रंगकर्म से जुड़े निर्देशक /अभिनेता/ रंगकर्मी #अजय मुखर्जी #जिनसे ऋतंधरा मिश्रा ने साक्षात्कार कियाा
” अजय मुखर्जी पिछले 20 वर्षों से अभिनय/ निर्देशन के क्षेत्र में निरंतर सक्रिय हैं अजय जी का बांग्ला नाटकों मे भी एक अच्छी पहचान और सक्रियता है और प्रयागराज के रंगमंच पर उनकी अलग पहचान है।”
ऋतंधरा मिश्रा
प्रश्न 1. आपने रंगमंच को शौकिया अपनाया या व्यवसायिक दृष्टि से?
उत्तर-1. मुझे ऐसा लगता है हम या हम जैसे और भी लोग जिन्होंने सन 1995 से पहले रंगकर्म शुरू किया होगा उनका ध्यान इसके व्यवसायी करण की ओर नहीं गया होगा,ऐसा मेरा मानना है।
मैंने इसे हमेशा शौकिया ही किया और करता रहूंगा…गुल्लक फोड़ कर या अपने ख़र्चों से कटौती कर रंगकर्म करने का प्रयास करते रहे…हां मगर आज के समय मे या इन परिस्थितियों मे जो नऐ रंगकर्मी आ रहे हैं उन्हें सृजनात्मकता के साथ इसके व्यवसायी करण पर भी अवश्य ही सोचना चाहिए।
प्रश्न 2. रंग मंच के माध्यम से आप समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं?
उत्तर 2. रंगमंच हो या फ़िल्में हों हमेशा से समाज पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता आया है और आगे भी पड़ता रहेगा।
रंगमंच की सबसे बड़ी ख़ूबी शायद यही है कि समाज मे हो रहे भ्रष्टाचार, कुरीतियां, या आपसी भाईचारे को सहज, स्पष्ट और रोचक तरीके से मंचित कर आम जनमानस को इसके प्रति सजग एवं जागरूक किया जाय।
हमारे अपने आस-पास की या प्रदेश से देश तक की समस्याओं को और उनके समाधान को निश्पक्ष रूप से दर्शकों के माध्यम से समाज तक पहुंचाना रंगकर्मी का प्रथम दायित्व एवं कर्तव्य है। लिहाज़ा मुझे लगता है कि जिन विषयों को समस्याओं को हम कभी-कभी नज़र-अंदाज़ कर आगे बढ़ने को होते हैं रंगमच हमे रुककर, ठहरकर उस पर आत्ममंथन करने और विचार करके अच्छे बदलाव की ओर अग्रसर होने को प्रेरित करता रहा है…और रहेगा।
प्रश्न 3. आपकी रंगमंच की अब तक की यात्रा कैसी और क्या रही?
