१९८४ में मैं प्रशिक्षण प्राप्त कर नया-नया मजिस्ट्रेट बना तो पहली पोस्टिंग मिर्जापुर में हुई । मैं मऊ के ‘कम्युनल रायट’ में ड्यूटी करके लौट रहा था तो स्वर्गीय इन्दिरा जी की हत्या के फलस्वरूप सिखों का नरसंहार शुरू चुका था।
* सिखों का नरसंहार
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लेखक: हरिकान्त त्रिपाठी सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी हैं
संस्मरण: मिर्जापुर की यादें-1
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३१ अक्टूबर १९८४ को दोपहर बाद मऊ से अवमुक्त हो गाजीपुर होते हुए मैं मिर्जापुर वापस हुआ । इन्दिरा जी की हत्या की प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में मुझे दूर-दूर तक कोई आभास नहीं था । मैंने गाजीपुर वाराणसी के बीच खाली सड़क देख जीप ड्राइविंग का भी आनन्द लिया ।
वाराणसी में मुझे जगह-जगह पुलिस बल लगा हुआ दिखायी पड़ा तो मैं समझा कि सम्भवतः वी आई पी ड्यूटी में पुलिस लगायी गयी है । मैं डी एल डबल्यू में अपने भैया के घर गया। भाभी के आग्रह कि सबेरे चले जाना को न मान मैं थोड़ी देर बाद फिर मिर्जापुर को चल पड़ा ।
वाराणसी भदोही के बीच की यात्रा के दौरान मैंने जगह-जगह ईंट-पत्थर के टुकड़े बिखरे देखे और सड़क लगभग सूनी सी लगी । मुझे हिंसक आन्दोलन की आहट मिली, फिर भी मैं उसे इन्दिरा जी की हत्या से जोड़ नहीं सका । मिर्जापुर पहुँचा तो मेरे आवास पर सरकारी लिफाफा मेरा इन्तज़ार कर रहा था । खोलकर पढ़ा तो मालुम हुआ कि १ नवम्बर को मेरी ड्यूटी शान्ति व्यवस्था के लिए नगर कोतवाली क्षेत्र में लगी है । ज़िले के हालात के बाबत जानकारी की तो पता चला कि ज़िले के दक्षिणी हिस्से शक्तिनगर, पिपरी, सोनभद्र में उपद्रवियों ने इन्दिरा जी की हत्या के परिप्रेक्ष्य में कई सिख ड्राइवरों को जान से मार दिया और वाहनों को जला दिया ।
मिर्जापुर में उस समय श्री अरुण कुमार मिश्र जिलाधिकारी, श्री हरदेव सिंह अपर जिलाधिकारी, श्री चोब सिंह वर्मा डी डी सी और श्री जे पी गुप्त नगर मजिस्ट्रेट के पद पर कार्यरत थे । दक्षिणी हिस्से ( वर्तमान सोनभद्र ) में एक अन्य अपर जिलाधिकारी प्रशासन तैनात थे जो राबर्ट्सगंज और दुद्धी तहसीलों का न्यायिक और प्रशासनिक कार्य देखते थे । इन सभी अधिकारियों की क्षमता और कर्तव्यनिष्ठा अत्यंत उच्च कोटि की थी और प्रशासनिक हल्के में आज भी लोग उन्हें बड़े सम्मान से याद करते हैं । आज के अधिकारियों को देखने पर कुशलता की वह श्रेणी कहीं नज़र नहीं आती । उच्चाधिकारियों ने मिर्जापुर नगर के दो थानों में दो कार्यपालक मजिस्ट्रेट लगा कर नगर मजिस्ट्रेट को नगर की परिवेक्षकीय ज़िम्मेदारी दे दी ।
मैं सुबह थाना कोतवाली नगर पहुँच गया । वहाँ प्रभारी निरीक्षक श्री पशुपतिनाथ पाण्डेय थे (वर्तमान में डिप्टी एस पी पद से सेवा निवृत्त होकर उस्का बाज़ार सिद्धार्थनगर में निवासित ) । मैं कुछ देर कोतवाली में बैठ कर कोतवाल पाण्डेय जी से विचार विमर्श करता रहा तभी भीड़ के उपद्रव की सूचना मिली । चूंकि सिख विरोधी दंगे पूरे उत्तर भारत में व्यापक रूप से हो रहे थे इसलिए बाहर से फोर्स मिलने का तो सवाल ही नहीं उठता था । मैं कोतवाल और उनके साथ मात्र दो सिपाहियों को साथ लेकर दंगा नियंत्रण के लिए निकल पड़ा । थाने की बाकी फोर्स पिकेट्स ड्यूटी और अन्य जगहों पर लगायी गयी थी ।
