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‘कैलाश-कथा-15’ : डाॅ हरिओम IAS: नेपाल-चीन: कर्णाली नदी के दो छोर !

…..मान्यता है कि यहाँ पर भगवान शिव ने कभी समाधि लगाई थी. बौद्ध और जैन धर्म के अनुयायी महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी को भगवान् शिव का एक अवतार मानते हैं जबकि बोन धर्म तिब्बत में प्राचीन काल से निवास करने वाली जनजातियों का लोक-धर्म है जिनके अनुसार कैलाश पर्वत और मानसरोवर उनके जीवन का रक्षक है इसलिए उनकी स्थानीय उपासना पद्धतियों में इन्हें तीर्थ माना गया है. वैसे भी हमारी धार्मिक चेतना के विकास का इतिहास हमें बताता है कि मानवीय सभ्यता के प्रारंभ में हमारी आस्था के केंद्र में प्रकृति के विभिन्न रूप—धरती,आकाश,सूर्य,जल-जंगल और विभिन्न प्रकार के जीव-जंतु ही रहे हैं. शायद मानवीय अस्तित्व इन्हीं के संरक्षण, सहयोग और सानिध्य में पल-बढ़ रहा था. वैदिक युग में भी यही प्रकृति ही हमारी आस्था का केंद्र थी.

कैलाश मानसरोवर यात्रा

अगर आपको सनातन हिन्दू धर्म में आस्था है। अगर आपको पौराणिक मान्यताएँ आकर्षित और प्रेरित करती हैं। अगर आप प्रकृति के विराट विहंगम रूप का साक्षात्कार करने से रोमांचित होते हैं। अगर आप ज़िंदगी को रोज़मर्रा घटित होने वाले उपक्रम से कुछ अलग समझते हैं। अगर आप शारीरिक और मानसिक कष्ट झेलने की अपनी क्षमता का परीक्षण करना चाहते हैं। अगर आप आरामतलबी और अपने संकीर्ण जीवन से ऊब चुके हैं और धरती के सुदूर विस्तार में फैली ज़िंदगी को मापना, देखना और समझना चाहते हैं तो इनमें से कोई एक वजह आपको इस रोमांचकारी, कष्टकारी यात्रा पर ले जाने के लिए पर्याप्त है। मेरा विश्वास कीजिए कि जब आप वापस आएँगे तो जीवन-जगत और प्रकृति के प्रति आपका दृष्टिकोण काफ़ी समृद्ध हो चुका होगा

डा. हरिओम IAS

विलक्षण और बहुमुखी प्रतिभा के धनी संवेदनशील कवि – लेखक डॉ हरि ओम विभिन्न क्षेत्रों में पारंगत हैं। आप अच्छे गजल गायक होने के साथ ही बेहतरीन किस्सागो भी हैं जो श्रोता व पाठक को बांधने की कला को बेहतर जानता है। आप यूपी कैडर में वरिष्ठ आईएएस अफसर हैं। पिछले दिनों आपने कैलाश-मानसरोवर की यात्रा की। प्रस्तुत है इस दुर्गम यात्रा का श्रृंखलाबद्ध वृतांत एक अनूठी शैली में।

