Home / Slider / “कोविदार (कचनार) वृक्ष अयोध्या का राजकीय वृक्ष था”
“कोविदार (कचनार) वृक्ष अयोध्या का राजकीय वृक्ष था”

‘रामायण में वर्णित पेड़ पौधों के सामाजिक सरोकार’
भाग – पांच

प्रबोध राज चन्दोल
संस्थापक , पेड़ पंचायत
अयोध्या काण्ड के 94वें सर्ग में ही चित्रकूट पर्वत पर सहस्त्रों औषधियों के उपलब्ध होने का विवरण है। यहां घने वृक्ष फैले हुए थे, कई स्थानों पर चम्पा व मालती आदि के फूल वन की शोभा को बढ़ा रहे थे। जंगलों में विश्राम करने के लिए उत्पल, पुत्रजीवक, पुन्नाग, भोजपत्र और कमल के पत्तों से बिछोने बना लिए जाते थे। चित्रकूट पर्वत पर लम्बे, ऊंचे साल के पेड़ थे। साल के एक पेड़ पर चढ़कर लक्ष्मणजी ने भरत की आती हुई सेना का अवलोकन किया था। साल की लकड़ी मजबूत होती है और निर्माण कार्यों तथा घरेलू फर्नीचर को बनाने में इसका प्रयोग होता है। इस पेड़ का जड़ी-बूटी के रुप में प्रयोग आयुर्वेद में सदियों से होता आया है। लक्ष्मण ने देखा कि भरत की सेना के रथ पर लहराते ध्वज पर कोविदार वृक्ष का चिह्न अंकित था और वो सेना चित्रकूट पर्वत की ओर आ रही है। कोविदार वृक्ष अयोध्या का राजकीय वृक्ष था। यह पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए अति उपयोगी है। यह कचनार की प्रजाति का एक वृक्ष है जिसमें अनेक औषधीय गुण हैं।
श्रीराम की खोज करते हुए दशरथ कुमार भरत मंदाकिनी नदी के समीप स्थित वन में पहुंचे और वहाँ पर भरत ने एक बड़ी पर्णशाला देखी जो साल, ताल व अश्वकर्ण वृक्षों के पत्तों से बनी हुई थीं। ताल या ताड़ के वृक्ष की कई प्रजातियाँ हैं। इसका तना सीधा और शाखाविहीन होता है। इस वृक्ष का तना, पत्ता, जड़, फल, बीज, रस सभी का उपयोग अलग-अलग प्रकार से किया जा सकता है। इसका फल पेट की समस्या व पाचन में लाभकारी है। इसके विभिन्न भाग औषधि व जलीय लकड़ी के रूप में काम आते हैं। इस पेड़ से दूध भी निकाला जाता है। अश्वकर्ण, साल की जाति का ही एक अन्य वृक्ष है। इसकी लकड़ी इमारती और बहुत कठोर होती है। ताल को ताड़ का वृक्ष भी कहते हैं।
रामायण के अरण्यकाण्ड में यह विवरण है कि चित्रकूट पर्वत को छोड़कर श्रीराम ने दण्डकारण्य की ओर प्रस्थान किया जहाँ बहुत से तपस्वी मुनियों के आश्रम थे। यह वन फल देने वाले वृक्षों तथा अन्य वन्य वृक्षों से भरा पड़ा था। श्रीराम विभिन्न आश्रमों से होते हुए गमन कर रहे थे और मार्ग में उन्हें नानाप्रकार के वृक्ष, सरोवरों में खिले हुए लाल, श्वेत, नीले अनेक प्रकार के फल-फूलों से लदे हुए पेड़-पौधे व फूलों से सुशोभित अनेक वन देखने को मिले। अरण्यकांड के ग्यारहवें सर्ग में अगस्त्यमुनि के आश्रम की ओर प्रस्थान करते हुए श्रीराम ने मार्ग में नीवार, कटहल, साखू, अशोक, तीनिश, चिरिबिल्व, महुआ, बेल, तेन्दू और अनेक प्रकार के सैंकड़ों जंगली वृक्ष देखे जोकि फूलों और लताओं से लदे हुए थे। आश्रम के आसपास पिप्पली के वन का वर्णन आता है। जहां पकी हुई पिप्पलियों की गन्ध महकती है। पिप्पली के फल को सुखाकर इसे छोंक और औषधीय गुणों के कारण आयुर्वेद में प्रयोग किया जाता है।
