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‘कैलाश यात्रा का प्रस्ताव रोमांचक था’ : हरिओम IAS

 

कैलाश-मानसरोवर यात्रा 

अगर आपको सनातन हिन्दू धर्म में आस्था है। अगर आपको पौराणिक मान्यताएँ आकर्षित और प्रेरित करती हैं। अगर आप प्रकृति के विराट विहंगम रूप का साक्षात्कार करने से रोमांचित होते हैं। अगर आप ज़िंदगी को रोज़मर्रा घटित होने वाले उपक्रम से कुछ अलग समझते हैं। अगर आप शारीरिक और मानसिक कष्ट झेलने की अपनी क्षमता का परीक्षण करना चाहते हैं।अगर आप आरामतलबी और अपने संकीर्ण जीवन से ऊब चुके हैं और धरती के सुदूर विस्तार में फैली ज़िंदगी को मापना, देखना और समझना चाहते हैं तो इनमें से कोई एक वजह आपको इस रोमांचकारी, कष्टकारी यात्रा पर ले जाने के लिए पर्याप्त है। मेरा विश्वास कीजिए कि जब आप वापस आएँगे तो जीवन-जगत और प्रकृति के प्रति आपका दृष्टिकोण काफ़ी समृद्ध हो चुका होगा।

कैलाश-कथा-1

डा0 हरिओम

विलक्षण और बहुमुखी प्रतिभा के धनी संवेदनशील कवि – लेखक डॉ हरि ओम विभिन्न क्षेत्रों में पारंगत हैं। आप अच्छे गजल गायक होने के साथ ही बेहतरीन किस्सागो भी हैं जो श्रोता व पाठक को बांधने की कला को बेहतर जानता है। आप यूपी कैडर में वरिष्ठ आईएएस अफसर हैं। पिछले दिनों आपने कैलाश-मानसरोवर की यात्रा की। प्रस्तुत है इस दुर्गम यात्रा का श्रृंखलाबद्ध वृतांत एक अनूठी शैली में।

एक रोज अचानक आरडी सर का फोन आया और उन्होंने बड़ी आत्मीयता से मेरे सामने कैलाश मानसरोवर यात्रा पर चलने का प्रस्ताव रखा। आरडी सर सर्विस में मेरे वरिष्ठ हैं और मुझ पर अनुजवत स्नेह रखते हैं। उन्होंने कैलाश यात्रा पर जाने के अपने पवित्र निर्णय, उसके पीछे की वजहों और सहयात्री के रूप में मेरे चयन के औचित्य को भी संक्षेप में समझाया।

मैं उस समय 2019 लोक सभा चुनाव के मद्देनजर शिमला में पर्यवेक्षक की भूमिका का निर्वाह कर रहा था। आरडी सर के प्रस्ताव के अनुसार हमें चुनाव सम्पन्न होने के हफ्ते-दस दिन बाद ही यात्रा पर निकलना था और इसके लिए जरूरी शासकीय अनुमति वगैरह की प्रक्रिया भी शिमला से ही प्रारम्भ करनी थी। मैं फोन पर कोई निर्णय नहीं कर सका। मैने आरडी सर से प्रस्ताव पर विचार करने के लिए थोड़ा वक्त देने का अनुरोध करते हुए बात समाप्त की।


मैं शिमला में था। प्रकृति की सुन्दर छटा मेरे चारों तरफ बिखरी हुई थी। परिवेश की शीतलता मुझे दिन-रात घेरे रहती थी। ओक-चीड़-देवदार के पेड़ों से सजी हुई धरती और सघन-विरल स्मृतियों की चादर लपेटे पहाड़ मुझे हर ओर दीखते। सुदूर सीमान्तों पर हिमशिखर भी दीखते रहते, जो अक्सर सूर्य-किरणों से दमक उठते थे। ऐसे परिवेश में कैलाश यात्रा का प्रस्ताव रोमांचक था।

मुझे याद आया कि विद्यार्थी जीवन में कभी कुछ मित्रों के साथ समाचार पत्रों में खबर पढ़ने के बाद हमने अमरनाथ और कैलाश-मानसरोवर यात्रा पर जाने की चर्चा की थी।इन यात्राओं की दुर्गमता और उसके लिए अनिवार्य शारीरिक क्षमता एवं जरूरी मनोबल, नई उम्र में इन्हें काफी आकर्षक बनाता था।हालांकि उस समय यह विचार भी तमाम दूसरे सुन्दर और साहसिक विचारों की तरह स्वतः तिरोहित हो चला था लेकिन अबकी बार यह प्रस्ताव मन-मस्तिष्क में बैठ गया।

