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“श्रमिकों के लिए कहींं यह बदलाव की आहट ताे नहींं”

ऐसे में यह एक नया संकेत भी हो सकता है कि इन्‍हीं मजदूरों के बीच से कुछ नए नेता उभरकर सामने आएं जो संख्‍या बल को केंद्र में रखकर न्‍याय दिलाने के लिए इनके लिए नीतियां बनवा सकें और अपने ही राज्‍य के महानगरों, कस्‍बों में रोजी-रोजगार के लिए उनकी आवाज बन सकें।

वरिष्ठ पत्रकार रतिभान त्रिपाठी

लखनऊ।

देश भर के प्रवासी मजदूरों को लेकर देश की राजनीति सरगर्म है। मजदूरों की आड़ में अधिकांश पार्टियों के नेता अपनी-अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने में पीछे होते नहीं दिख रहे हैं। मजदूर भले ही इन दिनों गहरे संकट में हैं, उनके जीवन से लेकर रोजी-रोटी की समस्‍या सर्वविदित है लेकिन कोरोना के चलते ही सही, तकरीबन चार दशकों के बाद देश में मजदूरों को लेकर राजनीतिक उबाल आया है। यह उबाल मजदूरों के लिए कारगर ही होगा, यह तो नहीं कहा जा सकता है लेकिन देश के इस विशाल संख्‍या वाले समुदाय की चर्चा तो मुख्‍यधारा में आई है जो लगभग खत्‍म हो चली थी।

याद करिए 1970 से 80 के दशक का वह कालखंड जब इस देश में जब इस देश में जार्ज फर्नांडीज सरीखे नेताओं की एक आवाज पर मुंबई से लेकर चेन्‍नई तक और अहमदाबाद से लेकर कोलकाता तक कारखानों की मशीनें ठप हो जाती थीं। रेल से लेकर बसों तक के पहिए थम जाते थे। लेकिन उसी कालखंड में श्रम कानूनों में सुधार भी हुआ, साथ ही साथ श्रमिक संगठनों को कमजोर करने की कुत्‍सित चालें भी चली गईं। नतीजतन मजदूरों की आवाज उठाने वाले नेताओं के गले से आवाज निकलनी बंद हो गई। निकली भी तो नीतियों की आड़ लेकर उद्योगपतियों ने उसे तवज्‍जो नहीं दी। 1991 के बाद से उदारीकरण के नाम पर सरकारी नीतियों ने श्रमिक संगठनों की कमर ही तोड़ दी। जबकि यही वह कालखंड भी है जब मजदूरों का पलायन भी एक राज्‍य से दूसरे राज्‍य में हुआ। खासतौर से उत्‍तर और मध्‍य भारत के राज्‍यों खासकर उत्‍तर प्रदेश, बिहार, मध्‍य प्रदेश, पश्‍चिम बंगाल के मजदूर रोजी रोटी के जुगाड़ में उन राज्‍यों की ओर भागने लगे जहां उन्‍हें कुछ न कुछ काम मिल रहा था।

ये मजदूर अपना पसीना बहाने के बदले महाराष्‍ट्र, गुजरात, हरियाणा और दिल्‍ली में कुछ न कुछ काम पाते रहे हैं। यह परिघटना उसी दौर में चल रही थी जब उत्‍तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्‍यों में समाजवाद और बहुजनवाद के नाम पर सरकारें बन रही थीं। रोजी रोटी का नारा देने वाले क्षेत्रीय दलों के नेताओं और इनकी सरकारों की नीतियों के चलते इन्‍हीं राज्‍यों में चल रहे उद्योग-धंधे ठप होते गए। उत्‍तर प्रदेश और बिहार से इसी दौर में मजदूरों का सर्वाधिक पलायन मुंबई, पूना, अहमदाबाद, सूरत, लुधियाना, दिल्‍ली आदि शहरों की ओर हुआ।

जनगणना के आंकड़ों के हवाले से गौर करें तो 2001 से 1011 के बीच मजदूरों का सर्वाधिक पलायन इधर से उधर हुआ। 2001 तक जहां यह संख्‍या राष्‍ट्रीय स्‍तर पर 30 करोड़ के आसपास थी, वहीं 2011 में यह बढ़कर 45 करोड़ पहुंच गई। इसी कालखंड में लालू प्रसाद यादव जैसे नेता बिहार को अराजकता की ओर ले जा चुके थे। इसी दौर में उत्‍तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और मायावती जैसे नेता गरीबों, पिछड़ों और दलितों के नाम पर उन्‍हीं की छाती पर मूंग दल रहे थे। 1989 से 2011 के आसपास तक उत्‍तर प्रदेश और बिहार में गुंडातंत्र तो विकसित हुआ लेकिन उद्योग धंधे सिमट गए। इन नेताओं और इनके परिवार का निजी कोष तो अरबों का हो गया लेकिन जिन गरीबों मजलूमों के नाम पर ये सब राजनीति कर रहे थे, उनकी रोजी रोटी बंद हो गई। पिछड़ों, गरीबों और दलितों के नाम पर बनी सरकारों में दिखावा तो खूब हुआ लेकिन एक भी कल कारखाने नहीं लगे। जो चल रहे थे, वह इन्‍हीं की नीतियों और गुंडातंत्र की वजह से खत्‍म हो गए। और अब जबकि कोरोना जैसी भयावह महामारी संकट में सरकारें हालात संभालने में जुटी हैं तो राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए इन पार्टियों के नेता मजदूरों के लिए कुछ कर भले नहीं रहे लेकिन बयानबीर बनकर जरूर उभरे हैं।

