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‘पूँजीपतियों का कोई देश नहीं होता है’: कटियार

   भगवान स्वरूप कटियार का साक्षात्कार

                       सन्दर्भ ‘जनता का अर्थशास्त्र’ पुस्तक 

                                     लेखक : भगवान स्वरूप कटियार

1-इस किताब का शीर्षक आपने जनता का अर्थशास्त्र रखा इससे आपका क्या तात्पर्य ?

इस शीर्षक से आशय एकदम साफ़ है कि जिस देश के आर्थिक नियोजन के केंद्र में देश का आमजन यानी किसान-मजदूर और देश का युवा नहीं होता है वह देश में न तो जनता का लोकतंत्र हो सकता है और न ही वहाँ की अर्थव्यवस्था जनता की अर्थव्यवस्था ही हो सकती है | मेरी यह किताब सचेत करती है कि आजदी के बाद जनता के लोकतंत्र में जनता की अर्थव्यवस्था की परिकल्पना की गयी थी पर वह आज कोसों दूर है | यह किताब वैकल्पिक अर्थव्यवस्था के कुछ सूत्र भी देती है |  मौजूदा दौर में देश में कार्पोरेट लोकतंत्र और कार्पोरेटपरक अर्थव्यवस्था है | कार्पोरेट के चन्दे से चुनाव लड़े जाते हैं और इसलिए सरकारें कार्पोरेट घराने के हितों का ध्यान रखती हैं और जनता के हित गौड़ हो जाते हैं  | अभी केंद्र सरकार ने 10 फ़ीसदी कार्पोरेट टैक्स कम करके 30 फ़ीसदी से  20 फ़ीसदी कर दिया |

2-पूंजीवादी विकास के क्या खतरे हैं | क्या इसकी प्रतिपूर्ति स्वदेशी अर्थनीति कर सकती है |

       पूंजीवाद विकास का सबसे बड़ा खतरा है कि वह समाज को डीह्युम्नाइज ( अमानवीकृत) करता है क्योंकि उसके केंद्र में सिर्फ मुनाफ़ा होता है | सही मायने में पूँजीपतियों का कोई देश भी नहीं होता है, उनका देश होता है उनका स्वार्थ यानी मुनाफा | अर्थव्यवस्था का विकेंद्रीकरण और समाजीकरण पूंजीवादी विकास का बेहतर विकल्प हो सकता है | हम अपना घरेलू बाजार सम्रध्द करें और आयात पर कम से कम निर्भर हों | स्वदेशी नीति भी इसमें सहायक हो सकती है |

3-आज मंदी के दौर को किस तरह देखते हैं,इसका समाधान क्या है ?

       देश में मंदी की वजह मौजूदा सरकार की गलत आर्थिक नीतियाँ हैं | नोटबंदी और जीएसटी का लागू करना | इन नीतियों से आये धन को सरकार ने बड़े कार्पोरेट घरानों को दे दिया और मझोले कारोबारियों कारोबार बैठ गये | बेरोजगारी की दर 45 सालों में सर्वोच्च शिखर पर पहुँच गयी | देश देशी और विदेशी कर्ज में डूबता चला गया जो इस समय देश पर विदेशी कर्ज 543 अरब डालर है  | उत्पादित मॉल की खपत नहीं है क्योंकि लोगों के पास  पैसा नहीं है इस क्रयशक्ति क्षीण हो गयी है | हमने 2008 आयी मंदी से सबक नहीं लिया | कार्पोरेट घराने कर्ज में डूब कर दिवालिया हो कर भागते रहे हैं और सरकार उसी पैटर्न पर अन्य कार्पोरेट घरानों हाँ को सस्ते ब्याज दरों पर कर्ज देती रही | देश में निवेश लगातार घटता रहा | मोदी जी झोली लिये दुनियां की खाक छानते रहे पर निवेश घटता रहा | जब देश के कार्पोरेट घराने ही निवेश करने को तैयार नहीं तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से कैसे उम्मीद की जा सकती है | सार्वजनिक उद्यम बी एस एन एल,एच ए एल,ओ एन जी सी जैसे फायदे वाले उद्यम दम तोड़ रहे हैं | समाधान यही है कि कार्पोरेट निर्भेता को छोड़ कर उत्पादनपरक-रोजगारपरक अर्थव्यवस्था का स्रजन करें | लैटिन अमेरिकी देश वर्ल्ड बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के कर्ज से मुक्त होने के लिए अपनी आंतरिक अर्थव्यवस्था को मजबूत कर रहें हैं | हमें भी इसी राह को अपनाना होगा |

