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‘जनता का अर्थशास्त्र’: वैकल्पिक अर्थव्यवस्था की बात

आमफहम भाषा में अर्थशास्त्र की बारीकियों की शवपरीक्षा है कटियार की किताब ‘जनता का अर्थशास्त्र’। किताब के ज्यादातर अध्याय या यों कहें कि कमोबेश पूरी की पूरी आर्थिक उदारवाद के चलते पैदा हुई चुनौतियों को ही सामने रखती है पर साथ ही वैकल्पिक अर्थव्यवस्था क्या हो इस पर भी बात रखती है। सही है और जैसा कि किताब की प्रस्तावना में वरिष्ठ पत्रकार रामेश्वर पांडे ने कहा भी है कि लेखक अमेरिकी चिंतक गालब्रेथ से ज्यादा प्रभावित दिखते हैं। 

सिद्धार्थ कलहंस

भारतीय समाज में याकि समूचे एशियाई कुनबे में अर्थशास्त्र को पहुंच से  दूर की चीज माना जाता रहा है। आम जनता के लिए अर्थव्यवस्था की जानकारी रखना पाणिनि के भाष्यसूत्र या मंदारिन भाषा जितना ही कठिन माना जाता रहा है। पूंजी पर काबिज लोगों नें भी कभी इसे आमजन तक पहुंचाने का प्रयास नहीं किया और रही सही कसर कम से कम क्षेत्रीय भाषाओं में अर्थशास्त्र की जटिल शब्दावली के दुरुह अनुवादों ने पूरी की। हालांकि देश और दुनिया के तमाम अर्थशास्त्रियों का मानना है कि जो कुछ आपके इर्द गिर्द घट रहा है वो सब अर्थशास्त्र है और आसपास की चीजों पर पैनी नजर आपको बेहतर अर्थशास्त्र की समझ बनाने में मदद करती है।भगवान स्वरुप कटियार कम से कम एक मामले में तो बधाई के पात्र है कि जनता का अर्थशास्त्र जैसी किताब लिख कर उन्होंने इसे आमजन के करीब ले जाने को कोशिश की है।

जाहिर है कि वामपंथी होने के चलते लेखक भगवान स्वरुप कटियार की किताब जनता का अर्थशास्त्र जनपक्ष की बात ही ज्यादा करती है और कारपोरेट राजनीति व पूंजी के गठजोड़ को निशाने पर रखती है। किताब के ज्यादातर अध्याय या यों कहें कि कमोबेश पूरी की पूरी आर्थिक उदारवाद के चलते पैदा हुई चुनौतियों को ही सामने रखती है पर साथ ही वैकल्पिक अर्थव्यवस्था क्या हो इस पर भी बात रखती है। सही है और जैसा कि किताब की प्रस्तावना में वरिष्ठ पत्रकार रामेश्वर पांडे ने कहा भी है कि लेखक अमेरिकी चिंतक गालब्रेथ से ज्यादा प्रभावित दिखते हैं। पूंजी के गठजोड़ के आगे लोकतंत्र किस कदर बेमानी हो चला है इसे सबसे पहले उजागर करने का काम गालब्रेथ ने ही किया था। आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र के बिना राजनैतिक लोकतंत्र लंगड़ा होते है इसे बखूबी बताया है भगवान स्वरुप कटियार ने।

दुनिया के आर्थिक-राजनीतिक संकट पर चर्चा से किताब आगे बढ़ती है और जल्दी ही भारत की ओर मुड़ती है जहां आवारा पूंजी के बढ़ते चलन उससे पैदा हुए संकट की पड़ताल करते हुए यह नोटबंदी और जीएसटी के दुष्परिणामों की बात करती है। जाहिर है कि किताब के लिखे जाने तक भारत में मंदी को लेकर चर्चाए उनतनी तेज नही हुयी थीं पर लेखक किसी सजग अर्थशास्त्री की तरह उस ओर कायदे से इशारा करते हैं और आगाह करते हैं। कभी जिनके विचारों के लिए मरसिया पढ़ने का सिलसिला पूंजीवादी ताकतों नें बाकायदा शुरु किया और करवाया था उन कार्ल मार्क्स के महत्वपूर्ण दस्तावेज पूंजी ;दि कैपिटलद्ध की इन दिनों बिक्री में आए 300 गुना उछाल का जिक्र करते हुए लेखक पेरिस कम्यून की याद दिलाते हैं और गांधी को उनके समकक्ष रखते हुए वो कहते हैं कि दोनो के रास्ते अलग थे मगर लक्ष्य एक ही था।

‘जनता का अर्थशास्त्र’ किताब का एक महत्वपूर्ण अध्याय किसानों का शोकगीत है जहां कटियार भारत में तीन लाख किसानों की मौत का जिम्मेदार नवउदारवादी नीति को बताते हुए कहते हैं सरकारें लगातार श्रम के मूल्य को दबाकर रखती गयीं और खेती घाटे का सौदा बनती गयी। सरकारी नीतियों के चलते 60 फीसदी आबादी की जीविका वाली खेती की भागीदारी सकल राष्ट्रीय आय ;जीडीपीद्ध में साल दर साल घटती गयी। सेजए अधिग्रहण कानूनए कारपोरेट खेती जैसी नीतियों के चलते किसानों के लिए अपनी इस रोजी रोटी के जरिए को बचाना मुश्किल होता जा रहा है। समय समय पर किसानों के आंदोलन का जिक्र विस्तार से करते हुए लेखक ने साफ बताया है कि किस तरह सरकारें किसानों के दमन में और पूंजी के संरक्षण में ही नजर आयीं।