निवार शब्द का प्रयोग दो बार हुआ है। दूसरे अध्याय के 61वें सर्ग के पांचवे श्लोक में नीवार से अभिप्राय एक लम्बी घास से हैजिसमें से चावल निकलते हैं। इसे हिन्दी में तीनी भी कहते हैं। यह जलीय घास जाति का पौधा है जोकि तालाबों या नम भूमि पर फैला रहता है। तीसरे अध्याय के 11वें सर्ग में निवार से अभिप्राय कदम्ब से है। कदम्ब के फल-फूल और छाल अनेक औषधीय गुणों से भरपूर है। कटहल-त्वचा, हृदयरोग, पेट और हड्डियों के स्वास्थ्य को बनाए रखने में मदद देता है। साखू, अशोक, महुआ, बेल, तेन्दू और तीनिश का परिचय हम पहले दे चुके हैं। चिरिबिल्व की औषधीय क्रियाएं सूजन रोधी, वातहर, रेचक व कृमिनाशक हैं।
13वें सर्ग में महर्षि अगस्त्य ने श्रीराम को पंचवटी नामक आश्रम की ओर जाने का मार्ग बताते हुए कहा कि यह जो महुओं का विशाल वन आपको दिखाई देता है इसके उत्तर से होकर जाना। इस मार्ग में आगे एक बरगद का वृक्ष मिलेगा फिर एक पर्वत के पास पंचवटी नामक सुन्दर वन है। पंचवटी प्रदेश में पहुंचकर श्रीराम ने देखा कि वहाँ साल, ताल, तमाल, खजूर, कटहल, जलकदम्ब, तीनिश, पुन्नाग, आम, अशोक, तिलक, केवड़ा, चम्पा, स्यन्दन, चंदन, कदम्ब, पर्णास, लकुच, धव, अश्वकर्ण, खैर, शमी, पलास और पाटल (पाडर) आदि वृक्षों से घिरे हुए पर्वत शोभा पा रहे थे। इन वृक्षों में अनेक वृक्षों का वर्णन पूर्व में आ चुका है अतः हम यहाँ पर केवल उन वृक्षों की चर्चा करेंगे जोकि पूर्व में वर्णित नहीं है।
खजूर या ताड़ के वृक्षों को सुन्दरता के लिए तो लगाया ही जाता है इसके अतिरिक्त ये वायु की गुणवत्ता को सुधारने में मदद करते हैं। खजूर में भरपुर पोषकतत्व होते हैं जो मस्तिष्क के स्वास्थ्य के लिए तथा ऊर्जा प्रदान करने के लिए और बिमारी को रोकने में बहुत लाभकारी हैं।
स्यन्दन के वृक्ष को हम बाकली धोरा या धावा के नाम से भी जान सकते हैं। त्वचा के रोग या लीवर की समस्या अथवा बुखार में भी इसका उपयोग किया जाता है। जबड़े की बीमारी या डायरिया में भी इसका उपयोग किया जा सकता है। इसकी लकड़ी जलावन के काम आती है।
परणास तुलसी के पौधे को कहते हैं। यह पौधा पवित्र पौधों की श्रेणी में आता हैं। इसमें अनेक औषधीय गुण हैं तथा जो कफ, डायरिया, बुखार, कब्ज, अस्थमा आदि अनेक रोगों में काम आता है।
लकुच या बड़हल की लकड़ी कठोर और दीमक रोधी मानी जाती है जो सागोन की लकड़ी के समान मजबूत होती है। पुराने समय में इसकी लकड़ी से नाव बनती थी और यह अनेक प्रकार के फर्नीचर बनाने के भी काम में आता थी। इसका फल बड़ा ताकतवर है जो शरीर को स्वस्थ बनाये रखता है। लीवर, आँख, कान, खुजली, बाल आदि की समस्याओं में लाभकारी है।