उत्तर 3.यात्रा इतनी ही है कि सन. 1965 मे हमारा जन्म पटियाले में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा इलाहाबाद एवं केंद्रीय विद्यालय राजस्थान में हुई। मेरे पिताजी 54 – 55 के दशक मे इलाहाबाद के रंगकर्म एवं संगीत के क्षेत्र मे सक्रिय थे। उन दिनों सिनेमाघरों मे सिनेमा शुरू होने से पहले नाटक भी हुआ करते थे… इलाहाबाद मे पैलेस, प्लाज़ा जैसे सिनेमा घरों मे सुबह 9 से 11बजे दिन तक…।
उधर श्री अनुकूल बनर्जी जैसे नाट्यप्रेमी एवं उनके साथी बांग्ला नाटकों एवं बांग्ला रंगकर्म पर काफ़ी गंभीरता से काम किया और लगातार रूपकथा के माध्यम से करते रहे जिसके अधिकतर मंचन पूजा पंडालों या बड़े पार्कों और प्रयाग संगीत समिति मे होते थे मनोरंजन का साधन मात्र रेडियो या नाटक ही हुआ करते थे…लिहाज़ा बचपन मे नाट्यजगत से जुड़ी संस्कृति जुड़ाव रहा आया। दीपक मुखर्जी, स्निग्धा घोषाल, माला तंख़ा, रविभूषण वधावन, विपिन टंडन, विपिन शर्मा एवं रामचंदर गुप्त, सत्यव्रत सिन्हा एवं और भी कई उस समय के वरिष्ठ रंगचिंतक एवं कलाकारों का इसमें योगदान था…उसी लिहाज़ से कहीं न कहीं नाटक या रंगकर्म ख़ून में था और थोड़ी समझ भी थी मगर अनुकूल परिस्थिति न होने के कारण मेरा रंगकर्म काफ़ी देर से,सन 2000 से आरंभ हो पाया…मेरे पुराने मित्र श्री राकेश वर्मा (सचिव समयांतर) के माध्यम से अचानक शुरू हो गया… अचानक यूं , कि उनकी संस्था से “राजा की मुहर” नाटक का मंचन होना था मंचन से एक हफ़्ते पहले उनके मुख्य कलाकार बम्बई चले गए, मैं मित्रवत वर्मा जी की रिहर्सल मे आया जाया करता था और मेरी अभिनय मे रुचि भी थी…सभी परेशान थे मंचन की तिथि करीब थी… ।
उन्होंने एक दिन अचानक मुझे देखते हुऐ कहा… यार अजय भाई तुम क्यों नहीं कर लेते ये रोल,सारी समस्या ही ख़तम हो जाऐ…पहले तो मैंने साफ़ इंकार कर दिया फिर मित्रों की ज़िद पर 5 दिन मे उस रोल को बड़ी मेहनत से तैयार किया गया… नाटक की तारीफ हो गई अख़बारों मे छप गया और इस तरह से मैं अपने प्रिंटिंग के व्यवसाय से रंगकर्म मे आ खड़ा हुआ।
जैसा कि मैंने पहले भी ज़िक्र किया है। हमने शौक से रंगकर्म शुरु किया। आर्थिक तंगियों से लड़ते हुऐ भी बड़ी सहनशीलता से अभिनय करना शुरु किया और वरिष्ठ रंगकर्मी मित्रों और दर्शकों का आशीर्वाद मिलता रहा और काम बढ़ता गया इस बीच नंदू ठाकुर जी ठाकुर की संस्था “रंगयात्री” से गोदान के होरी करने का अवसर मिला जो काफ़ी बड़ा (क़रीब 3 घंटे का ) और चर्चित नाटक था, एवं पूजा ठाकुर इसे निर्देशित कर रही थीं ।
लोक संगीत,रंग-संगीत,अभिनय ,मंच-सज्जा आदि काफ़ी मेहनत की जाती थी उसके बाद सुश्री सुषमा शर्मा जी निर्देशन मे सागर सीमांत, लाला हरदौल आदि जैसे नटकों अभिनय का अवसर प्राप्त हुआ… इसी बीच हमारे गुरू तुल्य श्री परिमल दत्ता जी एवं प्रो. असीम मुखर्जी जी से मुलाकात हुई और कुछ बांग्ला नाटकों मे अभिनय करने का भी मौका मिला जिसमे अनन्या रॉय, रूपा सहाय, सुजॉय घोषाल,सुभाष होर राजा घोष,गोपाल दा आदि जैसे वरिष्ठ कलाकारों का साथ रहा और बहुत अच्छा समय बीता।हर तरह के काम जो प्रस्तुति से संबंधित होते थे सब बड़े ही आनंद से किये।