यह सुखद है कि इतनी उम्र बीतने के बाद भी मेरे भीतर एक बच्चा इस धरती पर जीवन-जगत के विस्तार को और अधिक जानने को उत्सुक रहता है। वह प्रकृति के बीच होना चाहता है, उसके सुन्दर-कुरूप, कोमल-कठोर, भयावह-प्रीतिकर, सुगम-दुर्गम सभी रूपों के दर्शन करना चाहता है और कोशिश करता है कि उम्र गुजरने के बावजूद इस उत्सुकता को पूरा करने के लिए आवश्यक शारीरिक बल और मानसिक दृढ़ता मुझमें बची रहे।भाग्य ने मुझे अपनी इस इच्छा को पूरा करने के लिए आर्थिक रूप से भी सक्षम बनाए रखा है।यही वहज है कि ऐसे सभी अवसरों को मैं सहर्ष स्वीकार कर लेता हॅू।सृष्टि में फैले जीवन की व्यापकता और वैविध्य को जानने-समझने का कोई अवसर जब भी मुझे मिला मैने बाहें पसार उसका स्वागत किया।

 कैलाश यात्रा पर जाने का यह अवसर भी मुझे ठीक वैसा ही लगा।मैं प्रस्ताव पर गम्भीरता से विचार करने लगा। नेट पर मैने कैलाश-पर्वत, मानसरोवर-झील,राक्षस-ताल,यात्रा-मार्ग आदि के सम्बंध में शुरूआती छान-बीन शुरू कर दी थी। घर पर बातचीत करने के बाद अगले दिन मैने आरडी सर को फोन पर अपनी सहमति दे दी।

उन्हें काफी खुशी मिली थी। उन्होंने लगे हाथ दिल्ली में बैठे हमारे यात्रा-समन्वयक किसी मिस्टर भटनागर का नम्बर भी थमाया और हमारी तैयारी शुरू हो गयी। कुछ रोज में यह तय हुआ कि हमें 14 जून, 2019 से 24 जून, 2019 के बीच कैलाश-यात्रा पर होना है।

आरडी सर और मैने कुछ अन्य समर्थ सहकर्मियों और मित्रों से भी कैलाश यात्रा पर साथ चलने का अनुरोध किया लेकिन किसी न किसी वजह से कोई और साथ न आ सका। हाँ आरडी सर के महकमे में कार्यरत डा0 गुप्ता अवश्य सपत्नीक इस यात्रा पर साथ चलने को यकायक प्रस्तुत हुए। हम स्वभावतः कैलाश यात्रा को लेकर काफी उत्सुक थे और हमसे भी ज्यादा हमारे रिश्तेदार। मुझे मेरे कई करीबी रिश्तेदारों ने फोन कर इस सर्वाधिक पवित्र तीर्थयात्रा पर जाने का निर्णय लेने पर बधाई और साधुवाद दिया। उन्हें परम आश्चर्य हो रहा था कि आखिर मैंने कैलाश-यात्रा पर जाने का मन कैसे बनाया? मेरे पिता भी मेरे इस निर्णय से सुखद आश्चर्य में थे वे. ज्यादातर मामलों में मेरे विचारों का समर्थन करते थे लेकिन धार्मिक कर्मकाण्डों, अनुष्ठानों और आडम्बरों आदि पर मेरी आलोचकीय दृष्टि का अमुखर प्रतिवाद करते थे।

मैं कैलाश यात्रा पर जाने वाला हूँ, यह सुनकर वह बहुत खुश थे। उनके हिसाब से यह मुझ पर भोले बाबा की ही कृपा थी जिसने मेरे मन में आस्था की ऐसी जोत जगायी थी। धर्म-कर्म, पूजा-हवन, भजन-कीर्तन, मंत्र-अनुष्ठान, तीर्थाटन आदि हमेशा ही हिन्दू-चेतना के मूल में रहे हैं। इसका विचार और आचरण भले ही हमारे चरित्र को उदात्त, पवित्र, मानवीय और लोकहितकारी न बनाता हो लेकिन समाज में इससे हमारी छवि अवश्य ही एक बेहतर इंसान की बनती है।

हिन्दू समाज ऐसा मानकर चलता है कि व्यक्त धार्मिक आचरण वाला व्यक्ति अपेक्षाकृत अधिक चरित्रवान, उदारमना, भला मानुष होता है जबकि दरअसल अक्सर इसका उल्टा ही सामने आता है लेकिन अब मान्यता तो आखिर मान्यता है। समाज हमें गढ़ता है। हम समाज को किस हद तक, कितना गढ़ पाते हैं ? धार्मिक चेतना, बचपन से जाने-अनजाने हममें घुलती है। पूजा-जप, मंत्र-अनुष्ठान, लोकोक्तियाँ, मंदिर, व्रत-त्योहार, धार्मिक जुलूस-यात्राएँ सबके पीछे कोई न कोई धर्म-कथा है। मेरा बचपन तो कुछ ज्यादा ही इस चेतना के बीच गुजरा।

गाँव में मेरे घर के सामने ही पुराना शिव-मंदिर है जो हमारे दादा ने स्थापित किया था और जिससे जुड़ी हुई अनगिनत कहानियाँ हमने अम्मा और दादी से सुनी थीं। पिता पूर्णतः धार्मिक। शिवरात्रि पर निर्जल व्रत रखने वाले। अम्मा पूरे साल में पता नहीं कितने व्रत-उपवास रखती थीं। होश संभालने से लेकर बारहवीं की पढाई के बाद गाँव छोड़ने की उम्र तक इस मंदिर में रोज शाम को होने वाली आरती की जिम्मेदारी मेरी ही थी।

