..अपहरण के इस उद्योग को ठंडा करने में बहुत सारे कर्मठ और बहादुर अधिकारियों ने बहुत मेहनत की। मेरठ तैनाती के दौरान सुख्यात आई पी एस बृजलाल, वी के गुप्ता आदि ने एनकाउंटर कर करके कई गिरोहों को ध्वस्त कर डाला। बाद में मेरठ और मुज़फ़्फ़रनगर के बदमाशों को भयग्रस्त करने में नवनीत सिकेरा ने भी बेहतर काम किया। अरुण कुमार, अमिताभ यश अनन्तदेव भी एनकाउंटर करने वाले अधिकारियों में अग्रणी रहे। 1995 के बाद पहले जैसी स्थिति तो नहीं रही, पर अपहरण उद्योग आज भी निर्मूल नहीं किया जा सका है।…
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कबिरा खड़ा बाज़ार में:18
लेखक: हरिकान्त त्रिपाठी सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी हैं
‘अपहरण उद्योग के शिकार डिप्टी एसपी ‘
दास्तान-ए-सचिवालय-2
कुछ मनोरंजक संयोग जीवन में बार बार घटते हैं पर उनके पीछे कोई कारण ढूँढे भी नहीं मिलते। बतौर विशेष सचिव मैं शास्त्री भवन के कक्ष संख्या 308 में बैठता था, उसके पहले मैं जनपथ के कक्ष संख्या-407 में बैठता था। मेरे मकान का नम्बर 182 है । इन सबके अंकों का जोड़ 11 होता है । मेरे बेटे और बेटी दोनों का जन्म 11 तारीखों को हुआ था और मेरा जन्म 11+11=22 तारीख़ को । ये संख्याओं का संयोग है वैसे मैं वैज्ञानिक दृष्टिकोण का समर्थक हूँ। पत्नी के जन्मदिन के वर्ष, माह और तिथि के अंकों को जोड़ें तो वो भी 11 हो जाता है.. हा हा हा हा हा ….! तो मैं अपने कक्ष -308 में बैठा फ़ाइलें निबटा रहा था कि हर्ष मिश्रा पत्रकार का फ़ोन आ गया। हर्ष सज्जन इन्सान हैं और मुझसे उम्र में छोटे हैं तो स्नेह से मुझे दादा कहा करते हैं। हर्ष बोले- दादा ! मेरे एक मित्र पुलिस क्षेत्राधिकारी हैं, उन्हें सताया जा रहा है, आप उनकी मदद कर दीजिए। मैंने कहा कि हर्ष मैं पी पी एस का अधिष्ठान नहीं देखता। पर हर्ष इस बात पर अड़ गये और बोले कि आप उनकी पीड़ा सुनकर मार्गदर्शन तो कर सकते हैं। मुझे सहमति देनी पड़ी कि वे मेरे कार्यालय में आकर भेंट कर सकते हैं।
डिप्टी एस पी श्री एस के प्रसाद दो दिन के अन्दर मेरे कक्ष में विराजमान मिले। उन्होंने जो कहानी बताई वो उत्तर प्रदेश के पुराने 1980 और 1990 के दशक की याद दिलाने के लिए पर्याप्त थी। पहले संक्षेप में प्रसाद साहब ने जो क़िस्सा बताया उस पर चर्चा कर लेते हैं, फिर उनकी व्यथा कथा पर विचार करते हैं ।
वर्ष 1980-और 90 के दशक में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जहाँ ग़ाज़ियाबाद, मेरठ और नोएडा और सहारनपुर मण्डल में औद्योगीकरण चल रहा था, वहीं इन्हीं ज़िलों में कुख्यात अपहरण उद्योग भी अपने चरम पर था । तब महेंद्र फौजी, राजवीर रमाला, राजवीर निबाली, राजू बली समेत कई बदमाश थे। ये बदमाश व्यापारी, कारोबारी , ठेकेदार, चीनी मिलों के मालिक, ऑटोमोबाइल के व्यापारी यहाँ तक कि सरकारी अधिकारी तक का अपहरण करते थे और उन्हें गन्ने के खेतों में रखते थे और फिरौती वसूल कर छोड़ देते थे। अपहृत लोग चुप रहते थे और पुलिस फ़िल्मी स्टाइल में बरामदगी दिखाकर अपनी पीठ ठुँकवा लेती थी।
