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“कबिरा खड़ा बाजार में”-1 : हरिकांत त्रिपाठी

 प्रशासनिक सेवाओं में भी ‘बाबाओं’ का हमेशा जमघट रहा है । ये ‘बाबा’ भी आम ‘बाबाओं’ की तरह ही चुम्बकीय गुणों से परिपूर्ण रहे हैं ।

लेखक : हरिकांत त्रिपाठी, सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी हैं

एक ‘बाबा’ जी के अधीन मुझे कई सालों तक काम करना पड़ा। बड़ा स्नेह था ‘बाबा’ जी का मेरे ऊपर। पढ़ने-लिखने की ज़िम्मेदारी मेरी और राजनीतिक तालमेल-जन कल्याण और धर्म कर्म ‘बाबा’ के हिस्से में। कभी-कभी बाबा को गुस्सा आता तो गरियाते वक़्त दुर्वासा बन जाते थे। बाबा की इतनी कृपा थी कि एकाध बार के अलावा जनकल्याण वाली फाइलों के बारे में नीचे वालों को निर्देश दे देते थे कि वे मुझे तकलीफ़ न दें।

मशहूर बाबा हरदेव सिंह को कौन नहीं जानता जिनके अधीन मिर्जापुर में मुझे डिप्टी कलेक्टरी की ट्रेनिंग लेने का सौभाग्य हासिल हुआ । एक ‘बाबा ‘मनोज सिंह जी थे जो बाकायदा ‘बाबा ‘दिखने के लिए दाढ़ी भी रख लिये थे पर कहते हैं कि फाइलों पर दस्तखत करने के पहले जाने कितने मंत्रों का जाप और देवताओं का आवाहन करते रहते थे ।

बहरहाल मैं जिस पीसीएस ‘बाबा’ की बात करने जा रहा हूँ, वे ‘बाबाओं’ में सर्वश्रेष्ठ थे । रामचरितमानस और गीता के प्रकाण्ड पंडित । सबेरे से उठकर लोटे को चमकाना शुरू करते थे तो जब तक उसके अणु-परमाणु चमक न जायें दफ्तर न आते । फाइलों पर जब नोट लिखते तो उनकी कल्पनाशीलता देखते बनती थी । राजनीतिक जोड़तोड़ के महारथी थे लेकिन किसी प्रमुख सचिव से कभी उनकी बनी ही नहीं ।

उनकी मौलिक सोच और काम न होने देने की प्रतिभा से अकसर प्रमुख सचिव घबरा जाया करते थे और वे जल्दी जल्दी विभाग बदलते रहते थे । ऐसा नहीं कि हर बार प्रमुख सचिव ही ‘बाबा’ को चलता कर पाने में सफल होते रहे हों । विभागीय मंत्री से हाथ मिला कर ‘बाबा’ ने भी कई दिग्गज और अपने को लगाने वाले प्रमुख सचिवों की पीठ लगा उनको बाहर की राह दिखा दिया ।

‘बाबा जी’ पक्के गांधी विरोधी और नाथूराम गोंडसे के समर्थक थे । मैं गांधी जी के सत्यमार्गी होने से प्रभावित था सो अकसर उनसे डाँट खाता रहता था । वे कहते कि गोंडसे की किताब ” मैंने गांधी को क्यों मारा ” पढने के बावजूद आप गांधी जी के पक्षधर कैसे हो सकते हैं ? हालाँकि उन्होंने गांधीजी के सत्याग्रह को ही अपना हथियार बना लिया और जीवन भर उसका पालन करते रहे ।


‘बाबा’ एक बार पिछड़ा वर्ग आयोग के सचिव बन गये । पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्षों ने बैकडोर से तमाम कर्मचारियों को तैनात कर दिया था जो अनियमित रूप से तनख्वाह ले रहे थे । ‘बाबा’ ने उनकी तनख्वाह के बिल पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया । पूरा आयोग ‘बाबा’ से नाराज हो गया, पर ‘बाबा’ ने कहा कि वे असत्य के मार्ग पर न चलेंगे ।

आयोग के अध्यक्ष यादव जी ने भी ‘बाबा’ को साम-दाम, भय-भेद दिखाकर दस्तखत करने का अनुरोध किया, पर ‘बाबा’ सत्य के मार्ग पर डटे रहे । जब कर्मचारीगण बहुत तंग हो गये तो उन्होंने कर्मचारी नेताओं की शरण पकड़ी। एक दिन जवाहर भवन के सारे कर्मचारी नेताओं ने कर्मचारियों को लेकर ‘बाबा’ के चैम्बर में धावा बोल दिया।

‘बाबा’ की कार्यशैली ऐसी थी कि वे अकसर ऐसी परिस्थितियों से दो चार होते ही रहते थे । ज्यादातर मामलों में उन्हें संकट का आभास हो जाता था और वे पतली गली से सरक लिया करते थे । इस बार पता नहीं कैसे उन्हें पता न चल सका और लोग उनके चैम्बर में धड़धड़ाते हुए घुसते चले गये और ‘बाबा’ पर वेतन बिल पर दस्तखत करने का दबाव बनाने लगे । ‘बाबा’ परम सत्याग्रही थे, सो वे साफ मना कर दिये कि गलत काम न करेंगे । कर्मचारी नेता बुरा-भला बोलने लगे और धमकियों पर उतर आये, पर बाबा भी अंगद के पाँव की तरह टसमस होने को तैयार न हुए । धीरे-धीरे उन लोगों ने ‘बाबा’ के साथ गाली-गुफ्ता और हाथापाई शुरू कर दी । ‘बाबा’ ने कहा तुम लोग चाहे मुझे मार डालो पर मैं दस्तखत न करूँगा और हाँ सोच लो ब्रह्महत्या के पाप के भागी बनोगे ।

