..छापे में होटल के एक कमरे में एक पुरुष एक महिला के साथ अर्धनग्न पाया गया जिसमें पूछताछ पर देह व्यापार का प्रकरण प्रकाश में आया। रश्मि सिंह ने उन दोनों और होटल स्वामी को सुसंगत धाराओं में गिरफ़्तार कराकर मुक़दमा दर्ज करा दिया। चूँकि प्रकरण गम्भीर नहीं था तो सबकी न्यायालय से ज़मानत हो गई। होटल की बदनामी हुई तो प्रभावशाली होटल स्वामी ने महिला सीओ की शिकायत की और विवेचना को सी बी सी आई डी को स्थानान्तरित करा दिया। …
फिर क्या हुआ, आगे पढ़ें …..!
संस्मरण:
‘कबिरा खड़ा बाज़ार में’-17 :
लेखक: हरिकान्त त्रिपाठी सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी हैं
‘पुलिस अफसरों की खड़ी खटिया ‘
वर्ष 2010-11 की बात है, मैं उत्तर प्रदेश शासन के गृह विभाग में विशेष सचिव हुआ करता था। मेरे पास आई पी एस अधिकारियों का अधिष्ठान, पूरे प्रदेश की शान्ति व्यवस्था, भ्रष्टाचार निवारण संगठन, सी बी सी आई डी एवं एस आई टी की जाँचे सम्बन्धी महत्वपूर्ण कार्य आबंटित थे। इन विभागों का काम देखते हुए पुलिस वालों का एक नया अकल्पित और रहस्यमय संसार मेरे सामने खुल गया। एक आई पी एस अधिकारी के विरुद्ध विभागीय जाँच इसलिए गतिशील थी कि वे जब पुलिस लाइन में जवानों की परेड कराते तो जवानों के आगे-आगे एक बकरा माला पहिने हुए चलता था। यह परेड बकरा परेड के नाम से मशहूर हुआ।
एक और आई पी एस अधिकारी जब ज़िले के इंचार्ज थे तो पुलिस वालों के वेतन से कटौती कर मन्दिर की स्थापना करने के कारण विभागीय जाँच का सामना कर रहे थे।
एक आई पी एस ने दूसरे अधीनस्थ आई पी एस को इतना तनावग्रस्त कर दिया कि वे अपने दफ़्तर में ही अपना मानसिक संतुलन खो बैठे और अनर्गल प्रलाप करने लगे व फ़ाइलों पर ऊटपटांग लिखने लगे तो पुलिस और पत्रकारों की भीड़ में होकर इलाज के लिए मेडिकल कॉलेज पहुँचाये गये।
घपलों, घोटालों, जाँचों का विस्तृत संसार मेरे सामने था। उत्तर प्रदेश का खाद्यान्न घोटाला, पुलिस भर्ती घोटाला, ट्रोनिका सिटी घोटाला और ग़ाज़ियाबाद का पी एफ घोटाला आदि में बड़े-बड़े लोगों की संलिप्तता की जाँचें प्रवर्तमान थीं जो चन्द्रकान्ता संतति की तरह मनोरंजक और रहस्यमय थीं ।
सी बी सी आई डी और भ्रष्टाचार निवारण संगठन की जाँचो में एक तथ्य बार बार सामने आया कि सिविल पुलिस से ही इन यूनिटों में आये अधिकारियों को जब थाने में चल रही जाँचें ट्रांसफ़र होकर मिलती थीं तो अपराध में संलिप्त रहे अपराधी पकड़े जाये या छूट जायें, पर पहले जाँच कर रहे सिविल पुलिस वालों को वे मुलज़िम ज़रूर बना देते थे। इस मामले में पुलिस वालों का पराक्रम और निष्पक्षता अकल्पनीय होती थी। यदि डी जी स्तर का पुलिस अधिकारी फंदे में आ जाये तो एक साधारण सा पुलिस निरीक्षक उसकी खटिया खड़ी कर देने में न डरता था और न संकोच करता था। धीरे धीरे सैकड़ों मामले इकट्ठा हो गए जिनमें पुलिस वालों के विरुद्ध अभियोजन स्वीकृति शासन स्तर पर लम्बित हो गई और उच्च न्यायालय में किसी ने पी आई एल कर दिया तो न्यायालय ने उसके निस्तारण की नियमित समीक्षा शुरू कर दी।