पिछले दो महीनों में याद नहीं आता कि अखिलेश यादव, मायावती जैसे नेता अपने आलीशाल महलों से बाहर आए हों, किसी मजदूर की मदद में एक कदम भी आगे बढ़ाया हो। हां, कांग्रेस के नेता राहुल गांधी जरूर मजदूरों के बीच गए और दिखावे के लिए ही सही, उनसे बातचीत की। नतीजा यह हुआ कि सरकारें और सक्रिय हो गईं। मजदूरों के हितसाधन में सिस्टम अधिक सक्रिय हुआ। लेकिन राहुल गांधी की सक्रियता के दरम्‍यान उनकी बहन और कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने बसों का बेड़ा खड़ा करने की राजनीति शुरू की। शायद वह भूल गईं कि उनकी दिखावे वाली राजनीति की पोल खुल जाएगी। जिस राजस्‍थान और उत्‍तर प्रदेश की सीमा पर सेवा भाव का नाम देकर उन्‍होंने बसें लगाई और मजदूरों को पहुंचाने का एलान किया, उसी राजस्‍थान में कांग्रेस की ही गहलौत सरकार ने फंसे हुए छात्रों को उत्‍तर प्रदेश की सीमा तक छोड़ने के एवज में अपनी बसों का 36 लाख रुपये किराया और साढ़े 19 लाख का डीजल वसूल लिया। उत्‍तर प्रदेश की सरकार को वह जिस तरह से घेरने की कोशिश में जुटी थीं, उसी सरकार ने राजस्‍थान सरकार को उक्‍त राशि का भुगतान भी कर दिया, जबकि पड़ोस की हरियाणा सरकार ने अपनी बसों से मजदूरों को जरूर भेजा पर उत्‍तर प्रदेश सरकार से किराया नहीं मांगा। ऐसे में यह बात समझ से परे है कि प्रियंका गांधी ने इतना बड़ा वितंडा खड़ा ही क्‍यों किया, जब उनकी ही पार्टी की एक राजस्‍थान सरकार छात्रों को पहुंचाने के बदले किराया वसूल चुकी है।

बहरहाल, परिस्‍थितिवश ही सही, मजदूरों की राजनीति इन दिनों केंद्रीय भाव ले चुकी है। उत्‍तर प्रदेश, बिहार, महाराष्‍ट्र, गुजरात, मध्‍य प्रदेश, छत्‍तीसगढ़, राजस्‍थान, पश्‍चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश ,तेलंगाना, कर्नाटक और तमिलनाडु तक का सारा सरकारी सिस्‍टम मजदूरों के इर्द गिर्द घूम रहा है। सरकारी मशीनरी मजदूरों के हित के लिए नीतियां बनाने और उन्‍हें उनके घर तक पहुंचाने के लिए ट्रेनों से लेकर बसों और टैक्‍सियों तक का इंतजाम करने में जुटी हैं। श्रम कानूनों में बदलाव की बात हर जुबान पर है। श्रम कानूनों को निलंबित करने की सरकार की रणनीति की लानत मलानत हो रही है। मजदूरों के हित में नए किस्‍म का राष्‍ट्रव्‍यापी परिवेश उभरा है। यह सुखद संकेत कहा जाएगा कि मजदूरों का विशाल समुदाय जो अपने श्रम से योगदान कर राष्‍ट्र की उन्‍नति में अपना योगदान कर रहा है, राजनीतिकों और रणनीतिकारों को उसकी सुधि तो आई है। बदले परिवेश उदारवादी नीतियों में मजदूर बेशक मजबूर है लेकिन इस विशाल समुदाय के लिए सरकारें भी सोचने को मजबूर हैं।

श्रम नीतियों के कुछ विशेषज्ञों की मानें तो कोरोना के हालात में देश भर के मजदूरों ने जिन संकटों का सामना किया है, उसका असर उन पर भी पड़ा है। यह संभव है कि वह अपने मूल निवास के आसपास ही रोजी रोटी का जुगाड़ तलाशें। दो महीने का गहरा संकट झलने के बाद पहुंचे मजदूर अब वापसी की मानसिक दशा में नहीं हैं। इतना ही नहीं, सरकारें भी उनके हित में रणनीतियां बनाने में जुटी हैं। उदाहरण के तौर पर उत्‍तर प्रदेश की योगी आदित्‍यनाथ की सरकार ने 20 लाख मजदूरों को अपने प्रदेश में ही रोजगार देने के लिए मशीनरी को सक्रिय कर रखा है। माना जा सकता है कि इसका सकारात्‍मक परिणाम सामने आएगा। राजनीतिक विश्‍लेषक कहते हैं कि लोकतंत्र में सिर गिने जाते हैं। जिसके पास सिरों की संख्‍या ज्‍यादा, राजनीति में वही ताकतवर।

ऐसे में यह एक नया संकेत भी हो सकता है कि इन्‍हीं मजदूरों के बीच से कुछ नए नेता उभरकर सामने आएं जो संख्‍या बल को केंद्र में रखकर न्‍याय दिलाने के लिए इनके लिए नीतियां बनवा सकें और अपने ही राज्‍य के महानगरों, कस्‍बों में रोजी-रोजगार के लिए उनकी आवाज बन सकें।

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