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पत्रकारिता की शुरुआत: 1: “कुदाल से कलम तक”: रामधनी द्विवेदी :29:

रामधनी द्विवेदी

आज जीवन के 71 वें वर्ष में जब कभी रुक कर थोड़ा पीछे की तरफ झांकता हूं तो सब कुछ सपना सा लगता है। सपना जो सोच कर नहीं देखा जाता। जिसमें आदमी कहां से शुरू हो कर कहां पहुंच जाता है? पता नहीं क्‍या-क्‍या घटित होता है? कभी उसमें कुछ दृश्‍य और लोग पहचाने से लगते हैं, तो कभी हम अनजाने लोक में भी विचरने लगते हैं। जगने पर असली दुनिया में आने पर जो देखें होते हैं,उसके सपना होने का बोध हेाता है। यदि सपना सुखद है तो मन को अच्‍छा लगता है, यदि दुखद है तो नींद में और जगने पर भी मन बोझिल जाता है। सुखद सपने बहुत दिनों तक याद रहते हैं, हम अपने अनुसार उनका विश्‍लेषण करते हैं और दुखद सपने कोई याद नहीं रखता, क्‍योंकि वह पीड़ा ही देते हैं। यही हमारी जिंदगी है। जब हम कभी रुक कर पीछे देखते हैं तो सुखद और दुखद दोनों बातें याद आती हैं। इनमें से किसी अपने को अलग भी नहीं किया जा सकता क्‍योंकि बिना ‘ दोनों ‘ के जिंदगी मुकम्‍मल भी तो नहीं होती। जिंदगी की धारा के ये दो किनारे हैं। बिना दोनों के साथ रहे जिंदगी अविरल नहीं होगी और उसमें थिराव आ जाएगा। तो मैं अपनी जिंदगी के दोनों पक्षों का सम्‍मान करते हुए उन्‍हें याद कर रहा हूं। जो अच्‍छा है, उसे भी और जो नहीं अच्‍छा है उसे भी, सुखद भी दुखद भी।  तो क्‍यों न अच्‍छे से शुरुआत हो। यह स्‍मृति में भी अधिक है और इसमें कहने को भी बहुत कुछ है। जो दुखद या अप्रिय है, वह भी कालक्रम में सामने आएगा। लेकिन मैं सबसे अनुनय करूंगा कि इसे मेरे जीवन के सहज घटनाक्रम की तरह ही देखें। मैं बहुत ही सामान्‍य परिवार से हूं, मूलत: किसान रहा है मेरा परिवार। आज भी गांव में मेरे इस किसानी के अवशेष हैं, अवशेष इसलिए कि अब पूरी तरह किसानी नहीं होती। पहले पिता जी अवकाश ग्रहण के बाद और अब छोटा भाई गांव पर इसे देखता है। खुद खेती न कर अधिया पर कराई जाती है लेकिन कागजात में हम काश्‍तकार हैं। उस गांव से उठकर जीवन के प्रवाह में बहते-बहते कहां से कहां आ गया, कभी सोचता हूं तो जैसा पहले लिखा सब सपना ही लगता है। कभी सोचा भी न था कि गांव के खुले माहौल में पैदा और बढ़ा-बड़ा हुआ मैं दिल्‍ली-एनसीआर में बंद दीवारों के बीच कैद हो जाऊंगा। लेकिन वह भी अच्‍छा था, यह भी अच्‍छा है। जीवन के ये दो बिल्‍कुल विपरीत ध्रुव हैं जो मुझे परिपूर्ण बनाते हैं। कुदाल के बीच शुरू हुई जिंदगी ने हाथों में कलम पकड़ा दी और अब वह भी छूट गई और लैपटॉप ने उसका स्‍थान ले लिया। कुदाल से शुरू और कलम तक पहुंची इस यात्रा के पड़ावों पर आप भी मेरे साथ रहें, जो मैने देखा, जिया, भोगा उसके सहभागी बनें।

रामधनी द्विवेदी

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और दैनिक जागरण समाचार पत्र की कोर टीम के सदस्य हैं।

“पत्रकारिता में आना-1 !”