गन्ने की खेती वाले इन सम्पन्न मंडलों में सितम्बर-अक्तूबर में जब गन्ने की फसल ख़ूब लम्बी और घनी हो जाती थी तो गिरने से बचाने के लिए कई-कई गन्नों को एक में बाँध दिया जाता था और उनके बीच गुफानुमा रास्ते बन जाते थे। गन्ने के खेत एक-दूसरे से सटे होते थे और किसी जंगल की तरह उन गुफानुमा रास्ते से होकर गन्ने के खेतों में छुपते हुए कई किलोमीटर दूर तक पहुँचा जा सकता था। अपहृत को इन्हीं गन्ने के खेतों के सुरक्षित अभयारण्य में रखा जाता था और फिरौती के बाद मुक्त कर दिया जाता था।
अपहरण के इस उद्योग को ठंडा करने में बहुत सारे कर्मठ और बहादुर अधिकारियों ने बहुत मेहनत की। मेरठ तैनाती के दौरान सुख्यात आई पी एस बृजलाल, वी के गुप्ता आदि ने एनकाउंटर कर करके कई गिरोहों को ध्वस्त कर डाला। बाद में मेरठ और मुज़फ़्फ़रनगर के बदमाशों को भयग्रस्त करने में नवनीत सिकेरा ने भी बेहतर काम किया। अरुण कुमार, अमिताभ यश अनन्तदेव भी एनकाउंटर करने वाले अधिकारियों में अग्रणी रहे। 1995 के बाद पहले जैसी स्थिति तो नहीं रही, पर अपहरण उद्योग आज भी निर्मूल नहीं किया जा सका है।
प्रसाद साहब डिप्टी एस पी ने जो अपनी कथा बताई, उसके अनुसार वे ग़ाज़ियाबाद में सी ओ के पद पर तैनात थे तो उनके एक दूरस्थ थाना क्षेत्र में अपहरण की घटना हो गई। मेरठ से परिवहन विभाग के एक उच्चाधिकारी परिवार के साथ मुरादाबाद की ओर जा रहे थे तो सिम्भावली के पास बदमाशों ने उनका अपहरण कर लिया । अपहर्ताओं ने एक गाड़ी में अधिकारी और उनके बेटे को बैठाया और दूसरी गाड़ी में उनकी तीन बेटियों को।
जब पुलिस को खबर हुई तो नाकाबंदी कर पुलिस पीछा करने लगी। अधिकारी जिस गाड़ी पर थे वो तो निकल गई, पर बेटियों वाली गाड़ी को पुलिस ने दौड़ाया तो बदमाश गाड़ी छोड़कर भाग निकले। बाद में पुलिस ने छोड़ी हुई गाड़ी का सूत्र थाम कुछ बदमाशों को पकड़ लिया और थाने पर ले आई।
इस घटना के कथित बदमाशों में से दो बुलन्दशहर में दूसरी अपहरण की घटना को अंजाम देते हुए पुलिस मुठभेड़ में मार गिराए गए। थाने में लाये बदमाशों से पुलिस ने सख़्ती से पूछताछ की और बाद में चालान कर दिया। छूटने के बाद प्रभावशाली बदमाशों ने अपनी गिरफ़्तारी और मारपीट को काफ़ी तूल दिया, फलतः उनकी एफ आई आर दर्ज हो गयी और बाद में चूँकि मामला थाने के अधिकारियों के विरुद्ध था सो उसकी विवेचना सी बी सी आई डी को हस्तांतरित कर दी गयी ।