पिछले भाग से आगे……

हममें से अधिकांश लोग अपने-अपने कमरों से नीचे उतर आये थे. अब एक तरह से कैलाश-मानसरोवर यात्रा पर आगे जाने वाले सभी यात्री नेपाल-तिब्बत सीमा पर लगभग बारह हज़ार फुट ऊंचाई पर स्थित इसी टीन और पत्थर से बनी बस्ती में मौजूद थे जिसका नाम हिलसा था. यहाँ से अब हम सभी को चीनी नियत्रण वाली तिब्बत सीमा में प्रवेश करना था. हमारा अगला पड़ाव तिब्बत का शहर टकलाकोट होने वाला था. नीचे आने पर हमने देखा कि लम्पट स्वामी एंड कंपनी भी वहां पहुँच चुकी थी. हमारे बड़े समूह के सभी सदस्य और सिमीकोट में हमसे पहले हिलसा के लिए निकलने वाले समूह के तमाम सदस्य इधर-उधर टहलते पहचाने जा सकते थे. लम्पट स्वामी अपने हुलिए से भले हम सबका ध्यान अपनी ओर खींचते थे लेकिन ज़्यादातर वे ख़ामोश ही रहते थे और मुख़ातिब होने पर धीमे से मुस्कुराते थे जबकि उनके साथ रहने वाला एक साथी, जिसे सब मि.कोहली कह रहे थे, काफ़ी मुखर था. वह बातें तो ज़्यादा करता ही था, उस पूरे यात्री समूह से संवाद करने, वहां की व्यवस्था आदि देखने, आगे की यात्रा से जुड़ी सूचनाएं आदि पता करने में भी काफी तेज़ी दिखा रहा था. यात्रियों की इस भीड़ में एक और शख्स जिसने हमारा ध्यान अपनी तरफ़ खींचा था उसे सब गुप्ता-गुप्ता कह रहे थे. वह हमारे ही बड़े समूह का सदस्य था लेकिन हैरत की बात यह थी कि नेपालगंज से सिमीकोट के बीच उसकी प्रतिभाशाली उपस्थिति से हम लगभग अनभिज्ञ थे. वह भी काफी बातूनी लग रहा था. ख़ासकर पहाड़ी यात्रा और ट्रेकिंग के बारे में उसका अनुभव बेजोड़ है, ऐसा माहौल उसने हमारे बीच बना दिया था. तकरीबन पचास की उम्र, चेहरे पर खिचड़ी दाढ़ी. उसका पहनावा भी थोड़ा अलग था और उसके सिर पर हमेशा रखी रहने वाली इंग्लिश हैट उसे सबसे अलग करती थी. हममें से लगभग सभी ने किसी न किसी तरह की टोपी लगा रखी थी लेकिन जेम्स बांड स्टाइल हैट सिर्फ़ उसी शख्स ने लगाईं थी. कई लोग उसे डॉ.गुप्ता कहकर संबोधित कर रहे थे. अब हमारे बीच पहले से ही एक डॉ.गुप्ता थे जो इतने सरल, सौम्य और शांत थे कि इस डॉ.गुप्ता से उनका दूर तक कोई साम्य नहीं हो सकता था इसलिए हमने उसे अपने संबोधन में सिर्फ़ गुप्ता ही रहने दिया. मैंने और आरडी सर ने हिलसा का एक राउंड लिया. यह राउंड दस मिनट में ही ख़त्म हो गया. कर्णाली नदी पर हिलसा से तिब्बत को जोड़ने वाला एक लोहे का झूला पुल बना हुआ था. अगर आप इस पुल को पार कर तिब्बत या चीन की तरफ़ वाली सड़क पर घूमने नहीं निकलते या फिर चहल क़दमी करते हुए सौ मीटर दूर हेलिपैड की तरफ़ नहीं जाते तो पूरा हिलसा दस मिनट से भी कम समय में घूमकर फिर पेमा की सराय में आ जाएंगे. हम यह दस मिनट वाला चंक्कर लगाकर लौट ही रहे थे कि पता चला कि राम कुमार दहल उर्फ़ राम, जिसे हम शुरू-शुरू में राम ओझा ही समझते थे, ज़ोर की आवाज़ के साथ हम सबके पासपोर्ट बाँट रहा था. उसके साथ नेपाल सरकार का एमिग्रेशन सर्टिफिकेट भी था. इस बीच शायद काठमांडू से कोई हेली हमारे डाक्यूमेंट्स लेकर हिलसा आया था. राम के इर्द-गिर्द काफी भीड़ जमा थी. हम सबने आख़िर अपने-अपने कागज़ात लिए. हमारे बड़े समूह में पचास की जगह कुल सैतालिस यात्री हिलसा में थे. बाक़ी तीन किन्हीं वजहों से यात्रा पर नहीं आ सके थे. हमसे पहले पहुंचे साठ सदस्यों वाले समूह को भी उसके पासपोर्ट और नेपाली प्रमाणपत्र मिल गए. उस छोटी जगह में काफी हलचल हो गई थी. राम ने घोषणा की थी कि हम लोग अभी टकलाकोट के लिए निकलेंगे. साठ यात्रियों