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‘कबिरा खड़ा बाज़ार में’-7 : हरिकान्त त्रिपाठी

लेखक: हरिकान्त त्रिपाठी सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी हैं

संस्मरण: योग और तीसरी कसम

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वर्ष १९८२ में जब मेरा सेलेक्शन पी सी एस में हुआ तो लोगों की नज़रें इस कदर प्यार भरी हो गयीं कि मानो मुझे नया अवतार मिल गया हो ।

घर वाले , रिश्तेदार , अड़ोस-पड़ोस, कहने का मतलब जहाँ भी जाऊँ , सबकी तवज्जो सिर्फ़ मेरे ऊपर । अच्छा भी लगता और अजीब भी । अजीब इसलिए कि अब तक तो मुझे एक झगड़ालू और विद्रोही मान चिढ़ कर दी गई प्रतिक्रिया का अनुभव घर में और घर के बाहर भी अकसर होता रहता था, पर एक अदने से इम्तिहान को पास करते ही सब कुछ बदल गया । मेरी पढ़ाई लिखाई जो सदैव ही औसत और लापरवाही भरी मानी जाती थी, वह अब असाधारण मानी जाने लगी और चर्चा में आ गयी । उस जमाने में पेपर में न्यूज़ और कोचिंग इंस्टीट्यूट द्वारा इन्टरव्यु व इश्तिहार चिपकाने का प्रचलन नहीं था पर लोगों में डिप्टी कलेक्टरी का क्रेज बहुत था ।

ऐसे ही किसी नुक्कड की चर्चा में गोरा पांड़े फट पड़े और बोले कि हरिकान्त की पढ़ाई कुछ भी नहीं, किस्मत थी, अफसर बन गये ।असली पढ़ाई तो इस गांव में पंडित रामाश्रय पाँड़े ने की थी और पूरी रमाही में बेरासपुर का नाम ऊँचा कर दिया था, उनके सामने हरिकान्त की पढ़ाई कहीं नहीं ठहरती ।

गोरा पाँड़े बड़े महत्वाकांक्षी और बड़बोले थे । गांव में सबसे अच्छी खेती उनकी ही रहती थी । खेती की सफलता से गदगद उन्होंने कैम्पटी बोरिंग उस इलाके में पहली बार कराई और ट्रैक्टर खरीदा पर यह सब उनके आर्थिक पतन के निमित्त मात्र साबित हुए । गोरा पांड़े इससे बिलकुल विचलित न हुए और ग्राम प्रधान , प्रमुख और विधायक का चुनाव लड़ डाले । इन चुनावों में उनके अलावा सबको पता था कि गोरा पाँड़े जीतने वाले नहीं हैं।

वे हर चुनाव में परिणाम के पहले घूम घूम कर सबसे कहते कि वे चुनाव जीत रहे हैं। लोग उनकी बात पूरी गम्भीरता से सुनकर उनसे सहमति जताते और पीठ पीछे दिल खोल कर हँसते । प्रधान के चुनाव में वे तीन वोट, प्रमुख के चुनाव में ज़ीरो वोट व विधायक के चुनाव में न्यूनतम वोट ही हासिल कर पाये ।

