूबा था। सिर्फ लेबर चौराहे के आसपास का क्षेत्र ही बचा था, जहां पानी नहीं लगा था। हम लोग कुंदन गेस्ट हाउस के आगे डाट के पुल के आगे साइकिल चलाकर नहीं जा सके। वहां जांघों तक पानी लगा था हम लोग साइकिल ढकेलते हुए किसी तरह अपने आवास पर आए।
दूसरे दिन सुबह महेश जोशी नेकर पहने, हाथ में बांस का लंबा डंडा लिए मेरे घर पर हाजिर। मैंने पूछा सुबह- सुबह कैसे। वह बोले- मेरे कमरे के आसपास तो बहुत पानी भरा है। हम लोग तो छत पर कल रात से ही हैं क्यों कि कमरे में पानी भरा है। मैंने सोचा आपके पास छोटे छोटे बच्चे हैं,आप लोग कैसे होंगे, कही मदद की तो जरूरत नहीं हो, इसी से चला आया। ऐसे मित्र को देख मन भर आया। डा चंद्रा जोशी बाद में डा चंद्रा पंत बनीं और उत्तराखंड में सीएमओ के पद से रिटायर हो कर देहरादून में रह रहीं हैं।
जगदीश जोशी भी बाद में पत्रकार बने, जागरण और हिंदुस्तान जैसे बड़े अखबारों में बड़े पद पर रहे और अब अवकाश ग्रहण कर लखनऊ में रह रहे हैं। जब वह जागरण में रहे तो प्राय: मीटिंग्स में मुलाकात होती रहती थी। महेश जोशी का बेटा यहीं नोएडा में किसी कंपनी में अच्छे पद पर है। यह सब बातें भूली नहीं जातीं।
इन मित्रों ने मेरी बहुत मदद की है।
जब 1987 में मेरा छोटा भाई बीमार पड़ा दिल के वाल्व में संक्रमण के कारण लंबा बुखार आया जो अंत में जान लेकर ही माना,उस सयम इन सभी साथियों ने मेरी बहुत मदद की । उसकी बीमारी पर मैं आगे लिखूंगा लेकिन मैं इन सबकी मदद को आज भी याद करता हूं। सबने मुझे अकेला नहीं होने दिया। ऐसा माहौल फिर कभी नहीं मिला। कहीं भी नहीं।