“…..अब हम पूरी तरह यात्रा के अपने अगले पड़ाव के लिए तन-मन और वज़न से तैयार थे. वज़न से तैयार, मतलब हमारे पिट्ठू बैग और हमारे एयर बैग सब पैक हो चुके थे. हमारे इंतज़ार की घड़ियाँ जल्दी ही ख़त्म हुईं और मि.गुप्ता के मोबाइल पर मि.आर.ओझा का फ़ोन आ गया. हममें जैसे एक नई ऊर्जा का संचार हुआ और हम होटल एम.एस को वापसी में फिर मिलने का वादा कर सिमीकोट की हवाई पट्टी की तरफ़ कूच कर चले. हमारे बड़े बैग पीछे से वहां पहुँचने वाले थे. कुछ ही मिनटों में हम दुबारा उसी सुपरिचित हवाई पट्टी पर थे.“
कैलाश मानसरोवर यात्रा
अगर आपको सनातन हिन्दू धर्म में आस्था है। अगर आपको पौराणिक मान्यताएँ आकर्षित और प्रेरित करती हैं। अगर आप प्रकृति के विराट विहंगम रूप का साक्षात्कार करने से रोमांचित होते हैं। अगर आप ज़िंदगी को रोज़मर्रा घटित होने वाले उपक्रम से कुछ अलग समझते हैं। अगर आप शारीरिक और मानसिक कष्ट झेलने की अपनी क्षमता का परीक्षण करना चाहते हैं। अगर आप आरामतलबी और अपने संकीर्ण जीवन से ऊब चुके हैं और धरती के सुदूर विस्तार में फैली ज़िंदगी को मापना, देखना और समझना चाहते हैं तो इनमें से कोई एक वजह आपको इस रोमांचकारी, कष्टकारी यात्रा पर ले जाने के लिए पर्याप्त है। मेरा विश्वास कीजिए कि जब आप वापस आएँगे तो जीवन-जगत और प्रकृति के प्रति आपका दृष्टिकोण काफ़ी समृद्ध हो चुका होगा।
डा0 हरिओम IAS
विलक्षण और बहुमुखी प्रतिभा के धनी संवेदनशील कवि – लेखक डॉ हरि ओम विभिन्न क्षेत्रों में पारंगत हैं। आप अच्छे गजल गायक होने के साथ ही बेहतरीन किस्सागो भी हैं जो श्रोता व पाठक को बांधने की कला को बेहतर जानता है। आप यूपी कैडर में वरिष्ठ आईएएस अफसर हैं। पिछले दिनों आपने कैलाश-मानसरोवर की यात्रा की। प्रस्तुत है इस दुर्गम यात्रा का श्रृंखलाबद्ध वृतांत एक अनूठी शैली में।
पिछले भाग से आगे……
…….हमारी सुबह फिर दरवाज़े पर होटल के लड़के द्वारा चाय के लिए दी गई दस्तक से हुई. सिवाय मेरे बाक़ी सभी बिस्तरों पर कुछ हलचल शुरू हुई. यह समय टॉयलेट के बाहर लाइन लगाने, दांत मांजने के लिए पेस्ट-ब्रश तलाशने का था. मैंने अपना यह टाइम थोड़ा बदल दिया था. जब ज़्यादातर लोग फ़ारिग हो लेते थे, तब मैं सबसे ऊपर वाले माले पर बने टॉयलेट का इस्तेमाल आराम से कर लेता था. यह भाव मुझे हमेशा से ही असहज करता रहा है कि आप नित्य क्रिया भी हड़बड़ी और बाह्य दबावों और व्यवधानों के बीच करें। हालांकि मैं जानता हूँ कि सार्वजनिक स्थानों पर उपलब्ध सीमित जनसुविधाओं पर यह दबाव बहुत ज़्यादा होता है और देश की एक बड़ी आबादी दैनिक कर्म के लिए भी समुचित सुविधा और समय नहीं पाती. महिलाओं के मामले में तो ऐसी सुविधाओं की स्थिति बेहद चिंताजनक है. यह सुविधा हमारे गरिमामय ढंग से जीवन जीने के अधिकार का ज़रूरी हिस्सा हो सकती है लेकिन यह सब कहीं भी हमारे गंभीर विमर्श में शामिल नहीं है या फिर इस ओर हम अपेक्षाकृत बहुत ही सुस्त चाल से आगे बढ़ रहे हैं.
खैर रोज़ की तरह यह दिन भी खुला. थोड़ी देर चाय का सिलसिला चला फिर सबसे पहले हमारे साथ की महिलाओं ने तैयार होना शुरू किया. मिसेज गुप्ता की तौलिया उनके अपने ही सामान में कहीं गुम हो गई थी और वो ब्रिगेडियर साहब पर उखड़ी हुई थीं. अस्फुट स्वरों में उनके उलाहने हमारे कानों तक पहुँच रहे थे कि ‘इन्हें कोई भी काम ठीक से करना नहीं आता… सामान भी नहीं रखते सहेजकर… कल रात तौलिया लेकर बाहर गए थे… लाकर पता नहीं कहाँ रखा… क्या पता लाए भी न हों… वहीँ छोड़ आये हों. अब भला टॉयलेट कैसे जाएँ…’ लक्ष्मी जी उन्हें समझा रहीं थीं कि ‘यहीं कहीं होगा. मिल जायेगा.’