वाला समूह पहले निकलेगा. उसके लिए तिब्बत की तरफ़ से गाइड का इंतज़ाम हो गया है और जल्दी ही पुल पार कर यह समूह आगे बढ़ जाएगा. वह ग्रुप अपने सामान वगैरह समेट हमारे परिसर के बगल ही एक छोटे कमरे की खिड़की पर कतारबद्ध हो गया था. पता चला कि यही कमरा हिलसा स्थित नेपाली एमीग्रेशन का काउंटर है. यह इंतज़ाम मुझे बचपन के दिनों की किसी टूरिंग सिनेमा टाकीज़ के बाहर की टिकट खिड़की की याद दिला गया. अन्दर एक लड़का बैठा हुआ था जो क्रम से समूह के सदस्यों का नाम पुकार रहा था. लोग बारी-बारी से उसे अपना नेपाली काग़ज़ और पासपोर्ट देते थे और वह उन पर एक ठप्पा मारकर वापस कर देता था. इस ग्रुप के क्लियर होने के बाद हमारे ग्रुप का नंबर आने वाला था. इस काम में एक घंटा लगा होगा. यह ग्रुप काफी उत्साहित था. आख़िर हो भी क्यूँ नहीं. इस पर भोले बाबा की कृपा कुछ ज़्यादा ही थी इसलिए सिमीकोट से हिलसा पहुँचते ही इस ग्रुप को आगे टकलाकोट बढ़ने का मौक़ा मिल गया. यह पूरा ग्रुप देखते-देखते झूला पुल पार कर तिब्बत सीमा वाली सड़क पर जा पहुंचा. हम उन्हें ऐसे देख रहे थे जैसे वो अब किसी और देश के हो गए हों. कर्णाली नदी और उस झूला पुल ने उन्हें हमसे अलग कर दिया था. हम सब भी अपने पिट्ठू बैग के साथ तैयार थे. बिलकुल सैतालिस के सैतालिस. अपने क्रमानुसार एमीग्रेशन खिड़की के आगे कतारबद्ध. आगे के यात्रियों के कुछ पर्चे देखे जा रहे थे कि अचानक राम अवतरित हुए और उन्होंने घोषणा की कि हमारे समूह के लिए जो चीनी गाइड आने वाला था वह किसी वजह से अभी नहीं आ पाया है जबकि बस वगैरह का इंतज़ाम हो चुका है. ऐसे में हमारा ग्रुप शायद एक-दो घंटे बाद ही यहाँ से निकल पायेगा. अब हमारे पास सिवाय इस घोषणा पर विचार-विमर्श करने, चिंता व्यक्त और एक-दो घंटे बाद अगली सूचना का इंतज़ार करने के सिवाय कुछ और चारा न था. मि.कोहली ने ऊँचे स्वर में राम से मिली हुई इस सूचना को आधिकारिक बनाते हुए हमारे बड़े समूह के लिए प्रसारित किया जैसे किसी ने उसे यह ज़िम्मेदारी सौपी हो. मैंने यह महसूस किया है कि हमारे व्यक्तित्व के गुण एक लम्बे समय में विकसित होते हैं और हम विभिन्न अवसरों पर इन गुणों के मुताबिक़ ही परिस्थितियों और घटनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं. यह नेता टाइप के लोग भी बस समझो या तो पैदा होते हैं या कालांतर में विकसित गुणों की वजह से वैसे हो जाते हैं. जगह या हालात जैसे भी हों, ये अपनी भूमिका तलाश लेते हैं. ज़्यादातर लोग कमांड के इंतज़ार में रहते हैं. वे बस अनुयायी बनना चाहते हैं. इसमें उन्हें ज़्यादा सुरक्षबोध होता है. कुछ लोग तटस्थ रहते या होना चाहते हैं. कोहली में नेता बनने के गुण थे और इस दिशा में जो गुण सबसे ज़्यादा प्रासंगिक था वह था लगातार बोलने का गुण, सबके बीच में कूद पड़ने का गुण, लोगों को यह एहसास कराने का गुण कि उनकी हर समस्या का समाधान उसके पास है या कम से कम वह उस समाधान के लिए सक्रिय है. डॉ.गुप्ता को कहीं से टकलाकोट बैठे ओझा एंड कंपनी के प्रतिनिधि मि.अनिल ओझा का मोबाइल नंबर मिल गया था और वे उससे हमारे ग्रुप को अचानक आगे बढ़ने से रोके जाने के बारे में असली बात पता कर रहे थे. उसने भी यही बताया कि जल्दी ही चीनी गाइड मिल जाएगा और बसें कर्णाली नदी के दूसरी तरफ़ आ जाएँगी. मि.गुप्ता ने ख़ामोशी के साथ यह बात हमसे साझा की कि बहुत संभव है कि हम भी जल्दी ही उस बड़े ग्रुप के पीछे-पीछे टकलाकोट पहुँच जाएंगे.