कहीं पढ़ा था कि जो दुख पाता है, वह अपने दुख को भले दूर न कर पाये, पर दूसरों को दुख से मुक्त रखने की दृष्टि पा जाता है। मैं चूँकि दुख से भरी ज़िन्दगी जी रहा था तो इस सूक्ति पर ब्रह्म वाक्य मानकर अमल कर रहा था।
धीरे-धीरे मेरी ख्याति मददगार अधिकारी के रूप में फैल गयी। एक दिन जब मैं अपने शास्त्री भवन के तीसरे मंज़िल पर स्थित ऑफिस में फ़ाइलें निबटा रहा था तो अनुसेवक एक स्लिप लेकर अन्दर आया, कोई महिला पी पी एस अधिकारी मिलना चाह रही थीं। मैंने उन्हें अन्दर बुलवाया तो श्वेत शालीन वस्त्रों में एक सुदर्शन महिला मुस्कुराते हुए सामने आ गईं। मैंने औपचारिक अभिवादन के बाद सामने बैठने का इशारा किया।
महिला ने बताया कि उनका नाम आर सिंह है और उनकी अभी अभी पोस्टिंग डी जी पी ऑफिस में बतौर डी एस पी हुई है और वे शिष्टाचार भेंट के लिए आई हैं। मैंने बैच, हालचाल आदि कुछ औपचारिक बात करते हुए उनके लिए चाय मंगा दी। जब उनके चलने का वक़्त हुआ तो उन्होंने धीरे से कहा-“सर मुझे सताया जा रहा है, मेरे विरुद्ध सी बी सी आई डी ने फ़र्ज़ी मामला बना दिया है।”
पुलिस उपाधीक्षक ने जो बताया, उसके अनुसार उनकी लगभग 15 साल की पी पी एस सेवा हो रही थी और अपर पुलिस अधीक्षक के पद पर पदोन्नति सन्निकट थी और सी बी सी आई डी की दोषपूर्ण विवेचना के चलते उनकी पदोन्नति में अवरोध होना तय था। मामला कुछ इस प्रकार था कि जब वे क्षेत्राधिकारी के पद पर फ़िरोज़ाबाद में तैनात थीं तो एक होटल में देह व्यापार की सूचना पर उच्च स्तर से होटल पर उन्होंने देर रात्रि में पुलिस बल के साथ छापा मारा। छापे में होटल के एक कमरे में एक पुरुष एक महिला के साथ अर्धनग्न पाया गया जिसमें पूछताछ पर देह व्यापार का प्रकरण प्रकाश में आया। सीओ ने उन दोनों और होटल स्वामी को सुसंगत धाराओं में गिरफ़्तार कराकर मुक़दमा दर्ज करा दिया। चूँकि प्रकरण गम्भीर नहीं था तो सबकी न्यायालय से ज़मानत हो गई। होटल की बदनामी हुई तो प्रभावशाली होटल स्वामी ने सीओ की शिकायत की और विवेचना को सी बी सी आई डी को स्थानान्तरित करा दिया।