गोरा पाँड़े केवल नाम के गोरा नहीं थे बल्कि अंग्रेज़ों की तरह गोरे थे और उनके अन्दर रमाही के वंशीय श्रेष्ठता का बोध कूट कूट कर भरा था । चूँकि मैं ननिहाल में था और राम बाबा की वंशवेलि में पुत्र के बजाय पुत्री से उत्पन्न हुआ था, सो मेरी उपलब्धि गोरा नाना को रास नहीं आ रही थी। हालांकि उनके भी एक मात्र संतान एक पुत्री ही थी, पर उन्हें प्रभाकर बाबा की विरासत उनके पुरुष उत्तराधिकारियों से इतर गैर खानदान में जाने देना गवारा न था ।
गोरा पाँड़े की घोषणा की जानकारी मुझे मिली तो मेरा मन पूरे मसले पर इतिहासकार की दृष्टि से विचार करने को ललचाया । रामाश्रय पाँड़े को मैंने बचपन में देखा था, उन्हें उस गांव के लोग कभी भी उनका नाम लेकर (कम से कम मुँह पर तो नहीं ही) ज़िक्र नहीं करते थे बल्कि उनकी शिक्षा और विद्वत्ता का सम्मान करके ‘पंडित’ कहा करते थे । पंडित हालांकि कि पुरोहितों को कहा जाता है और रमाही वाले पुरोहित कार्य करने वालों को हेय समझ कर उनके यहाँ शादी विवाह से भी परहेज करते थे। पर यहाँ रामाश्रय पाँड़े को उनके ज्ञान और आचरण के कारण पंडित कहते थे ।
पंडित के पिता त्रिपुरारी पाण्डेय गांव की आठों घर पट्टी के बड़े स्तम्भ थे । सम्पन्न किसान त्रिपुरारी पाँड़े ने ठान लिया कि बालक रामाश्रय को बहुत पढ़ा लिखा कर खानदान का नाम ऊँचा करने वाला बनायेंगे । रामाश्रय ने कौन सी पढ़ाई की और कहाँ से पढ़ाई हुई , इस सम्बन्ध में बहुत शोध करने के बावजूद मुझे कुछ खास जानकारी हासिल न हो पायी ।

बहरहाल उन्होंने छुटपन से सिर्फ़ पढ़ाई की और पढ़ाई के अलावा उन्हें देश दुनिया का कोई ज्ञान न मिल पाया । जब वे पढ़ लिख कर गांव लौटे तो कोई नौकरी तो न पाये पर उनके ज्ञान का डंका चहुँ दिशि बजने लगा । यह ख्याति दूर दूर तक फैल गयी कि रामाश्रय पाँड़े जितना पढ़ा लिखा व्यक्ति पूरे ज़िले में कोई दूसरा नहीं है । वे पुराने ग्रंथों को पढ़ते और दोनों टाइम संध्या करते । धीरे धीरे उन्हें लोग पंडित कहने लगे ।

पंडित को नौकरी न मिलने से निराश त्रिपुरारी पाँड़े अन्दर से बहुत क्षुब्ध और गुस्से में रहने लगे । एक दिन उन्होंने गुस्से में पंडित से कहा कि पूजा करने से ज़िन्दगी नहीं कटती , तुम्हें इतना पढ़ाना लिखाना सब बरबाद गया , अब तुम खेतीबारी में ही घर वालों के हाथ बँटाओ ।

पंडित दुबले पतले , एक लवरिया (इकहरे) शरीर के नौजवान थे जिसने कभी घाम बारिश न सहा हो । त्रिपुरारी पाँड़े को पता चल गया था कि पढ़ लिख कर उनका प्रिय पुत्र कुदाल फावड़े को चलाने लायक भी नहीं बचा , बस खुर्पी खुर्पा चला कर घास निकाल सकेगा ।
जाड़े का मौसम था , खेत में काम कर रहे मजदूरों को खरमिटाव (नाश्ते) में गेहूँ मटर की उबली लहसुन नमक मिली घुघरी और एक एक लोटा दही मिले ताजे गन्ने के रस का सिखरन दिया जाना था ।

त्रिपुरारी पाँड़े ने पंडित से कहा कि बैलों को वे गन्ने के कोल्हू में जोट दें ताकि गन्ने का ताजा रस निकाला जा सके । पंडित ने पिता की आज्ञा का पालन किया और बैलों को ले जाकर कोल्हू में जोट दिया पर वे कोल्हू न चला सके । थोड़ी देर में त्रिपुरारी पाँड़े घर से बाहर निकले और कोल्हू में नाधे बैलों पर उनकी निगाह गयी तो उनके बदन में एड़ी से चोटी तक आग लग गयी । पंडित ने जुआठे में बैलों को अगल बगल न जोट कर आमने सामने जोत दिया था । एक बैल का मुँह उत्तर तो दूसरे का दक्षिण ।

