हम ‘जय भोले’ कहते हुए सड़क मार्ग से नेपालगंज के लिए निकले। रास्ते में आरडी सर से लगातार साहित्य, शायरी और संगीत पर चर्चा होती रही थी। मेहदी हसन का ज़िक्र आने पर उन्होंने एक ऐसी ग़ज़ल का नाम लिया जो मुझसे तब तक अनसुनी रह गई थी।
कैलाश-मानसरोवर यात्रा
अगर आपको सनातन हिन्दू धर्म में आस्था है। अगर आपको पौराणिक मान्यताएँ आकर्षित और प्रेरित करती हैं। अगर आप प्रकृति के विराट विहंगम रूप का साक्षात्कार करने से रोमांचित होते हैं। अगर आप ज़िंदगी को रोज़मर्रा घटित होने वाले उपक्रम से कुछ अलग समझते हैं। अगर आप शारीरिक और मानसिक कष्ट झेलने की अपनी क्षमता का परीक्षण करना चाहते हैं। अगर आप आरामतलबी और अपने संकीर्ण जीवन से ऊब चुके हैं और धरती के सुदूर विस्तार में फैली ज़िंदगी को मापना, देखना और समझना चाहते हैं तो इनमें से कोई एक वजह आपको इस रोमांचकारी, कष्टकारी यात्रा पर ले जाने के लिए पर्याप्त है। मेरा विश्वास कीजिए कि जब आप वापस आएँगे तो जीवन-जगत और प्रकृति के प्रति आपका दृष्टिकोण काफ़ी समृद्ध हो चुका होगा।
कैलाश-कथा-2
डा0 हरिओम
विलक्षण और बहुमुखी प्रतिभा के धनी संवेदनशील कवि – लेखक डॉ हरि ओम विभिन्न क्षेत्रों में पारंगत हैं। आप अच्छे गजल गायक होने के साथ ही बेहतरीन किस्सागो भी हैं जो श्रोता व पाठक को बांधने की कला को बेहतर जानता है। आप यूपी कैडर में वरिष्ठ आईएएस अफसर हैं। पिछले दिनों आपने कैलाश-मानसरोवर की यात्रा की। प्रस्तुत है इस दुर्गम यात्रा का श्रृंखलाबद्ध वृतांत एक अनूठी शैली में।
खैर, कैलाश यात्रा की जिस खबर ने पिता समेत मेरे सभी मित्रों-रिश्तेदारों को प्रसन्न किया उसने मुझे भी एक रोमांचक यात्रा के अस्फुट अल्हाद से भरे रखा। बीच-बीच में मि. भटनागर का फोन आता रहा। वह जरूरी कागजी औपचारिकताएँ पूर्ण कराने के साथ यात्रा-व्यय की नियत राशि वसूलने के लिए अधिक प्रयासरत रहे। आरडी सर भी यात्रा की तैयारियों को लेकर बीच-बीच में मुझे फोन करते रहे। तब तक हमें यह पता नहीं था कि मिस्टर भटनागर लगभग पचास यात्रियों के एक समूह में हमें जोड़ने वाले हैं और उनका काम हमसे यात्रा का पूरा पैसा वसूलने के बाद दरसल खत्म होने वाला है।
यात्रा का परमिट दिल्ली स्थित चीनी दूतावास जारी करता है। उसके बाद फिर वीसा के लिए पासपोर्ट जमा करना होता है। हमें लगा कि जैसे बाकी देश आपको अपनी सीमा में आने का वीसा पासपोर्ट पर चिपकाते हैं, उसी तरह यहाँ भी होगा लेकिन काफी बाद में पता चला कि समूह-परमिट की तरह वीसा भी समूह को ही जारी होता है। इस समूह में सामान्यतः 50 या अधिक तीर्थयात्री होते हैं। हमारे समूह में कुछ 47 यात्री थे।
भटनागर ने 12जून को परमिट हमें फोन पर भेजा और कहा कि आप लोग 14 जून को यात्रा पर निकल पड़िये। आपका पासपोर्ट और वीसा आपको रास्ते में मिल जायेगा। हमें यह अनुमान हो रहा था कि इतनी जल्दी वीसा नहीं मिलेगा। जब तक वीसा नहीं मिलता तब तक पासपोर्ट हम तक कैसे पहुँचेगा और अगर वीसा-पासपोर्ट नहीं मिला तो हम चीनी सीमा में प्रवेश कैसे करेंगे?