शमी के पौधे का धार्मिक महत्व है जिसका पूजन करने से शनि दोष का प्रभाव कम होता है। आयुर्वेद में इसका प्रयोग शरीर में कफ और पित्त के दोष को संतुलित करने के लिए किया जाता है। खुजली, रक्तस्त्राव, बिच्छु के काटने आदि में इसका प्रयोग किया जाता है।
रामायणकालीन आश्रमों में जो पर्णशालाएं बनाई जाती थीं उनमें वहीं जंगल में पैदा होने वाली चीजों का प्रयोग होता था जिनमें बांस, विभिन्न वृक्षों की शाखाएं, कुश, सरकंडे आदि से कुटी बनाई जाती थीं।उस समय युद्ध में साखू या साल तथा ताड़ के वृक्षों और पत्थरों से दुश्मनों पर आक्रमण किए जाते थे। अरण्यकांड के 25वें सर्ग में वर्णन है कि खर तथा अन्य राक्षसों द्वारा श्रीराम पर आक्रमण करते हुए इन्हीं वृक्षों को उखाड़कर फेंकते हुए प्रहार किया था। सीता हरण का निश्चय करने के बाद रावण ने मारीच के पास जाकर सहायता लेने का निर्णय लिया। आकाश मार्ग से समुद्रतट पर मारीच के आश्रम की ओर प्रस्थान करते हुए राक्षसराज रावण के मार्ग में आने वाले वनों तथा अनेक वृक्षों का वर्णन है जिनमें कदली या केले के वन, नारियल के कुँज, साल, तमाल तथा सुन्दर फूलों से भरे हुए दूसरे वृक्ष, चन्दन के सहस्त्रों वन, अगरु के वन, सुगंधित फल वाले वृक्षों के उपवन आदि थे। अंत में रावण ने सागर तट पर एक विशाल वटवृक्ष भी देखा तथा समुद्र के दूसरे तट पर एक वन के भीतर एकान्त स्थान पर एक आश्रम देखा जहाँ मारीच नाम का राक्षस निवास करता था। रावण के अनुरोध पर भय से पीड़ित मारीच ने रावण की सहायता करने के लिए हाँ कर दी।
रावण और मारीच जब दण्डकारण्य में श्रीराम के आश्रम के पास पहुंचे तो उन्होनें देखा कि वह आश्रम केले के वृक्षों से घिरा हुआ है। श्रीराम की कुटी के निकट कनेर के कुँज थे जहां मारीज मृग के रुप में विचरने लगा। जनक नन्दिनी सीता उस समय वहाँ पुष्प चुनती हुई कनेर, अशोक, और आम के वृक्षों को लाँघती हुई उधर आ निकली और उस मृग को देखकर मुग्ध होकर श्रीराम को उसे पकड़कर लाने का अनुरोध किया। इस प्रकार माता सीता का रावण के द्वारा अपहरण किए जाने की परिस्थिति निर्मित हुई।
रावण द्वारा माता सीता के अपहरण के पश्चात उन्हें लंका ले जाकर अशोक वाटिका में उनके निवास की व्यवस्था की गई थी। वह वाटिका कामनाओं की पूर्ति करने वाले कल्पवृक्षों और भांति-भांति के फल-फूल देने वाले दूसरे वृक्षों से भरी पड़ी थी।
साठवें सर्ग में यह विवरण है कि सीता को पर्ण कुटिया में न पाकर श्रीराम बड़े वेग से सीता को इधर-उधर देखने और विलाप करने लगे व वन में चारों ओर फैले अनेक वृक्षों से देवी सीता के विषय में पूछने लगे। एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष तक दौड़ते हुए वे कदम्ब, अर्जुन, कुकुभ, तिलक, अशोक, ताल, जामुन, कनेर, आम, कदंब, शाल, कटहल, कुरव, धव, अनार, वकुल, पुन्नाग, चन्दन और केवड़े आदि के वृक्षों से पूछते फिरे।
