कच्चा तन और मन दाम्पत्य सुख के लिए अभी तैयार नहीं था । रात में पति के साथ सोने को सोच कर ही वह घबरा जाती । उसे लगता कि उसे किस अन्धे कुएँ में डाल दिया गया है, इससे अच्छा तो उसकी जीवन लीला ही समाप्त हो जाती …
फिर क्या हुआ, आगे पढें…..!
संस्मरण:
‘कबिरा खड़ा बाज़ार में’-12 :
हरिकान्त त्रिपाठी IAS
लेखक: हरिकान्त त्रिपाठी सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी हैं
“रमचन्ना की लाठी ”
नेवास पाण्डेय के पास खेतों की तो कमी न थी पर यह उस दौर की बात है जब खेत प्राय: एक फसली हुआ करते थे । नीचे के खेत जडहनिया होते थे तो ऊँचे के खेतों में गेहूं मटर गन्ना अरहर आदि की खेती की जाती थी । बारिश ठीक-ठाक रही तो ऊँचे वाले खेतों में भी साठा धान या बगरी धान पैदा हो जाता था । साठा या बगरी धान का चावल लाल और मोटा होता था पर मिठास ऐसी कि हमारी पीढ़ी के जिसने भी बगरी का भात खाया है वो उसके मोह से आज भी मुक्त नहीं हो पा रहा है । बीच के दिनों में जब सुरक्षित अन्न का भंडार ख़ाली होने लगता था तो सांवा कोदो से काम चलता था। कोदो का डंठल नाज़ुक होता था और अक्सर पानी में गिर जाने या डूब जाने पर इसके दानों में फर्मेंटेशन होने लगता था और फिर इसका चावल मादक या मतौना हो जाता था जिसे खाकर लोगों को नशा हो जाता था । जब सूखा पड़ता तो हाहाकार मच जाता था । एक सूखे में तो लोगों को चकवड की पत्तियाँ पीसकर आटे में मिलाकर कर रोटियाँ खाते देखा है । जानवरों के लिए अरहर की पत्तियाँ बुहार कर चारे की व्यवस्था की जाती थी । अब तो न झापस वैसे होते हैं और न वैसा सूखा । गाँवों में सूखे में सूख जाने वाले कुएँ रहे नहीं, हैंडपंप सूखे में भी काम कर ही दे रहा है । सिंचाई के साधन , रासायनिक उर्वरकों और नये-नये बीजों ने भुखमरी को गुज़रे ज़माने की बात बना दी है ।
नेवास के पिताजी जब नहीं रहे, तो घर में ताला लगा कर छोटी उम्र में ही रंगून चले गये । वहाँ गाँव व अड़ोस-पड़ोस के और भी बहुत से लोग तरह तरह के काम करते थे । आलसी और काहिल बर्मीज़ के बीच भारतीय लोगों ने अच्छा पैसा बनाया । लोगों के सुझाव पर मेहनती नेवास ने लोगों की मदद से एक बैलगाड़ी ख़रीद ली और वे सामान इधर से उधर पहुँचाने का काम करने लगे ।
जब काम में पैसे मिलने लगे तो ग़रीबी से ऊब कर भागे नेवास को अपने काम से प्यार हो गया । जब लोग आराम करते तो वो अपनी बैलगाड़ी से एक्स्ट्रा ट्रिप लगा लेते । नेवास अपने छोटे से धंधे से जो कमाते थे उसे चाँदी के कलदार और सोने की मुहरों और गिन्नियों में बदल कर जमा कर देते।
ऐसा करते करते पन्द्रह बीस साल गुज़र गये तो नेवास को अपनी शादी परिवार बसाने की फ़िक्र होने लगी। साथ के लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि नेवास की तो शादी ब्याह की उम्र निकल गयी, अब इसके पिछवाड़े हल्दी न लगेगी । जब बहुत परेशान हो गये सुनते सुनते तो नेवास एक दिन अपनी सारी कमाई समेट कर गाँव चले आये ।
गाँव में देखा कि उनका घर तो पन्द्रह बीस सालों में देखरेख के अभाव में खंडहर हो रहा है । पैसा तो था ही, नेवास ने पुराना घर गिरवा कर उसी जगह पर छह महीने में बढ़िया नया घर बनवा लिया । कुछ खेत , बैलों की जोड़ी और एक दुधारू भैंस भी ख़रीद ली। गाँव में नेवास की सम्पन्नता के क़िस्से चल निकले । नेवास की उम्र पैंतीस वर्ष के आसपास हो चुकी थी सो शादी की बात फिर भी न बनी । उन दिनों कम ही उम्र में लड़के लड़कियों की शादी कर देने की परम्परा थी तो इस उम्र के आदमी की शादी कौन करता?