किताब के आखिरी अध्याय में वैकल्पिक अर्थनीति पर भगवान स्वरुप कटियार असंगठित क्षेत्र की तबाही से लेकर श्रम कानूनों को खत्म किए जाने रोजगार विहीन विकास के माडल ;जिसे 1991 से लेकर अब तक सभी सरकारों ने अपनाया है.  की बात करते उन विकसित देशों की चर्चा करते हैं जहां का माडल अपनाने की सरकारों में होड़ मची है। बड़ी पूंजी के हितों से संचालित न होने वाले जनकेंद्रित विकास के माडल की वकालत करते हुए किताब में खेतीए छोटे व मझोले उद्यमों व असंगठित क्षेत्र के संरक्षण के साथ ही सरकारी खर्च में बढ़ोत्तरीए श्रम कानूनों को न केवल बनाए रखने बल्कि और भी जनोन्मुखी बनाने के साथ सार्वजनिक सुविधाओं व जनकल्याण को सुनिश्चित करने की वकालत की गयी है। किताब  वैकल्पिक व्यवस्था को देश के नही बल्कि विश्व के स्तर पर बनाने व लागू करने की जरूरत बताती है।

भगवान स्वरूप कटियार का जीवन परिचय

  • जन्म तिथि -01फरबरी 1950 ,कानपुर जनपद के ग्राम एवं पोस्ट –मिरगँव में एक किसान परिवार में पैदाइश | पिता – शंकर लाल कटियार स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, माँ –रामप्यारी देवी  | वर्तमान में २-मानसनगर जियामाऊ हज़रतगंज लखनऊ-226001 में गत 35 वर्षों से निवास |
  • शिक्षा – एम ए अंग्रेजी साहित्य ,एम ए इतिहास,अंतरराष्ट्रीय अध्ययन में डिप्लोमा,बी एड |. 
  • सहायक निदेशक सूचना उ. प्र. के पद से सेवानिवृत |
  • प्रकाशन– पांच कविता संग्रह- विद्रोही गीत (1978), जिन्दा क़ौमों का दस्तावेज (1998).हवा का रुख टेढ़ा है(2004),मनुष्य विरोधी समय में (2012),अपने-अपने उपनिवेश(2017) | वैचारिक पुस्तकें -अन्याय की परम्परा के विरुध्द(2015 ),समाजवादी विचारक एवं राजनीतिज्ञ रामस्वरूप वर्मा की जीवनी और उनके समग्र वैचारिक लेखन का तीन खण्डों में संपादन एवं प्रकाशन(2016), जनता का अर्थशास्त्र (2019) आदि लगभग एक दर्जन किताबें प्रकाशित|दैनिकअख़बारों, पत्र पत्रिकाओं में सामाजिक,आर्थिक,राजनीतिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर स्तम्भ लेखन |
  • सम्मान – भारतीय दलित साहित्य एकेडमी का डा0 अम्बेडकर सम्मान |
  • यात्राएं – लन्दन में सन 2000 में आयोजित विश्व दलित राईटर कान्फ्रेंस में हिस्सा लिया|इसके अतिरिक्त कैलाश मानसरोवर यात्रा,पिंडारी ग्लेसियर यात्रा के साथ-साथ इंग्लैण्ड,फ़्रांस,जर्मनी,स्पेन,पुर्तगाल,नीदरलैंड,इटली ,चीन ,जापान ,दक्षिण अफ्रीका ,स्विट्जरलैंड, रूस ,स्वीडन , नार्वे , डेनमार्क, आस्ट्रिया ,हंगरी ,चेक रिपब्लिक, थाईलैंड,सिंगापुर ,मलेशिया,नेपाल ,भूटान,श्रीलंका ,फ्लोरेंस ,वेनिस, वेटिकन सिटी आदि देशों की साहित्यिक-संस्कृतिक यात्राएं |
  • संस्थाएं जिनसे सम्बध्द-जन संस्कृति मंच (उपाध्यक्ष उ.प्र.),डा0 राही मासूम रज़ा साहित्य एकेडमी (उपाध्यक्ष),लखनऊ फिल्म सोसाइटी (सचिव),पेन (सदस्य अन्तरराष्ट्रीय साहित्यिक संस्था )आदि
  • पत्र –पत्रिकाओं में सैकड़ों लेख कविताएँ एवं कहानियां |
  • सामाजिक एवं राजनीतिक आन्दोलनों में सक्रिय भागेदारी |
  • सम्प्रति –स्वतंत्र लेखन
  • मंगलदीप-2-मानसनगर जियामाऊ हजरतगंज लखनऊ-2266001 मो0-9415568836,
  • mail [email protected]

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