फ़िलहाल यह ‘जल्दी ही’ कितनी देर बाद आएगा, इसका ठीक अनुमान किसी के पास नहीं था. यहाँ पर बस बाबा भोले की कृपा ही काम आनी थी. खैर अब हम कुछ घंटों के लिए ही सही फिर से हिलसा में थे. हम सब वापस अपने कमरे पर पहुंचे. करने को कुछ था नहीं. हिलसा का एक राउंड हम ले ही चुके थे लेकिन वक़्त तो काटना था इसलिए अपना बैग कमरे में ही छोड़ते हुए हम फिर नीचे आ गए. दोपहर अब ढलने लगी थी. दिन के दो या तीन के बीच का वक़्त रहा होगा. हम फिर से हिलसा का चक्कर काटने लगे. इधर-उधर गए. झुला पुल पर चढ़े, झूले खाते हुए कर्णाली की धार देखी. अपने दोनों तरफ़ के पहाड़ों को देर तक निहारा. पथरीले घरों से बातें कीं. सोचा यहाँ आखिर कैसे रह लेते हैं ये लोग. हम जिन बुनियादी सुविधाओं के बिना अपनी ज़िन्दगी में बेहद असहज हो उठते हैं उनकी अनुपस्थिति में भी हिलसा के लोग जिए जा रहे हैं. मुस्कुराते भी हैं. हम जहाँ ठहरे थे उसके सामने वाले रास्ते से थोडा अन्दर जाने पर ही एक तीर्थयात्री निवास के बाहर छोटी पूल टेबल पड़ी थी और कुछ लोकल लड़के उस पर हाथ आज़मा रहे थे. यह शायद समय काटने का कारगर नुस्खा था. पूछने पर पता चला कि यात्रियों को भी कुछ फीस लेकर वे इस खेल में शामिल करते हैं. मेरी इस खेल में कभी कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं रही. हमारे किसी साथी ने भी फ़ीस के बदले स्नूकार पर हाथ आज़माने की कोशिश नहीं की. हम टहलते रहे. इधर-उधर बेवजह. करते रहे ग़म-ए-जहाँ का हिसाब. यह भी अजीब सुख था जब फ़ोन ज़ेब में होने पर भी आप किसी से बात न कर सकें, या सोशल मीडिया पर अब-तब अपडेट न देख सकें. इन्टरनेट-शुदा मोबाइल फ़ोन आजकल हमें शादीशुदा जीवन से ज़्यादा व्यस्त होने का एहसास कराता है. बिना कुछ हासिल किये आप घंटों बिजी रह सकते हैं. दुनिया जहान की ख़बर ताड़ सकते हैं. जिस-तिस के पते खंगाल सकते हैं. वजह-बेवजह व्हाट्सअप पर संदेश या फ़ोटो भेज सकते हैं. मन पसंद लोगों की तस्वीरें निहार सकते हैं. आप फ़ोन पर ही इश्क़-ओ-वफ़ा की रिवायतें निभा सकते हैं और वहीं अलग भी हो सकते हैं. किसी को ब्लाक कर सकते हैं या किसी के द्वारा ब्लाक किये जा सकते हैं.