फिर भी एक दिन किसी रिश्तेदार ने एक अनूठा प्रस्ताव नेवास के समक्ष रख दिया। नेवास के गाँव से 10 मील दूर दुबौलिया के दूबे जी के घर एक सुन्दर सुघड़ 12-13 साल की कन्या थी पर अर्थाभाव में वे उसकी शादी न कर पा रहे थे । रिश्तेदार ने कहा कि यदि दुबे जी को कुछ लालच दी जाये तो उम्र के अन्तर के बावजूद वे शादी के लिए मान जायेंगे । नेवास को मजबूरी में प्रस्ताव स्वीकार करना पड़ा । दहेज लेने के बजाय नेवास ने सोने की पाँच मुहरें दुल्हन के बाप को देकर शादी कर ली और सुन्दर पर अपने से एक तिहाई उम्र की दुल्हन अपने घर ले आये ।
बालिका वधू ने आते ही सारा घर सँभाल लिया । उसकी त्रासदी रात में शुरू होती थी । उसका कच्चा तन और मन दाम्पत्य सुख के लिए अभी तैयार नहीं था । रात में पति के साथ सोने को सोच कर ही वो घबरा जाती । उसे लगता कि उसे किस अन्धे कुएँ में डाल दिया गया है, इससे अच्छा तो उसकी जीवन लीला ही समाप्त हो जाती । नेवास रोज़ रात में उस पर भूखे भेड़िये की तरह टूट पड़ता और वह रोती कराहती रहती भोगती रहती।
अपने से इतने बड़े पति से उस बालिका की विरोध की हिम्मत न पड़ती और यदि कुछ मुँह से निकल जाता तो नेवास की अपनी बड़ी उम्र की आत्महीनता उसका मुँह चिढ़ाने लगती और वह अपनी बालिका पत्नी को बेतरह पीटता । वह पलंग के नीचे टूटा मन और पिटा तन लिए पीड़ा से रोती सिसकती पड़ी रह जाती । नेवास को पैसा देकर शादी करने की बात जब याद आती तो वह अपमान से तिलमिला उठता और उसका ख़ामियाज़ा भी उसी निर्दोष और लाचार पत्नी को भोगना पड़ता । वह इतनी तो समझने लायक़ थी ही कि वह अपने मायके की मजबूरी समझ सकती , अब ऐसे में उसने मौन रहकर सारी यंत्रणा भोगना ही उचित समझा ।
धीरे-धीरे नेवास के घर दो बेटियाँ और एक बेटा पैदा हो गये । नेवास अपने बेटे को देख कर फूला न समाते । उन्होंने बेटे का नाम राजा राम चन्द्र रखा और प्यार से उसे केवल राजा कहकर बुलाते । अब गाँव वालों को क्या , वे तो जैसे हर बात में पट्टीदारी की खुंदस निकालने को तैयार बैठे रहते हों । वे राजा न बुलाकर बालक को रमचन्ना कह कर बुलाते । बालक रमचन्ना को उसकी माँ ने बहुत प्यार दुलार से पाला , उसे खेती-बाड़ी में रुचि भी बहुत थी । उसने पन्द्रह साल का होते होते नेवास के साथ सब काम सँभाल लिया । नेवास अब भी जब तब पत्नी को बेरहमी से पीटते रहते थे । पत्नी तो इसे स्वीकार कर चुकी थी, पर रमचन्ना हर बार जब माँ पिटती तो अकेले घर के कोने या सरिया वाले पशुशाला में छुप कर रोता । नेवास यूँ तो बेटे को बहुत प्यार करते पर ग़ुस्सैल हो चुके थे और जब तब रमचन्ना को भी ठोंक दिया करते थे ।