गतांक से आगे…

सन् 1972 का अक्टूबर का महीना रहा होगा। मैं मिर्जापुर के अकोढ़ी गांव के पास स्थि‍त एम भट्टाचार्य उच्‍चतर माघ्‍यमिक विद्यालय में शिक्षण कार्य छोड़ कर गांव आ गया था और खेती में लग गया था। इस स्‍कूल में मैं मुश्किल से एक महीने ही रहा हू्ंगा। यहां मेरे श्‍वसुर जीने काम दिलाया था,लेकिन आने-जाने और रहने खाने की कोई ठोस व्‍यवस्‍था न होने से यह बड़ा कष्‍टसाद्ध्‍य था।मैं श्‍वसुर जी के साथ ही रहता था। वह डीआइओएस आफिस में बाबू थे। विद्यालय के मैनेजर का कोई काम फंसा था।उसे कराने के एवज में उन्‍होंने मेरे लिए नौकरी मांग ली थी। विद्यालय में अंग्रेजी और विज्ञान पढ़ाने वाले शिक्षक की कमी थी, उसी के लिए मेरी नियुक्ति मैनेजर साहब ने कर ली। उन्‍होंने पोस्‍टकार्ड पर मेरी नियुक्ति की सूचना मेरे गांव के पते से डाली और पत्र पाते ही मैने जाकर उसे ज्‍वाइन कर लिया।