आभासी होते हुए भी यह कितनी मज़ेदार दुनिया है न. अब हम क्या करें, ये मज़ेदार दुनिया सिमीकोट पहुँचते ही हमसे छिन गई थी. ऐसे में हम उन दिनों की सोचकर हैरत में पड़ जाते हैं जब हमारे हाथ में बेसिक फ़ोन होते थे या हाथ में फ़ोन होते ही नहीं थे बल्कि घर के किसी कोने में एक चोंगा रखा रहता था और उसी के दम पर ज़िन्दगी का बाहरी संवाद चलता रहता था. या फिर वह चिट्टी-पत्री और टेलीग्राम का दौर जब संदेश और संवाद इंतज़ार की धीमी आंच पर धीरे-धीरे अपने आप पकते थे और देर तक पाने वाले के मन में अपना स्वाद छोड़ जाते थे. पहले स्मार्टनेस लोगों की ख़ूबी हुआ करती थी, अब यह मोबाइल फ़ोन की ख़ूबी होने लगी. ज़माना वाक़ई तरक्क़ी कर गया है. खैर अब ज़ेब में मोबाइल होते हुए भी वह वक़्त काटने में हमारी कुछ ख़ास मदद नहीं कर पा रहा था. कभी-कभार उसे निकालकर हिलसा की ज़िन्दगी और उस वीरानी की कुछ तस्वीरें हम ज़रूर खींच लेते थे लेकिन जल्दी ही इससे मन भर गया था. किसी तरह दो घंटा निकल गया लेकिन हमारे पास अभी भी ख़ाली वक़्त बहुत था. करने को जो कुछ था वह हम अपनी समझ से कर चुके थे. हमने कर्णाली नदी के उस पार तिब्बत सीमा में गए दूसरे ग्रुप के अपने साथियों को इस सुदूर किनारे से देखा. वे सब अभी भी वहीँ सड़क पर बैठे-खड़े थे. जाने क्यूँ उन्हें इतनी देर बाद भी अभी तक चीनी सीमा में आगे बढ़ने की इजाज़त नहीं मिल सकी थी. हमें माजरा कुछ समझ में नहीं आ रहा था. हमारे ग्रुप में यह बातें हो रही थीं कि चीन कैलाश-मानसरोवर यात्रा में अड़चने पैदा करता रहता है. किसी ने कहा कि चीन कम्युनिस्ट देश होने के नाते हिंदू तीर्थ-यात्रियों को हतोत्साहित करना चाहता है लेकिन हम अपनी आस्था से समझौता नहीं कर सकते.

मुझे ख़याल आया कि साम्यवाद या कम्युनिज्म तो राजनीतिक विचारधारा है, जबकि कैलाश-मानसरोवर यात्रा का संबंध तो हिन्दुओं की आस्था का प्रश्न है और आस्था का प्रश्न तो धार्मिक है. वैसे चीन बौद्ध धर्म का अनुयायी है. उसी बौद्ध धर्म का जिसका जन्म और विकास भारतवर्ष में ही हुआ था. इतिहास का एक दौर ऐसा था जब बौद्ध धर्म भारतवर्ष में काफी तेज़ी से लोकप्रिय हो रहा था. इसे राजसी संरक्षण भी मिल रहा था. इससे जुड़े हुए अनेक संस्थान, बुद्धजीवी और साहित्यकार सामने आ रहे थे लेकिन सनातन ब्राह्मण धर्म से वर्चस्व की जंग में बौद्ध धर्म पराजित हो गया. जिस धर्म की कमज़ोरियों के चलते बौद्ध धर्म का उद्भव और विकास भारतवर्ष में हुआ था उसी धर्म की आक्रामकता के चलते आज वही बौद्ध धर्म महात्मा बुद्ध की जन्मभूमि और कर्मभूमि से ग़ायब है. इस यात्रा पर आने से पहले हमने यह पढ़ रखा था कि पवित्र कैलाश-मानसरोवर की यात्रा हिंदू धर्म के साथ ही बौद्ध, जैन और बोन धर्म के अनुयायियों में भी काफ़ी ऊंचा स्थान रखती है. कैलाश पर्वत को भगवान शिव का घर कहा जाता है.