दिन बीत रहे थे । नेवास ने कई मुहरों , गिन्नियों और चाँदी के सिक्कों को एक बर्तन लोटे में रखकर नये मकान में गाड़ दिया था । एक रात चोरों ने नेवास की समृद्धि से आकृष्ट होकर उनके मकान में सेंध काट दिया । सबेरे जब देखा गया तो गहने मालमत्ते तो चोरी हो ही चुके थे, पता नहीं कैसे चोरों ने ज़मीन में गड़े लोटे को भी निकाल लिया था जिसमें मुहरें और गिन्नियाँ रखी थीं । नेवास पर तो जैसे आसमान टूट पड़ा । फिर उनका ध्यान गया कि आख़िर जहाँ लोटा गड़ा था वह जगह आख़िर चोरों को कैसे मालुम हुई?
उन्हें पत्नी पर शक हुआ कि ज़रूर इसी मूर्ख ने ही किसी को बताया होगा जिससे चोरों को सुराग मिला। नेवास ने पत्नी की बेरहमी से ठुँकाई शुरू कर दी । वह चीखती रही कि उसने किसी को नहीं बताया पर नेवास ने एक न सुनी। तभी रमचन्ना बाहर से आया और देखा कि उसकी निर्दोष माँ बेतरह पिट रही है और रो चीख कर अपने निर्दोष होने की दुहाई दे रही है । उसने नेवास को धक्का देकर परे ढकेला और ज़ोर से बोला – माई का काहे का मारिस सारे ? मोटकी लठिया निकारी सारे ?
नेवास उठे और रमचन्ना को भी गालियाँ देकर धुनने लगे । किसी तरह खुद को बाप की गिरफ़्त से छुड़ाकर रमचन्ना अपने सोने के कमरे में भागा । कमरे के कोने में उसने मिर्ज़ापुरी मोटी बाँस की लाठी क़रीने से खड़ी कर रखी थी, इस लाठी को रमचन्ना बहुत प्यार करता था और रोज़ तेल पिलाता रहता था । यह लाठी उसका आत्मविश्वास बन चुकी थी ।
वह लाठी लेकर फनफनाता हुआ बाहर आया और पूरे सिर तक उठाकर नेवास के पिठसवा पर ऐसे मारा जैसे किसी पेड़ की डाल पर मार रहा हो । नेवास वहीं भरभराकर गिर गये । रमचन्ना की माँ ने अपने इकलौते प्रिय बेटे रमचन्ना के चेहरे पर पहली बार थप्पड़ों की बरसात कर दी ।
रमचन्ना की माँ ने नेवास की चोट पर गर्म कर पिसी हल्दी का लेप लगाया । रात में दूध में गुड और हल्दी उबालकर पिलाया । रमचन्ना ने माँ बाप से रोते हुए माफ़ी माँगी पर इसके साथ ही नारी विमर्श का यह अध्याय सदा के लिए ख़त्म हो गया । नेवास जब तक ज़िन्दा रहे फिर कभी उन्होंने पत्नी पर हाथ नहीं उठाया । नेवास पत्नी से काफ़ी बड़े थे ही, सो उनके परलोक सिधार जाने के बाद भी उनकी पत्नी बहुत समय तक जब तक ज़िन्दा रही और परिवार के कर्ता-मुखिया के पद पर प्रतिष्ठित रही।