घंटा-शंख वादन से लेकर, पूजा-पाठ में पारंगत मैं जब आगे पढ़ाई के लिए गाँव से बाहर निकला तब तक धर्म का यह कर्म-काण्डी रूप मेरे संस्कारों में बहुत गहरे शामिल हो चुका था। ग्राम्य जीवन और वहाँ प्रचलित धार्मिक-संस्कारों में एक खास बात यह थी कि उससे दुःखों, निराशाओं, असफलताओं का सामना करने की शक्ति मिलती थी, मुझे भी मिली। सृष्टि को नियंत्रित और संचालित करने वाली किसी अदृश्य शक्ति की मान्यता(जिसे हम ईश्वर कहते हैं)में आस्था ने हमें धैर्य रखना सिखाया। मुश्किल वक्तों का सामना करना सिखाया। बेहतरी की उम्मीद बाँधे रखना सिखाया।

इस धर्म में हिंसा, द्वेष, घृणा, बैर अथवा अमानवीय आचरण के लिए कोई जगह नहीं थी। जाने यह सब कब कहाँ से हमारी धार्मिक चेतना का हिस्सा बना !

‘सत्येनोत्पद्यते धर्मो दया-दानेन वर्ध्यते.
क्षमायाम स्थाप्यते धर्मो क्रोध्लोभादि विनश्यति’

(अर्थात धर्म सत्य से उत्पन्न होता है और दया दान से बढ़ता है। क्षमा से धर्म स्थापित होता है और क्रोध-लोभ से नष्ट हो जाता है)

वेदों और शास्त्रों में धर्म के बारे में बार-बार लिखा गया है जिसमें किसी भी अमानुषिक आचरण के लिए कोई जगह नहीं है। धर्म की बुनियाद ही अहिंसा, क्षमा और त्याग पर टिकी है बचपन से हमें जो धर्म सिखाया-समझाया गया, वह जीवन भर हमारी रक्षा करने वाला था। जाने कब से हम धर्म की रक्षा करने के लिए मचलने लगे।

खैर जैसे-जैसे हम आगे बढ़े वेद-पुराण, उपनिषद, महाकाव्य एवं गीता आदि ग्रन्थ आँखों से गुज़रें। विज्ञान-दर्शन और समाजशास्त्रीय विषयों के साथ साहित्य भी हमारी ज्ञान-चेतना में घुला-मिला। हममें चीजों को समझने-देखने की दृष्टि आई और हम धर्म के कर्म-काण्डीय पक्ष से दूर होते चले गये। धर्म हमारे लिए मनुष्यता को समझने का जरिया बन गया, न कि पाप धोने और पुण्य कमाने का साधन। सृष्टि के सौन्दर्य को परखना, प्रकृति की विराटता का साक्षात्कार करना, दुःख विगलित-मानवता से द्रवित होना, सत्य मार्ग का वरण करना और लोकहित की चिन्ता करना यही हमारा वास्तविक धर्म बनता चला गया।

वेद कहता है कि ‘‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदंति’’ अर्थात सत्य एक है। विद्वान-श्रृषि उसे भिन्न-भिन्न प्रकार से कहते हैं। उपनिषद् कहता है कि ‘जोई-जोई पिण्डे, सोई ब्रह्माण्डे’ मतलब जो शरीर के भीतर है वही बाहर पूरे ब्रह्माण्ड में व्याप्त है।

हिन्दू धर्म चेतना की शक्ति इसमें है कि उसने ज्ञान-मीमांसा, आत्मोलचन, परिष्कार-समाहार के अनगिनत द्वार खोले। विभिन्न विचार-सरिणियों, उपासना-पद्धतियों और दर्शन-प्रणालियों को आत्मसात किया। शायद इसीलिए नाथपंथी, हठयोगी, सगुण-निर्गुण, कृष्ण मार्गी, राम मार्गी, वैष्णव-शाक्त, सबके सब इसकी परिधि में समा सकें। हिन्दू धर्म के भीतर ही अनेकों सम्प्रदाय उभरे और आज भी फल-फूल रहें हैं। यहाँ बहिष्कार नहीं, समाहार है। यहाँ कट्टरता नहीं उदारता है। यहाँ मुख्य धारा की धौंस नहीं, अवान्तर और सीमान्त चेतनाओं का सम्मान है। हिंदू धर्म-चेतना का जो रूप बाद में मुझमें विकसित हुआ, वह शायद यही रूप है जिसमें ईश्वर समूची सृष्टि में व्याप्त है। वही सद्चेतना हमारे भीतर भी मौजूद है।

अतः ईश्वर को किसी एक स्थान विशेष तक सीमित कर देना उचित नहीं। वह मानवीय मूल्यों और सरोकारों के निर्वाह में है। वह प्रकृति की विराट सत्ता में समाया हुआ है। वह हम सबकी सुन्दर सोच में होता है

क्रमशः

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