कुछ विद्वानों ने कुकभ और अर्जुन को एक ही वृक्ष माना है परन्तु कोष में कुकभ को कुटज का पर्याय बताया गया है। इस अध्याय में भी कुकभ और अर्जुन दोनों नाम अलग-अलग दिये हुए है जिससे यह सिद्ध होता है कि कुकभ और अर्जुन ये दोनों ही पेड़ अलग-अलग हैं। कुकभ या कुटज औषधीय पेड़ हैं जिसके फल का प्रयोग बुखार, बवासीर, त्वचा रोग में किया जाता है। कुटज हृदयरोग में लाभकारी और घावों को भरने में सहायक है। इस सर्ग में दिये गए अन्य वृक्षों की चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं।
अरण्यवन के सरोवर व गोदावरी के तट कमल के फूलों से भरे पड़े थे। वहां की नदियों के तट पर वेतसलता सुशोभित थी। माता सीता की खोज में श्रीराम और लक्ष्मण दक्षिण पश्चिम दिशा की ओर वनों को पार करते हुए आगे बढ़ते गये। वे गहन वृक्षावलियों से भरे हुए वनों को पार करते हुए लगातार आगे जा रहे थे। पम्पा सरोवर की ओर जाते हुए उस मार्ग में अनेक फलों के वृक्ष थे।जिनमें जामुन, प्रियाल (चिरौंजी), कटहल, बड़, पाकड़, तेन्दू, पीपल, कनेर, आम तथा अन्य वृक्ष-धव, नागकेसर, तिलक, नक्तमाल, नील, अशोक, कदम्ब, खिले हुए करवीर, भिलावा, अशोक, लाल चन्दन तथा मन्दार जैसे वृक्ष थे जिनके मधुर फलों का आहार लेते हुए दोनों भाइयों ने अपनी खोज यात्रा जारी रखी।
वेतसलता एक जलीय पौधा है। इसके फूल स्वाद को बढ़ाते हैं तथा फूलों के अर्क का उपयोगगर्मी से बने बुखार में किया जाता है। इसकी छाल का काढ़ा जोड़ों के दर्द में अत्यनत लाभकारी है। जलन, सूजन, तथा घावों में भी इसका प्रयोग होता है। गले की खराश में इसके काढ़े से गरारे करने से लाभ होता है।
प्रियाल या चिरौंजी का प्रयोग बुखार, बदहजमी, कफ, त्वचा रोग, पीलिया, रक्तशोधन आदि में किया जाता है। बड़ या बरगद के पेड़ में त्रिदेवों का आवास माना जाता है तथा यह पवित्र पेड़ों की श्रेणी में आता है। यह वृक्ष बड़ी मात्रा में आक्सीजन प्रदान करता है। इसके बीज, दूध, छाल और जडादि औषधीय उपयोगों में बहुत काम आती है। इसके पत्तों का लेप फोड़े व फुंसियों पर लगाया जाता है। दूध को दर्द, गठिया, अल्सर, पैरों की फटी एड़ियों में लगाया जाता है। बताशें में इसके दूध की बूंदे डालकर खाने से हड्डियों को मजबूती मिलती है।
पाकड़ या पिलखन भारत में बहुतायत मिलने वाला वृक्ष है। यह वृक्ष जितना पुराना होता जाता है, उतनी ही अधिक ऑक्सीजन देता है। बिहार के सीतामढ़ी जिले में एक पाकड़ का पेड़ है जिसके विषय में ऐसी मान्यता है कि विवाहोपरांत अयोध्याजी जाते समय देवी सीता ने इसके नीचे विश्राम किया था। पाकड़ की छाल का काढ़ा हड्डियों को बहुत मजबूती प्रदान करता है, पत्तियाँ मधुमेह को नियंत्रित करने के काम आती हैं, चोट लगने या कटने पर छाल का चूर्ण लगाने से रक्तस्त्राव बन्द हो जाता है, छाल को पानी में उबालकर उस पानी में नहाने से पसीने की बदबू से छुटकारा मिलता है।
नागकेसर या नागचंपा एक सदाबहार सजावटी वृक्ष है जोकि अधिकांश एशियाई देशों में पाया जाता है। स्वास्थ्य लाभ के लिए इसका प्रयोग या तो अकेले या अन्य जड़ी-बूटियों के साथ किया जाता है। सर्दी, खांसी में लाभकारी तथा अतिरिक्त बलगम को बाहर निकालता है। नागकेसर के पाउडर में ज्वरनाशक गुण हैं।