मान्यता है कि यहाँ पर भगवान शिव ने कभी समाधि लगाई थी. बौद्ध और जैन धर्म के अनुयायी महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी को भगवान् शिव का एक अवतार मानते हैं जबकि बोन धर्म तिब्बत में प्राचीन काल से निवास करने वाली जनजातियों का लोक-धर्म है जिनके अनुसार कैलाश पर्वत और मानसरोवर उनके जीवन का रक्षक है इसलिए उनकी स्थानीय उपासना पद्धतियों में इन्हें तीर्थ माना गया है. वैसे भी हमारी धार्मिक चेतना के विकास का इतिहास हमें बताता है कि मानवीय सभ्यता के प्रारंभ में हमारी आस्था के केंद्र में प्रकृति के विभिन्न रूप—धरती,आकाश,सूर्य,जल-जंगल और विभिन्न प्रकार के जीव-जंतु ही रहे हैं. शायद मानवीय अस्तित्व इन्हीं के संरक्षण, सहयोग और सानिध्य में पल-बढ़ रहा था. वैदिक युग में भी यही प्रकृति ही हमारी आस्था का केंद्र थी. अगर हम याद करें तो देखेंगे कि आज भी हवन-यज्ञ में समिधा अर्पित करते समय हम जिन मंत्रों का उच्चार करते हैं उनमें प्रकृति ही केंद्र में है—ॐ पृथ्वी शांतिः, वनस्पतयः शांति, आपः शांतिः इत्यादि. मनुष्य प्रकृति के सानिध्य के बिना अपना अस्तित्व नहीं बचा सकता शायद इसलिए उसने प्रकृति के विराट रूप को ही लम्बे समय तक अपनी आस्था का केंद्र बनाए रखा. आज भी नदियों, पर्वतों और धरती-आकाश की पूजा होती है लेकिन हमने इन्हें भी मानवीकृत कर अपने जैसा बनाने की कोशिश की है. उन्हें निराकार से साकार रूप देने की कोशिश की है. आस्था के केंद्र के रूप में देवी-देवताओं के उद्भव का सिलसिला तो काफी बाद का है.

मुझे लगता है शायद पुराणों ने इस दिशा में हमारी धार्मिक चेतना को मोड़ा. धीरे-धीरे सुविधानुसार देवी-देवताओं के अस्तित्व का विचार व्यापक जन-स्वीकृति पाता गया और हमारे धार्मिक अनुष्ठानों का दायरा बढ़ता चला गया. हमारी आस्था के अनगिनत केंद्र बनते चले गए. इससे मनुष्य और प्रकृति के संबंध बिगड़े और मनुष्य ने ख़ुद को प्रकृति का नियंता मानना शुरू किया.