4-युध्द का दुनियां के अर्थशास्त्र से क्या रिश्ता है ,युध्द का अर्थशास्त्र क्या है ? इससे कैसे निपटा जाय ?

  इस वैश्विक आधुनिक सभ्य समाज में युध्द सबसे अमानवीय और क्रूर संकेत है | युध्द सभ्य समाज में एक कलंक है | मौजूदा दौर में दुनियां का हथियारों के कारोबार का खर्च लगभग 02 ट्रिलियन डालर है | यह भारत जैसे बड़े देश की मौजूदा अर्थव्यवस्था के बराबर है | हथियारों के कारोबार का सरगना अमेरिका है | हथियारों का अर्थशास्त्र दुनियां में तबाही मचाये हुए है | यह ईराक को और लीबिया को निगल गया | देशों को आपस में लडवा कर अपने हथियारों की तिजारत करते हैं हथियारों के सौदागर देश |युध्द और हथियारों के खिलाफ़ एक बड़ा वैश्विक जनांदोलन खड़ा करना पड़ेगा |

5-पर्यावरण के विनाश का अर्थशास्त्र क्या है और इससे कैसे उबरा जाय ?

पृथ्वी बचेगी तो स्रष्टि बचेगी | मुनाफे की अर्थव्यवस्था जंगल और नदियों को निगल रही है | समुद्र को प्रदूषित कर रही | इस धरती का सबसे बड़ा दुश्मन मुनाफा है | इस मुनाफे ने ही हथियार और युध्द के जरिये दुनियां को विनाश के मुहाने पर खड़ा कर दिया है | वैश्विक संगठित मुहिम ही एक मात्र रास्ता है | दुनियाँ के देशों की सरकारों पर वहां की आवाम को युध्द और पर्यावरण के विनाश के खिलाफ खड़ा होना होगा |

6-देश के मौजूदा संकट से उबरने का क्या उपाय है ?

देश की राजनीती और अर्थनीति में आमूल चूल परिवर्तन | देश की मौजूदा राजनीति के केंद्र में न देश है और उसका जनहित | उसके केंद्र में है सत्ता जिसके लिए राजनेता किसी भी स्तर तक गिर सकते हैं | जिनकी जगह जेल में होनी चाहिए वे संसद में बैठे हैं | लगभग सभी राजनैतिक दलों का आचरण एक जैसा है | पर मौजूदा मोदी सरकार तो कार्पोरेट और फासीवादी ताकतों का गठजोड़ है | इस संसदीय चुनाव में राजनैतिक दलों ने 60 हजार करोड़ रुपये खर्च किये हैं जिसमें सबसे ज्यादा बी जे पी ने खर्च किये क्योकि सबसे ज्यादा चंदा उसे ही मिला है |

7- इक्कीसवीं सदी की चुनौती के मद्दे नज़र अर्थनीति कैसी होनी चाहिए ?

मुनाफे से इतर समाजवादी विकेन्द्रित रोजगारपरक उत्पादनपरक अर्थनीति जिसमे हथियार और युध्द की कोई जगह न हो |

           साक्षात्कारकर्ता ‘घूमता आईना’ न्यूज पोर्टल के सम्पादक स्नेह मधुर

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