करंज नाम से प्रायः तीन वनस्पति जातियों का बोध होता है नक्तमाल उनमें से प्रथम वृक्ष जाति है। इसको करंजीका और वृक्षकरंज आदि नामों से भी जाना जाता है। इसके वृक्ष नदी-नालों के आसपास स्वतः उग जाते हैं। सघन छायादार होने के कारण इन्हें सड़कों के किनारे लगाया जा सकता है। आयुर्वेद में इसके बीज और बीजों के तेल का उपयोग बताया गया है। दूसरा वृक्ष चिरबिल्व के नाम से जाना जाता है। यह नक्तमाल से मिलता-जुलता वृक्ष है। इन्हें करंजक या वृद्ध करंज के भी नाम से जानते हैं। इसके बीज ग्रामीण, बच्चे चिरौंजी की भांति खाते हैं। करंज के नाम से जो तीसरा पौधा है, वह कटकरंज नाम की एक बेल है जिसकी काँटेदार शाखाएँ फैली हुई होती हैं। इस प्रकार निघंटुओं में करंज के तीन भेद बताए गए हैं।
नील एक फली वाला पौधा है। यह जलवायु के अनुसार एक वर्षीय-दो वर्षीय और सदाबहार तीनों प्रकार का होता है। इसके फूलों से नीला रंग निकाला जाता है जिससे बाद में कपड़ों की रंगाई होती है।
करवीर के पौधे को हम कनेर के रूप में जानते हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में कनेर और करवीर का प्रयोग एक ही स्थान पर अलग-अलग किया है जिससे यह आभास होता है कि करवीर और कनेर दोनों अलग-अलग वृक्ष हैं। कनेर के सफेद, लाल और पीला ये तीन भेद बताये गए है। वैसे तो कनेर एक जहरीला पौधा है परन्तु इसके कुछ औषधीय उपयोग भी हैं। खुजली, फोड़ा, त्वचाविकार, कुष्ठरोग, बवासीर आदि रोगों में इसका प्रयोग किया जाता है।
भिलावा का फल अति विषैला औषधीय फल है अतः आयुर्वेद में इसका प्रयोग शोध के बाद ही होता है। इसकी छाल में चीरा लगाने से काला पदार्थ निकलता है जो वार्निश बनाने में प्रयोग होता है। इसके फल, मज्जा और तेल का उपयोग औषधि निर्माण में किया जाता है।
लाल चन्दन या रक्त चन्दन भारत के दक्षिणी भाग के घने जंगलों में पाया जाता है। इसकी लकड़ी सबसे महंगी होती है। इसकी लकड़ी का प्रयोग वाद्ययन्त्र या फर्नीचर व मूर्तियां बनाने के लिए किया जाता है। इसके अतिरिक्त इसका प्रयोग औषधियाँ बनाने के लिए किया जाता है।
मन्दार या मदार की तीन प्रजातियाँ होती हैं-रक्तार्क, स्वेतार्क, राजार्क। इसकी जड़, तना, पत्ती दूध के साथ लेने में अलग-अलग औषधीय गुण हैं। इसका दूध आँखों के लिए हानिकारक है।
क्रमशः
‘Social concerns of trees in Ramayana’Part - Five: #प्रबोध राज चंदोल लेखक #मन्दार या मदार #रामायण और पेड़ पौधे Prabodh chandol writer 2025-01-14
Tags ‘Social concerns of trees in Ramayana’Part - Five: #प्रबोध राज चंदोल लेखक #मन्दार या मदार #रामायण और पेड़ पौधे Prabodh chandol writer
Check Also
साहित्य अकादेमी द्वारा कुंभ में हिंदी कवि सम्मेलन का आयोजन बुद्धिनाथ मिश्र की अध्यक्षता में ...