इस मुक़दमे के पहले विवेचनाधिकारी ने आत्महत्या कर ली तो दूसरे इंस्पेक्टर को विवेचना सौंप दी गई। सी बी सी आई डी ने अन्य पुलिस अधिकारियों सहित क्षेत्राधिकारों प्रसाद साहब पर भारतीय दंड संहिता की धारा 323 एवं 342 का आरोप कारित मानते हए अपनी विवेचना रिपोर्ट तैयार कर दी। प्रसाद साहब का कहना था कि उन दिनों उनकी पत्नी बेटे बीमारी में अस्पताल में भर्ती थे और उन दिनों वे थाने पर नहीं गये थे। उनके पास इन सबका काग़ज़ी सबूत था। उनके अनुसार मात्र थाने के पर्यवेक्षकीय अधिकारी होने के आधार पर उन्हें धारा 323 और 342 का मुलज़िम भी नहीं बनाया जा सकता। केवल सी बी सी आई डी द्वारा बदमाशों के बयान में यह बात कहलवा दी गई कि सी ओ ने भी पूछताछ की थी, पर एफ आई आर में प्रसाद साहब का नाम नहीं लिखा है जो बयान को सन्दिग्ध सिद्ध करती है। सी बी सी आई डी ने वाहन के लॉगबुक को भी नहीं देखा कि उसमें उन तिथियों में प्रसाद साहब की थाने तक की यात्रा दर्ज है या नहीं।
मैंने पी पी एस अधिष्ठान देखने वाले समीक्षा अधिकारी को बुलाकर प्रसाद के प्रकरण की जानकारी माँगी तो उन्होंने बताया कि इस प्रकरण में तो शासन द्वारा प्रसाद साहब के विरुद्ध अभियोजन स्वीकृति जारी की जा चुकी है। मैंने प्रसाद जी को बताया कि अब तो कोई रास्ता नहीं बचा है सिवाय इसके कि आप माननीय उच्च न्यायालय जायें और अपने सबूतों को दिखाकर और यह कहकर कि उन्हें विवेचनाधिकारी/शासन द्वारा अपना पक्ष रखने का मौक़ा नहीं दिया गया, अरेस्ट स्टे कराने का अनुरोध करें।
प्रसाद साहब हताश नज़र आने लगे। तभी समीक्षा अधिकारी ने कहा कि एक रास्ता है। यदि प्रसाद साहब सारे साक्ष्य लगाकर एक प्रतिवेदन शासन को दें तो हम न्याय विभाग से उस पर परामर्श माँग लेंगे और यदि न्याय विभाग का यह मत आता है कि अभियोजन स्वीकृति का आदेश पर्याप्त आधारों पर नहीं है तो अभियोजन स्वीकृति के आदेश को वापस लिया जा सकता है।
प्रसाद साहब ने प्रत्यावेदन दिया और न्याय विभाग में अपने सबूत प्रस्तुत किया और अपना पक्ष रखा। न्याय विभाग ने यह मत स्थिर किया कि प्रसाद साहब को अभियोजित करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य नहीं हैं। गृह विभाग द्वारा अभियोजन स्वीकृति का आदेश निरस्त कर दिया और प्रसाद साहब को मुक्ति मिल गई।
प्रसाद साहब ने एक चौंकाने वाली बात बताई। रश्मि सिंह के विरुद्ध जब सी बी सी आई डी का प्रकरण समाप्त हो गया तो उनकी पदोन्नति अपर पुलिस अधीक्षक के पद पर हो गई। उन्हें मेरठ में सी बी सी आई डी में तैनाती मिली और जिस मुक़दमे में प्रसाद साहब को मुलज़िम बनाया गया था उसकी विवेचना उन्हीं के पर्यवेक्षण में पूर्ण हुई थी। रश्मि सिंह को मेरी दी गई नसीहत का परिणाम मेरे सामने इतनी जल्दी आ जायेगा, मुझे सपने में भी उम्मीद नहीं थी।
(क्रमशः)