इस सबसे तटस्थ ब्रिगेडियर गुप्ता अपने मोबाइल में खोये हुए थे जैसे ऑनलाइन ‘सीरी’ से ग़ायब तौलिये का पता पूछ रहे हों. खैर मिसेज गुप्ता बिना तौलिये के ही बाहर गईं. उन्होंने शायद कुछ वैकल्पिक व्यवस्था कर ली थी. नागपाल जी मोबाइल पर ही किसी विद्वान का प्रवचन सुन रहे थे. वाधवा जी मिसेज वाधवा को कोमल स्वरों में जगाने की कोशिश में थे. आरडी सर ने ‘हे शिव!’ कहते हुए करवट बदली और मेरा हाल जानना चाहा.
मैंने कहा कि मुझे रात सिर दर्द नहीं था और नींद भी अच्छी आई थी. कमरे के बाहर चहल-पहल बढ़ गई थी. होटल में रुके हुए ज़्यादातर यात्रिओं को उम्मीद थी कि आज उन्हें यहाँ से आगे बढ़ने का मौक़ा ज़रूर मिलेगा. हमने महसूस किया था कि बीते दिन कुछ चेहरे होटल से कम भी हुए थे. वे शायद कैलाश यात्रा पूरी कर वापसी की राह पर थे और सिमीकोट से नेपालगंज जाने वाले जहाज़ पर उन्हें जगह मिल गई थी. हमें तो अभी आगे जा पाने की फ़िक्र थी.
ब्रिगेडियर गुप्ता इस बीच उठ गए थे. बाहर जाकर वो अपने और आरडी सर के लिए चाय ले आये थे. आरडी सर को चाय देने के बाद उन्होंने अपना बैग टटोला. अब जाकर शायद उन्हें ख़याल आया था कि मिसेज गुप्ता तौलिया ढूंढ रही थीं. उन्होंने जल्दी ही उस तौलिये को अपने बैग में खोज निकाला और भुनभुनाये ‘यहीं तो पड़ा है. अब देखना है नहीं, बस भुन-भुन करना है.’ हम उनकी इस मासूम अदा पर अपनी रजाइयों में दुबके हुए ही मुस्कुराए थे.
आखिरकार मैं भी उठा और ऊपरी माले की तरफ़ चल पड़ा. इस होटल में सीढियां भी लकड़ियों से बनाई गई थीं. वे काफ़ी संकरी और खड़ी थीं इसलिए चढ़ते-उतरते समय हर बार बड़ी सावधानी की मांग करती थीं. अगर कोई एक जन इन सीढ़ियों पर हो तो दूसरे को इंतज़ार करना पड़ता था. हम इसे भी आगे की यात्रा के लिए ट्रेनिंग मान रहे थे. थोड़ी देर में हम आठों तैयार थे और अब हमें नीचे जाकर नाश्ता करना था. हमने सामान इस उम्मीद में समेट लिया था कि आज तो यहाँ से आगे हिलसा के लिए निकलना लगभग तय है. नाश्ता भी जैसे-तैसे पूरा हुआ. चाय के रसिकों के लिए तो बाकी चीज़ों में कुछ ख़ास रहता नहीं लेकिन हमारे जैसे अल्पाहारियों के लिए खाने के मामले में भी मुश्किल दिनों की शुरुआत हो चुकी थी. मैं इस मामले में ‘क्रिटिकल गैप’ को पूरा करने के लिए पूरी तरह से अपने बैग में पड़े ड्राई फ्रूट्स, ख़जूर, चॉकलेट आदि पर अभी से निर्भर हो गया था. हम सबने नाश्ता ख़त्म किया. वाधवा जी ने तफ़सील से उस दिन के नाश्ते पर स्वाद और गुणवत्ता के पैमाने पर अपनी विशेषज्ञ राय रखी.
अब हम पूरी तरह यात्रा के अपने अगले पड़ाव के लिए तन-मन और वज़न से तैयार थे. वज़न से तैयार, मतलब हमारे पिट्ठू बैग और हमारे एयर बैग सब पैक हो चुके थे. हमारे इंतज़ार की घड़ियाँ जल्दी ही ख़त्म हुईं और मि.गुप्ता के मोबाइल पर मि.आर.ओझा का फ़ोन आ गया. हममें जैसे एक नई ऊर्जा का संचार हुआ और हम होटल एम.एस को वापसी में फिर मिलने का वादा कर सिमीकोट की हवाई पट्टी की तरफ़ कूच कर चले. हमारे बड़े बैग पीछे से वहां पहुँचने वाले थे. कुछ ही मिनटों में हम दुबारा उसी सुपरिचित हवाई पट्टी पर थे.