नटी विनोदिनी, चारूलता, हम छः, कीनूकहार का थेटर आदि नाटकों के पूर्वाभ्यास के दौरान बहुत कुछ सीखा, समझा और जाना…सफ़र चलता रहा और इधर आकाशवाणी (दूरदर्शन) से श्रुति-नाट्य, फ़ीचर, रूपक,
आदि की रिकॉर्डिंग का सिलसिला भी चलता रहा। विपिन दा, माला दी, राजा जुत्शी, रामचंद्र गुप्त, मधुर श्रीवास्तव, अभिलाष जी, रूपम ना. पांडे, अंजली सिंह,अश्विनी अग्रवाल, इक़बाल अहमद और न जाने कितने वरिष्ठ रेडियो-टी.वी.और मंच के कलाकारों के साथ श्रुति नाटकों मे जैसे (अग्नि पुंज,कुहासे के पार, मैं मर चुका हूं, आल्हा उदल, तीन मीनारें, दिले कश्मीर, दास्तान-ए-ग़ालिब, मनके सुर के, पाताल विजय(नौटंकी) और बहुत से नाटकों मे भागीदारी का मौका मिला साथ ही बहुत कुछ सीखने का।
2006 मे स्व. विनोद रस्तोगी के बेटे श्री आलोक रस्तोगी एवं श्री अभिलाष नारायन जी एवं तमाम वरिष्ठ रंगमित्रों का सानिध्य प्राप्त हुआ और बहुत कुछ सीखने को मिला।
नौटंकी की गायकी-कानपुरी, हाथरसी शैली एवं नौटंकी-अभिनय सरदार आतम जीत सिंह (लखनऊ) से बहुत कुछ सीखा (ये कैसा इंसाफ, आला अफ़सर, नई लहर, लैला मजनू, बजे ढ़िंढ़ोरा) जैसी नौटंकियों मे अलग अलग चरित्रों का निर्वाह भी किया….इस वक्त “विनोद रस्तोगी संस्थान” मे संस्था के उपाध्यक्ष पद का निर्वाह करते हुऐ रंगकर्म की दिशा मे नवोदित कलाकारों के साथ अग्रसर हूं।
मेरे निर्देशित नाटक मे से पूर्ण पुरुष, चंदनवन का बाघ,
अपना अपना दर्द, सूतपुत्र, एन इंस्पेक्टर कॉल्स, बंटवारे की आग (नौटंकी), चित्रकूट में राम, दादा भाई दूल्हा, आक्सीज़न, चारूलता आदि में सभी मेरे सहयोगी कलाकारों ने मेहनत कर प्रस्तुतियों को सफल बनाने मे मेरा भरपूर सहयोग किया …मैं आभारी हूं अपने सभी वरिष्ठ और कनिष्ठ रंगकर्मी साथियों का जिनके सानिध्य से मैं यहां तक की रंगयात्रा कर सका और आगे भी आशा है इसी ऊर्जा से चलता रहूंगा।
प्रश्न 4. रंगमंच में आने वाले कलाकारों से आप क्या कहना चाहेंगे?
उत्तर 4. रंगकर्म मे जो लोग भी आने का प्रयास कर रहे हैं उनसे मेरा सिर्फ़ इतना आग्रह है कि रंगकर्म को मात्र फ़िल्मों मे जाने का माध्यम न समझें बल्कि रंगकर्म हमे हमारी लगन परिश्रम से एक सेनानी की तरह तैयार करता है, जिससे हम घर से समाज तक हर परिस्थिति से डटकर मुकाबला करने योग्य बनते हैं।
मैं हृदय से आभारी हूं ऋतंधरा मिश्रा जी का जिन्होंने इस कोरोना जैसी महामारी के समय मे भी जिस ख़ुबसूरती से समय का सदउपयोग कर हम सभी नाट्यप्रेमियों, कलाकारों को एक सूत्र मे पिरोने का जो बीड़ा उठाया है वो निश्चित रूप से सराहनीय है…मैने कई बार लोकनाट्य- नौटंकी एवं नाटकों मे उनके साथ मंच साझा किया …जैसे आई भोर सुहानी, बंटवारे की आग, कहानी घर-घर की, शुतुरमुर्ग, कथा शकार की …वो एक उर्जावान, बहुमुखी प्रतिभा की धनी कलाकार हैं।
जी आपका बहुत-बहुत धन्यवाद
ऋतंधरा मिश्रा