सी बी सी आई डी ने विवेचना में साक्ष्य कमजोर पाने और छापे में निर्धारित प्रक्रिया का पालन होना न पाकर अभियुक्तों को मुक्त कर दिया और सीओ के विरुद्ध कार्रवाई की सिफ़ारिश कर दी। सी बी सी आई डी के अनुसार छापे करने के समय पब्लिक के निष्पक्ष गवाह को साथ ले जाना चाहिए था, पर पुलिस क्षेत्राधिकारी ने कोई पब्लिक का गवाह साथ नहीं लिया। दूसरी कमी यह हुई कि जब दोनों आपत्तिजनक हालत में पकड़े गए तो उनका चिकित्सकीय परीक्षण क्यों नहीं कराया गया। ऐसी दशा में होटल स्वामी के आरोप कि अनुचित लाभ लेने के उद्देश्य से क्षेत्राधिकारी ने उत्पीड़न करने के लिए होटल में छापा डाला, को सी बी सी आई डी ने सही माना।
सीओ ने अपनी सफ़ाई में कहा कि उन्होंने उच्च स्तर से प्राप्त सूचना और निर्देश पर छापेमारी की, देर रात का समय होने के कारण और बाद में अदालती लफड़े से बचने के लिए कोई पब्लिक का गवाह साथ जाने को तैयार नहीं था और प्रकरण की तात्कालिकता और उच्चादेश के कारण उन्हें बिना गवाह के ही छापा मारना पड़ा। मेडिकल परीक्षण न कराने के बिन्दु पर सीओ का कथन था कि चूँकि उन दोनों में तब तक शारीरिक सम्बन्ध नहीं शुरू हुआ था और पूरी प्रथम सूचना रिपोर्ट में शारीरिक सम्बन्ध होने का कोई ज़िक्र भी नहीं है, ऐसी दशा में मेडिकल परीक्षण कराने का कोई औचित्य नहीं था।
सीओ की सफ़ाई पर कई सवाल उठ सकते थे, पर चूँकि होटल स्वामी से अनुचित लाभ चाहने का कोई साक्ष्य नहीं था और तकनीकी त्रुटियों से एक अधिकारी के भविष्य चौपट हो जाने का संकट था, मुझे रश्मि सिंह का पक्ष मानना उचित लगा। मैं सीओ को लेकर गृह सचिव हर्ष कुमार जी के पास गया। हर्ष कुमार साहब बहुत सुलझे हुए आई जी स्तर के पुलिस अधिकारी थे। मैंने पूरा प्रकरण गृह सचिव को बता कर उनसे मदद की अपेक्षा की।
गृह सचिव साहब मेरी ओर देखकर मुस्कुराये और बोले इसी तरह का प्रकरण तो द्विवेदी डी एस पी का भी है, पर उसको आपकी सहृदयता का लाभ नहीं मिल रहा है तो इन्हीं मैडम को क्यों ? मैंने कहा कि द्विवेदी जी के प्रकरण में उनके पक्ष में इतने तर्कपूर्ण आधार नहीं हैं इसलिए उनकी तो चाहकर भी कोई मदद नहीं हो सकती।
दरअसल पुलिस में यह एक प्रचलित और सुरक्षित परम्परा है कि नीचे से जो पुलिस निरीक्षक लिखकर ऊपर भेजता है तो सारे उच्चाधिकारी उस पर चिड़िया बैठा देते हैं और रिस्क इंस्पेक्टर तक सीमित रह जाता है,जब कि भिन्न मत अंकित करने पर रिस्क स्वयं पर लेना पड़ता है। मेरी छवि ऐसी थी कि परम्परा के विपरीत सचिव गृह साहब ने मेरे मत से सहमति दे दी।
आरोप मुक्त हो जाने पर सीओ कृतज्ञता ज्ञापन करने मुझसे मिलने आईं। मैंने उन्हें पुलिस की कार्यप्रणाली पर अच्छा ख़ासा लेक्चर पिलाया और कहा कि हो सकता है कि आगे कभी आपकी तैनाती भी विजीलेंस, भ्रष्टाचार निवारण संगठन, सी बी सी आई डी आदि में हों तो आपकी असली कृतज्ञता तो यह होगी कि आप किसी निर्दोष को फँसने न दें! सीओ ने बड़ी ज़ोरदारी से मुझे आश्वस्त किया कि सर मैं आपकी सीख कभी न भूलूँगी। पर क्या ऐसा हो पाया होगा ?
(क्रमशः जारी)