मैनेजर साहब कोई जायसवाल जी थे, जिन्‍हें शायद लकवा मार चुका था और दोनो हाथ काम नहीं करते थे, लेकिन वह बहुत सरल थे। रोज विद्यालय आते और काफी देर वहां बैठते। स्कू्ल मिर्जापुर से लगभग आठ किलोमीटर दूर अष्‍टभुजा पहाडि़यों के आगे था। मेरे दो साथी मिर्जापुर में रहते थे। उनमें एक यादव जी थे। मैं उन्‍हीं की साइकिल पर स्‍कूल जाता। सुबह मैं चलाकर ले जाता, शाम को वह ले आते। मेरे श्‍वसुरजी खाना बनाने खाने में ढीले थे। सुबह बिना खाए, सिर्फ चाय पीकर ही आफिस चले जाते। मुझसे बिना खाए इतनी दूर साइकिल पर जाना और दिन भर पढ़ा कर शाम को लौटना होता था। बनारस से आते समय मेरी सास जी कुछ खाना पूड़ी, ठोकवा आदि बनाकर देतीं, वह दो-एक दिन चलता फिर खत्‍म हो जाता। जिस कमरे मैं श्‍वसुरजी के साथ रहता, वहां सास जीने खाना बनाने की सभी व्‍यवस्‍था कर दी थी, लेकिन वह इसमें ढीले थे, दिन चाय आदि पर ही कट जाता, शाम को कुछ भी खा कर काम चला लेते। हफ्ता इसी तरह कट जाता। शनिवार को बनारस चले जाते। मिर्जापुर उन दिनों छोटा सा शहर था जो पीतल के बर्तनों केलिए मशहूर था। अन्‍य कोई उद्यो्ग नहीं था। इसलिए ढाबे आदि इतने नहीं थे। मुझे मेरे साथी शिक्षक ने बताया कि एक पंडित जी का छोटा सा भोजनालय है जिसमें आठ बजे तक केवल चावल दाल खाने को मिल जाता है ।यादव जी वैसे तो अपने हाथ से खाना बनाते थे लेकिन कभी-कभी वहां खा लेते थे।मैं जब आठ बजे उस भोजनालय पर पहले दिन पहुंचा तो खौलती दाल और गर्म-गर्म भाप निकलता चावल मिला। हमारे परिवार में सिर्फ चावल- दाल खाने की परंपरा नहीं है और मेरा भी काम इससे नहीं चल पाता था,लेकिन कुछ नहीं से इतना ही काफी था। मैं किसी तरह गर्म- गर्म खाना खाता और यादवजी के आवास पर आता।वहां से दोनों लोग स्‍कूल जाते।पहुंचते-पहुंचते कक्षाएं शुरू हो चुकी होतीं।मुझे जूनियर और एक कक्षा दस की मिली थी पढ़ानेकके लिए। चूंकिे अभी तक अंग्रेजी का कोईं मास्‍टर नहीं था।इसलिए छात्र बहुत खुश थे।इसके पहले भी मैने कानपुर के रावतपुर में रामलला उच्‍चतर माध्‍यमिक विद्यालय सहित दो स्‍कूलों में थोड़ा पढाया था,इसलिए मैने अध्‍यापन में रुचि लेनी शुरू कर दी। गांव के सरल बच्‍चे थे जो मन लगाकर पढ़ते भ्‍ी। इस स्‍कूल का एक अलग ही अनुभव हुआ। मेरे प्रधानाचार्य उमाशंकर मिश्र जी थे।मैं नया शिक्षक था, इसलिए वह मेरे पढ़ाते समय छिपकर चेक करते कि मैं कैसा पढ़ा़ रहा हूं। उनके हाव भाव से लगता कि वे संतुष्‍ट हैं। एक दिन एक घटना हुई । मैं कक्षा सात मे पहुंचा तो दो छात्र आपस में लड़ रहे थे। मेरे पहुंचते ही उन्‍होंने एक दूसरे की शिकायत की। मैने उस छात्र को दो चपत मारे जिसने दूसरे छात्र को पीटा था और दोनों को अलग अलग बैठा दिया। प्रधानाचार्यजी यह देख रहे थे। बाद में उन्हो्ने बताया कि जिस छात्रको आपने मारा है,वह यहां के एक दबंग ठाकुर का लड़का है।इसलिए एक बात गांठ बांध लीजिए -कोई पढ़े या न पढ़े किसी को मारिएगा मत। मुझे डर भी लगा,लेकिन उन्‍होंने यह भी कहा कि घबड़ाने की बात नहीं है,लेकिन यह सीख ध्‍यान रखिएगा। मैं इस विद्यालय में लगभग एक महीने रहा।लेकिन अचानक मन उचटा और बिना वेतन लिए चला आया। मैं जिस विद्यालयमें पढ़ाता था,वहां के लड़के स्‍कूल बंद होने पर भैंस चराने केलिए निकल पड़ते। यदि हम लोगों का स्‍कूल से निकलने में थोड़ी देर हो जाती तो वे लंबी- लंबी लाठी लिए रास्‍ते में भैंस चराते मिल जाते।कक्षा नौ का एक लड़का पास के अकोढ़ी गांव का था। सांवले रंग का वह लड़का पढ़ने तेज था। वह कई बार टेढ़े मेढे़ सवाल,लंबे शब्‍दों की स्‍पेलिंग,ग्रामरके नियम पूछता। वह मेरी परीक्षा ले रहा था और अपनी अलग उपस्थिति भी दर्ज करा रहा था जिससे नए मास्‍टर जान सकें कि वह तेज लड़का है। मिर्जापुर इलाहाबाद रोड पर सड़के के एक ओर स्‍कूल और दूसरी ओर गांव था जहां का रहने वाला वह लड़का था। उसने अपने पिता से मेरी चर्चा की होगी। स्कू्ल बंद होने के पहले गांव के कुछ लोग स्‍कूल में आ जाते, गप्‍प लड़ाते और कभी कभी भांग भी घोटी जाती। कुछ लोग तो नियमित भांग को सेवन करते। स्‍कुल में एक कुआं था।उसके आसपास बड़ी बड़ी पटिया से बैठने की बेंचनुमा व्‍यवस्‍था थी। इन्‍ही में एक का उपयोग भांग घोंटने के लिए भी किया जाता। ऐसी पटिया घिसकर सिल का रूप ले ली थी । मिर्जापुर में विंध्‍य की पहाडि़यों में ऐसी पटियां आसानी से मिल जातीं,इसलिए लोग उनका कई तरह से इस्‍तेमाल करते।जिस भोजनालय में मैं खाना खाता,वहां बैठने और मेज के रूप में भी इसी पटिया का इस्‍तेमाल किया जाता।मिर्जापुर का कोई घर शायद ही मिलेगा जिसमें इस पटिया का इस्तेमाल न किया गया हो। तो एक दिन शाम को उसी छात्र के पिता अपने दो-एक मित्रों के साथ आए। डन्‍होंने प्रधानाचार्य जी से मेरे बारे मे पूछा। फिर मुझे बुलाया। वह लंबी कदकाठी के थे और बड़ी बड़ी मूंछें रखे हुए थे। मुझे लगा कि कहीं वे उसी लड़के के पिता तो नहीं जिसकी मैने पिटाई की थी।लेकिन शीघ्र ही मेरा भ्रम दूर हो गया। उन्‍होने कहा –मेरे बेटे ने आपकी बड़ी तारीफ की है। आप भी ब्राह्मण हैं, मैं भी। मेरा आग्रह है कि आप मेरे बेटे को पढ़ा दिया करें। हम किसान हैं। पैसा तो नहीं दे पाएंगे,आप हमारे घर में रह सकते हैं और जो हम लोग खाएंगे,वह आपको भी मिल जाएगा। सहमत हों तो बताएं। मुझे लगा कि प्रस्ता्व तो ठीक है। रहना खाना फ्री हो जाएगा और वेतन पूरा बच जाएगा। उन दिनों मेरा वेतन 150 रुपये था। मैने उनसे कहा कि सोच कर बताऊंगा । मुझे बताने की नौबत ही नहीं आई। दूसरे दिन ही पंडित जी से उनके पड़ोसी की फौजदारी हो गई और दोनों तरफ के कई लोगों को पुलिस ने पकड़ लिया। जब दूसरे दिन मैने कक्षा में उस लड़के को नहीं देखा तो अन्‍य लड़कों से पूछा तो बात पता चली।और कुछ दिन बाद ही मैने स्‍कूल भी छोड़ दिया। इस घटना के कई साल बाद मैने एक बार उधर से गुजरते समय देखा कि वह स्‍कूल अब इंटर कालेज हो गया है।  क्रमशः 30

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