लोग बाज़ार में सिखों की दुकानों में लूटपाट कर रहे थे और कहीं-कहीं आग भी लगा रहे थे । कोतवाल पाण्डेय जी काफी दिनों से उस थाने में तैनात थे, अतएव भीड़ के लोग उन्हें पहचानते थे और उनसे डरते भी थे । हम लगातार भीड़ को खदेड़ते रहे और जगह-जगह आग बुझाते रहे । जहाँ कुछ देर रुकते वहीं थोड़ी देर में कहीं और से लूटपाट आगजनी की खबर आती और उधर भागते । तभी खबर मिली कि सिखों के घरों में भी हमले हो रहे हैं ।
उनके मुहल्ले में हमारे पहुँचने तक उपद्रवी भाग चुके थे । बात करने पर डरी हुई घर की महिलाओं ने दरवाजा खोलकर बार-बार आग्रह करना शुरू कर दिया कि पुलिस बल उनके घरों पर ही बना रहने दें । बहरहाल उन्हें समझा-बुझा कर हम फिर बाज़ार में पहुँचे तो वहाँ फिर भीड़ उपद्रव करती मिली ।
एक भीड़ का नेतृत्व एक पाण्डेय जी कर रहे थे जो युवा कांग्रेस के पदाधिकारी थे । उस भीड़ को मैं समझा ही रहा था कि पुलिस दूसरी ओर भीड़ को भगाने लपकी । मौका पाकर पाण्डेय नेता के भाई और भीड़ के लोगों ने पहले मुझसे बहस और फिर हाथापाई शुरू कर दी । तभी कोतवाल की निगाह मेरी ओर पड़ी तो उन्हें मेरी मदद को आते देख भीड़ मेरे पास से मुझे छोड़ कर भागी ।
आगे बाजार में एक जगह मैं आग बुझवा रहा था कि तभी एक नेता आकर मुझ पर बरस पड़ा । नेता ने कहा कि वह मेरी सारी कारस्तानी देख रहा है और वह मेरी ऊपर तक शिकायत करेगा । मैंने कहा – नेता जी ! आप खुद देख रहे हैं कि कितने कम पुलिस बल से मैं स्थिति नियन्त्रित करने की कोशिश कर रहा हूँ …और इससे अधिक क्या कर सकता हूँ ? नेता गुर्राते हुुुए बोला – “ठीक है आप सिखों की मदद करिये, आपको बाद में देख लिया जायेगा” ।
अब नेता जी की बात मेरे समझ में आयी । मैंने उन्हें डपटते हुए कहा – “फिलहाल तो आप यहाँ से तुरन्त रफूचक्कर हो जाइये, नहीं तो मुझे आपको ही गिरफ्तार कराना पड़ेगा… हां, बाद में जहाँ मेरी शिकायत करना चाहें कर लीजियेगा” । वे सज्जन बड़बड़ाते हुए चले गये । कोतवाल से पता चला कि वे स्वनामधन्य श्री अमरनाथ नागर, सिटी प्रेसीडेंट कांग्रेस पार्टी थे ।
पूरे दिन भाग-दौड़ का फल यह रहा कि सिटी कोतवाली में अधिक नुकसान नहीं हो पाया और कोई व्यक्ति हताहत नहीं हुआ । शहर के अन्य हिस्से में सिखों के कालीन कारखाने लूट लिए गये । ज़िले के दक्षिणी हिस्से में फिर हिंसा हुई । मिर्जापुर के सम्पन्न कालीन व्यवसायी सरदार आत्मा सिंह का एकमात्र पुत्र इलाहाबाद में दंगे की भेंट चढ़ गया ।
रात्रि में उपद्रवियों के घरों पर छापे डाले गये । जिनके घरों में लूटे हुए कालीन बरामद हुए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया । छापों का असर यह रहा कि लोगों ने डरकर आगे उपद्रव बन्द कर दिया । दहशत में उपद्रवियों ने लूटे हुए कालीनों को घरों से बाहर यहाँ-वहाँ फेंकना शुरू कर दिया । कई ने कालीनों को गंगा नदी में फेंक दिया ।
दो दिन की कार्यवाही के बाद शान्ति बहाली हुई तो हिन्दू मुस्लिम सिखों की मिली-जुली शान्ति रैली निकाली गयी जिसमे भारी संख्या में सभी लोगों ने भाग लिया । रैली में सहमे हुए सिख समुदाय की भी सरदार इन्द्रजीत सिंह डंग ( जिनके पुत्र सरदार सुरजीत सिंह डंग बाद में भाजपा से प्रदेश में कैबिनेट मंत्री भी बने ) के नेतृत्व में बड़ी भागीदारी रही । सभी लोग नारे लगा रहे थे, ” हम सब एक हैं ” । इस तरह शनैः शनैः पूरी तरह शान्ति बहाल हुई, पर उनका दर्द कैसे दूर हो सकता था जिनके परिवार के लोग दंगे के शिकार हो गये थे ? ? ?
यह दंगा मेरी नौकरी के शुरुआत में ही “दंगा-नियंत्रण” के कई पाठ पढ़ा गया ।