त्रिपुरारी पाँड़े ने आव देखा न ताव बैलों के हाँकने का पैना उठाया और पंडित की पीठ पर तड़ातड़ पीटना शुरू कर दिया । दुबले पतले पंडित पैने के निर्मम प्रहार को कितना झेल पाते , वे दो ही तीन पैने में ढह गये और ज़मीन पर पड़े पड़े हर वार पर “मर गये” “मर गये” ….चिल्लाने लगे ।

जब अड़ोस पड़ोस के लोगों के कान में पंडित की चीखें पड़ी तो वे भाग कर आये और किसी तरह त्रिपुरारी पाँड़े की अनुनय विनय कर पंडित की जान बचाई । पंडित ने घावों पर पत्नी से हल्दी लगवाते हुए उसी रात मन ही मन कसम खा ली कि अब वे फिर कभी खेती बारी के चक्कर मे न पड़ेंगे ।
अपने पढ़े लिखे विद्वान बेटे की पिटाई करने के बाद त्रिपुरारी पाँड़े को बड़ी आत्मग्लानि हुई और उन्होंने दुबारा पंडित को खेती के काम करने के लिए नहीं कहा ।

संयोग से उसी समय मुजभरिया गांव में एक नया प्रायमरी स्कूल खोले जाने का जिला परिषद का फरमान आ गया । गांव से एक एक कोस दूर तक चारों ओर कोई स्कूल नहीं था सो लोगों को बड़ी खुशी हुई । मेम्बर जिला परिषद को बता दिया गया कि मास्टर खोजने के लिए वे परेशान न हों क्योंकि पंडित से ज़्यादा पढ़ा लिखा मास्टर और कहाँ मिलेगा ?

इस तरह पंडित मुजभरिया के जंगल में छप्पर डाल कर नये नये खुले स्कूल के प्रथम अध्यापक नियुक्त हो गये । स्कूल में ज़्यादा बच्चे तो थे नहीं , बड़ी मुश्किल से अगल बगल के कई गांवों में माता पिता की चिरौरी विनती कर पंडित ने १०-१५ शिक्षार्थी तैयार कर लिया और स्कूल चल निकला ।

पंडित को धर्मग्रंथों को पढ़ने और दोनों टाइम पूजा करने के अलावा गो माता की सेवा का भी शौक चर्राया सो उन्होंने एक गाय भी रख ली और बड़ी जतन से उसकी सेवा करने लगे । वे स्कूल के समय भी मात्र १०-१५ ही बच्चों को आखिर कितनी देर तक पढ़ाते ? सो वे साथ में एक अरहर का झउआ (टोकरा) और एक खुर्पा भी स्कूल जाते समय लेते जाते । बच्चों को कुछ लिखने को देकर वे जंगल में गो माता के लिए घास छील लेते । इस तरह एक पंथ दो काज हो जाने से पंडित परम मुदित रहने लगे थे ।

एक दिन डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का निरीक्षक इस नवोदित विद्यालय का हालचाल लेने आ धमका । निरीक्षक जब स्कूल पहुँचा तो बच्चे आपस में खेल रहे थे , शोर शराबा हो रहा था । भौंचक्का निरीक्षक ने अध्यापक के बारें में बच्चों से पूछा तो बच्चों ने थोड़ी दूरी पर जंगल में मात्र कमर में धोती बाँधे नंग धड़ंग घास निकाल रहे एक अत्यंत दुबले पतले शख्स की ओर इशारा कर दिया ।

कुतूहल से अधीर निरीक्षक उस शख्स के पास जाकर जोर से गुर्राया – तुम्हीं इस विद्यालय के शिक्षक हो ? मैं निरीक्षण करने आया हूँ ? ये हो क्या रहा है आखिर ?