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हिलसा की वीरानी और चाय की चुस्कियां 

अब देखिए हमारा मन कहाँ-कहाँ घूम आया था लेकिन हम दरसल, चंद क़दमों में एक छोर से दूसरे छोर तक ख़त्म हो जाने वाली, उस बस्ती हिलसा में ही मौजूद थे. इस बीच हम पेमा जी की सराय में कई बार गए. आरडी सर ने वरामदे में रखे कनस्तर से ग्लास में भरकर चाय पी. बाकी साथियों ने भी कुछ जलपान वगैरह किया. मैंने कुछ ख़जूर और काजू खाए. मेरे पास कच्चे आम वाली टॉफ़ी का ज़खीरा था जिसमें से एक टॉफ़ी अक्सर मेरे मुंह में होती थी बिना यह सोचे हुए कि ज़्यादा चीनी सेहत के लिए नुकसानदेह है. इस यात्रा पर आपको बिना थके, बिना ऊबे आगे बढ़ने की प्रतीक्षा करनी थी सो यह छोटे-छोटे सहारे बड़े काम आ रहे थे. टकलाकोट में बैठे अनिल ओझा के वादे के मुताबिक़ कुछ नहीं हुआ था. न तो शाम तक चीनी गाइड मिल पाया था और न ही हमारी बसें कर्णाली नदी के उस पार हमें ले जाने के लिए आकर ठहरीं थीं. एक ठहरा हुआ-सा निचाट हमारे आस-पास था और हमारे दिमाग में चंचलता भारी हुई थी. कबीर की वाणी में कहें
तो—चंचल चित्त चमंकिया बहुरि न आओ हट्ट.’ शाम उतरने लगी थी और हमें पता चला कि कर्णाली के उस पार लम्बे समय से चीनी सीमा में प्रवेश की बाट जोह रहे दूसरे ग्रुप को आखिरकार उनकी बसें लेकर टकलाकोट की तरफ़ कूच कर गईं.

 

डॉ गुप्ता ने अनिल ओझा को कई फ़ोन किए थे लेकिन कुछ भी निश्चित उत्तर नहीं मिल सका था. राम ने निर्णायक उत्तर दिया था कि चीनी सीमा सुरक्षा और कस्टम अधिकारियों ने उस दिन और यात्री लेने से मना कर दिया था. टकलाकोट में पहले से ही काफी यात्री इकठ्ठा थे और उनके क्लीयरेंस आदि में टाइम लग रहा था. राम हिलसा में फाइनल अथोरिटी था सो उसके इस जवाब के बाद अब यह तय हो गया था कि हमारा नंबर कल ही आएगा. हमें वह भारी शाम और ठंडी काली रात हिलसा में ही बितानी होगी. हम फिर पिछड़ गए थे. हमें यात्रा के पिछले पड़ाव—सिमीकोट में यह तजरबा हो चुका था इसलिए कुछ ख़ास दिमाग़ी दिक्कत नहीं हुई. इस यात्रा पर बाबा भोले की कृपा क़दम-क़दम पर चाहिए थी और हम आख़िर भोले बाबा के पास ही तो जा रहे थे. उस जगह, जहाँ धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, कभी बैठकर उन्होंने ध्यान लगाया था. अब हिलसा में ध्यान लगाने की बारी हमारी थी. हमने टकलाकोट से अपना ध्यान खींच हिलसा पर लगाया. न जाने कहाँ से ग़ालिब का एक शेर मेरे ज़हन में उभरा और मैं आरडी सर से मुख़ातिब था—‘ईमां मुझे रोके है तो खैंचे है मुझे कुफ्र. काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे.’ आरडी सर ने अपनी जादुई हंसी के साथ कहा था—‘अब यही हिलसा कल तक के लिए अपना काबा और कलीसा दोनों है भाई.’ डॉ गुप्ता, जो साथ ही चल रहे थे, इस पर मुस्कुराए थे. मि.वाधवा ने कहा कि ‘हमारी क़िस्मत में अभी पेमा जी का कुछ और नमक खाना लिखा है सर जी इसीलिए भोले बाबा ने आज हमें यहाँ रोक दिया है.’ इस पर मेरे मुंह से निकला कि पेमा जी के खाने में सिर्फ़ नमक ही काम का है भी. इस पर सब ठठाकर हंस पड़े. हमने शाम की शुरुआत अच्छे मूड से की थी.