बाबा’ की दृढ़ता देख कर्मचारी नेता सहमे और सब लोग ‘बाबा’ के साथ दुर्व्यवहार करते हुए उन्हें अध्यक्ष के कक्ष में ले गये । अध्यक्ष यादव जी ने भी बिल पर दस्तखत करने का दबाव बनाया पर ‘बाबा’ किसी भी तरह तैयार न हुए । अध्यक्ष जी ने कर्मचारियों से कहा कि वे ‘बाबा’ को बिना स्थानांतरण आदेश के ही रिलीव कर देंगे और कोई दूसरा सचिव आकर तन्ख्वाह निकालेगा । अध्यक्ष ने ‘बाबा’ को रिलीव कर दिया और दूसरा सचिव तैनात करने का सरकार से अनुरोध भी कर लिया तो ‘बाबा’ अपने घर चले आये ।

छह महीने गुजर गये। ‘बाबा’ बिना किसी पद और बिना वेतन के रह गये । उन्होंने प्रमुख सचिव नियुक्ति, सचिव मुख्य मंत्री सबसे मिलकर फरियाद किया, पर छह माह तक बिना पोर्टफोलियो वाले मंत्री की तरह वह अपने घर पर ही अफसरी करते रहे ।


छह महीने बाद सचिव मुख्यमंत्री को ‘बाबा’ की स्थिति पर दया आयी तो उन्होंने बाबा की तैनाती सी डी ओ बाँदा के पद पर करा दी। सी डी ओ बाँदा के पद पर तद्समय ‘स्वनामधन्य’ श्याम कृष्ण जी तैनात थे, सो नियुक्ति विभाग से आदेश निकलने में ही एक हफ्ता लग गया । जब ‘बाबा’ को आदेश मिला तो उन्हें बहुत खुशी हुई क्योंकि छह माह से बिना वेतन के उनकी आर्थिक स्थिति खस्ता हो चुकी थी । वे बाँदा में पहले रह चुके थे सो किसी परिचित को फोन करके बताया कि शाम की पैसेंजर ट्रेन से वे निकलेंगे और वे स्टेशन पर रिसीव कर लें व उनके रुकने के लिए पी डब्ल्यू डी का रेस्ट हाउस आरक्षित करा लें ।

अपराह्न में ‘बाबा’ पैसेंजर ट्रेन की सामान्य श्रेणी में चढ़ गये और संयोग से बैठने की सीट मिल गयी । हर स्टेशन रुकते हुए पैसेंजर ट्रेन आधी रात को बाँदा पहुँची तो ‘बाबा’ अपनी अटैची सम्भाल उतर गये ।

प्लेटफार्म पर ‘बाबा’ को गुरु गम्भीर मुद्रा में परिचित सज्जन मिले तो ‘बाबा’ ने गर्मजोशी से उन्हें ग्रीट किया । परिचित ने दुख जताते हुए कहा कि आप के पास तो मोबाइल फोन तक नहीं है नहीं तो मैं आपको बता देता कि आपका स्थानांतरण निरस्त हो गया है तो आप को यहाँ तक बेवजह आने की तकलीफ़ न उठानी पड़ती और आप बीच के ही स्टेशन पर उतर कर वापस हो लेते ।

‘बाबा’ के पैरों के नीचे की धरती खिसक गयी । बेचारे छह महीने से कहीं नौकरी ही नहीं कर रहे थे । जैसे-तैसे करके यह पोस्टिंग मैनेज हो पायी थी । उन्होंने पूछा कि यह कैसे हो गया ? परिचित ने बताया कि श्याम कृष्ण ने अपना स्थानांतरण निरस्त करा लिया । अब ‘बाबा’ की समझ में आ चुका था कि नियुक्ति विभाग ने एक हफ्ता बाद उनका ट्रांसफर आर्डर उन्हें टैब सर्व कराया जब फाइल पर उसके निरस्त किये जाने का अनुमोदन मुख्यमंत्री जी से मिल चुका था ।

‘बाबा’ ने उनसे पूछा कि अब लखनऊ वापसी के लिए साधन कब मिलेगा तो परिचित ने बताया कि सबेरे ४ बजे से बसें लखनऊ के लिए जाने लगती हैं । ‘बाबा’ ने उनसे पी डब्ल्यू डी डाक बंगले पर ड्राॅप करने का अनुरोध कर लिया और चार बजे तक रेस्टहाउस में आराम करते रहे । सुबह चार बजे के पहले ही अपनी अटैची उठाई और रिक्शा पकड़ बस स्टेशन पहुँच गये । जो पहली बस मिली ‘बाबा’ उसी पर सवार हो गये और दोपहर तक लखनऊ पहुँच गये।

ये है ईमानदारी और नियमानुसार काम करने वाले ‘बाबा’ की व्यथा कथा जो आगे भी जारी रह सकती है ।

क्रमशः

कबिरा खड़ा बाजार में…….
                               

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