पंडित ने बगल में पड़ी अपनी टोपी उठाकर सिर पर पहनी और निरीक्षक को सादर नमस्कार कर बोले- श्रीमन् मैं रामाश्रय पाण्डेय इस विद्यालय का अध्यापक हूँ । मैं गो सेवा के लिए घास निकाल रहा था , मुझसे त्रुटि हो गयी सो क्षमा प्रार्थी हूँ, आगे से गलती न होगी ।

निरीक्षक गुस्से से आगबबूला होकर पंडित को गालियाँ देने लगा । पंडित गालियाँ बरदाश्त न कर सके और चीखते हुए बोले- श्रीमन् ! खबरदार अगर अब आप ने आगे एक भी गाली निकाली तो ! आप अपनी नौकरी रखिए अपने पास मै किसी की गाली सुनने को तैयार नहीं हूँ ।

निरीक्षक बल खाता चला गया पंडित को बर्खास्त कराने और पंडित ने उसी दिन से मास्टरी न करने की कसम खा ली और दुबारा मुजभरिया की ओर रुख न किया ।
इस घटना के बाद पंडित ने पूरी तरह अपने को आध्यात्म की ओर झोंक दिया । गीता प्रेस से मासिक निकलने वाली ” कल्याण ” पत्रिका के वे नियमित ग्राहक बन गये । सुबह शाम नहाना धोना , पूजा पाठ के बाद बचने वाले समय में वे गीता प्रेस की धार्मिक पुस्तकें और कल्याण का अध्ययन करते । जब हम लोग भी किस्से कहानी पढ़ने लायक पाँचवीं छठीं क्लास में पहुँच गये तो पंडित के पास जाकर कल्याण व गीता प्रेस की धार्मिक कहानियाँ पंडित से मांग लाते और पढ़ कर वापस कर देते । पंडित पढ़ने लिखने वालों की अनौपचारिक लाइब्रेरी बन चुके थे । वे दुबले पतले तो थे ही श्रम न करने व देर देर तक पढ़ते रहने से उन्हें खराब हाज़मे की बीमारी हो गयी । हाज़मे को दुरुस्त करने के लिए वे योग की पुस्तकों को पढ़कर शीर्षासन आदि तरह तरह के दुरूह आसनों का योगाभ्यास करने लगे । बहुत सबेरे उठकर दिशा मैदान जाते और बाग में धोबी के कुँए पर दातुन कर बाग में ही योगाभ्यास करते ।

एक दिन पता नहीं क्या हुआ कि योगाभ्यास करते करते पंडित की कांच गुदा से बाहर आ गयी । जब पंडित को इसका एहसास हुआ तो वे बुरी तरह घबरा कर रोने चिल्लाने लगे । गांव वालों को जब पता चला तो उन्होंने पंडित को उठा कर चारपाई पर डाला और अस्पताल को ले भागे । डाक्टर ने पंडित की कांच को फिर से गुदा के अंदर डालकर व्यवस्थित कर दिया और कब्ज से बचने , हाजत में बहुत जोर न लगाने , योग के नाम पर ऊटपटाँग हरकतें न करने की ताकीद दे कर घर भेज दिया ।

पंडित ने तीसरी कसम खायी कि अब वे प्रशिक्षित गुरू के बिना किताब पढ़ पढ़ कर योगासन कभी न करेंगे ।

हमारे बचपन में यदि गांव में कोई स्वयं से शीर्षासन करता दिखाई पड़ जाता था तो उसे पंडित का उदाहरण देते हुए चौकन्ना किया जाता था कि अपने से योग करोगे तो किसी न किसी दिन पंडित की तरह तुम्हारी भी कांच बाहर निकल आयेगी फिर चारपाई पर लद कर अस्पताल पहुँचाये जाओगे ।

 

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