 

हम सब वापस अपने दो कमरों में व्यवस्थित हो गए थे. हम आठ के बीच एक बाथरूम था इसलिए एक घंटा से ज़्यादा वक़्त सबको रात के भोजन से पहले बारी-बारी खुद को तैयार करने में लगा. अँधेरा होते ही कमरे में लगा छोटा दूधिया बल्ब जल गया था. इसी तरह के बल्ब दूसरे कमरों और बाहर गैलरी और नीचे वरामदे में भी लगे थे. यह बिजली शायद सोलर सपोर्ट सिस्टम यानी सौर्य ऊर्जा की मदद से आ रही थी. जनरेटर की आवाज़ हमें नहीं सुनाई दे रही थी और हिलसा में पारंपरिक बिजली पहुँचने का तंत्र—मतलब खम्भा-तार वगैरह हमें कहीं दिख नहीं रहा था. हिलसा हुम्ला ज़िले की सीमान्त बस्ती थी जो साल के कुछ ही महीने ठीक से आबाद रहती थी. सिमीकोट इसी हुम्ला ज़िले का मुख्यालय था. जब सिमीकोट खुद सड़क मार्ग या बिजली तंत्र से अब तक वंचित था तो फिर हिलसा की बात ही क्या करना! ताज्जुब की बात है कि नेपाल सरकार अभी तक इस इलाक़े को यह बुनियादी सुविधाएँ मुहैया नहीं करा पाई है. देश की माली हालात एक वजह हो सकती है। बेहद कठिन भौगोलिक परिस्थितियों में जीवन यापन करने वाली बहुत कम आबादी, जिसका देश के राजनीतिक परिदृश्य पर कोई निर्णायक प्रभाव न हो—यह दूसरी वजह हो सकती है. तिब्बत या चीनी सीमा से लगे होने के कारण चीनी वर्चस्व को बाधित करने की रणनीतिक समझदारी तीसरी वजह हो सकती है लेकिन देश के एक बड़े भूभाग को इस तरह जीवन की बुनियादी सुविधाओं से वंचित रखना हमें काफी हैरत में डाल रहा था. नेपालगंज से निकलने के बाद कैलाश यात्री साल के चार महीने इसी सिमीकोट-हिलसा रूट से आगे तिब्बत पहुँचते हैं और मुझे लगता है कि सिमीकोट की आमदनी का एक प्रमुख स्रोत और हिलसा की आमदनी का एकमात्र स्रोत यही धार्मिक पर्यटन है जिसके चलते इन जगहों पर लोग इस मौसमी धंधे के इंतज़ार में ज़िन्दगी बिताते हैं अन्यथा हिलसा में तो आबादी होने का कोई और कारण नहीं दीखता. हिलसा में कुछ पैदा नहीं हो सकता था. इसकी ऊंचाई लगभग तेरह-चौदह हज़ार फ़ीट के बीच थी. जंगली वनस्पतियाँ भी नहीं के बराबर थीं. कुछ बौने क़द की बदरंग झाड़ियाँ पत्थरों की छाती फाड़ उग आई थीं. पहाड़ वीरान और बंजर थे. सड़क न होने के कारण कोई नियमित आवागमन नहीं था. अतः कोई व्यापर-धंधा भी नहीं हो सकता था. इस जगह को बस हम जैसे कैलाश-मानसरोवर यात्रियों का ही सहारा था. एक अच्छी बात यह थी कि वंचित ज़मीन का यह टुकड़ा सदानीरा कर्णाली नदी के बिलकुल तट पर था जिससे हिलसा एक मौसमी बस्ती के रूप में विकसित हो सकी. बाद में पता चला कि नेपाल के सत्तर से भी ऊपर ज़िलों में यही हुम्ला एक ज़िला है जो अभी तक सड़क मार्ग से नहीं जुड़ पाया है शेष सभी जुड़े हुए हैं और संयोग देखिए कि हम हिन्दुस्तानी तीर्थ-यात्रियों को इसी रास्ते से कैलाश पहुंचना था.

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