खैर, आरडी सर और हमने मि.भटनागर को साफ किया कि बिना वीसा मिलें हम यात्रा पर नहीं निकलेंगे। मजबूरन भटनागर को हमारी यात्रा तीन दिन आगे बढ़ानी पड़ी। इस बीच मैंने यात्रा की तैयारी में भारी-भरकम ट्रेकिंग के जूते और छड़ी खरीदी। धूप-चश्मा, दस्ताने, कंटोप, जैकेट आदि पहले से मेरे पास था।
मि.भटनागर ने भी यात्रा के दौरान ज़रूरी सामानों की एक लिस्ट हमें भेजी थी जिसमें सर्दी के कपड़े, दवाएं, धूप से त्वचा को बचाने वाली क्रीम, थर्मस, खाने-पीने की चीज़ों आदि का उल्लेख था। उस लिस्ट से भी हमने अपनी तैयारी का मिलान कर लिया था। अब कैलाश यात्रा के लिए हम हर तरह से तैयार थे।
हम 17 जून को लखनऊ से पूरी तैयारी के साथ ‘जय भोले’ कहते हुए सड़क मार्ग से नेपालगंज के लिए निकले। गाड़ी पर मैं, आरडी सर, डा0 गुप्ता और उनकी पत्नी थीं। लखनऊ से लगभग चार घंटे की यात्रा करके हम उ0प्र0 के बहराइच जिले की सीमा पार कर नेपाल देश की सीमा पर आ गये थे। रास्ते में आरडी सर से लगातार साहित्य, शायरी और संगीत पर चर्चा होती रही थी। मेहदी हसन का ज़िक्र आने पर उन्होंने एक ऐसी ग़ज़ल का नाम लिया जो मुझसे तब तक अनसुनी रह गई थी-
‘मैं होश में था तो फिर उसपे मर गया कैसे
ये ज़हर मेरे लहू में उतर गया कैसे?’
मुझे हैरानी हुई कि आरडी सर ने मेहदी हसन जैसे फ़नकार को कितने गहरे में सुना-समझा है। उनकी सूफ़ी संगीत-क़व्वाली में भी ख़ासी पहुँच थी। उनकी पसंद से ही मैंने अपने मोबाइल पर ही मेहदी हसन की यह ग़ज़ल और कबीर की रचना ‘मैं क्या जानू राम तेरा गोरखधंधा?’ जिसे तमाम मशहूर कव्वालों ने गाया है—बजाया है।
सड़क इतनी अच्छी थी, हमसफ़र इतने सरस कि चार घंटे कब बीत गए पता ही नहीं चला। मिसेज गुप्ता गाड़ी में खामोश पीछे बैठी हुई थीं। हमें बाद में पता चला था कि वह काफी ठीकठाक बोलती हैं। हमने थोड़ा वक़्त बहराइच के गेस्ट हाउस में भी बिताया था। हमारे पास पहले ही लम्बी यात्रा के लिए ज़रूरी खाने-पीने का सामान था। बहराइच से चलते समय हमारे हिस्से कुछ और रसद सामग्री आ गई जिसका सदुपयोग हमने अगले कई रोज़ तक किया।
नेपाल सीमा पर एक साधारण बैरियर लगा हुआ था। गाड़ी के ड्राईवर को नेपाल में प्रवेश की औपचारिकतायें पता थीं। उसने गाड़ी एक किनारे लगाई और एक फटेहाल कमरे की तरफ बढ़ गया। मालूम हुआ कि वह नेपाल का एमिग्रेशन कक्ष था, जहाँ से नेपाली सीमा में जाने के लिए ज़रूरी परमिट बनता था। मुझे ताज्जुब हुआ! हम एक देश से दूसरे देश में जाने वाले थे लेकिन दोनों तरफ़ सीमाओं पर इस बात का कहीं कोई संकेत नहीं मिल रहा था। बस बैरियर पर खड़े हुए कर्मियों की वर्दी और उनका हुलिया ही थोड़ा नया लगा था। कितना अच्छा हो अगर बाकी देशों की सीमाओं में भी आना-जाना इतना आसान हो!
उधर हमारा ड्राईवर कुछ कागज़ पर्ची लेकर उस बदहाल कमरे में गया और इधर हम गाड़ी से बाहर निकल आये थे। बाहर बहुत धूप और उमस थी। थोड़ी देर में ही हम नेपाली सीमा में दाख़िल हो चुके थे। यह नेपाल का एक क़स्बा था। पुराना-सा दिखने वाला क़स्बा –नेपालगंज. कुछेक हजार की आबादी। यहाँ पहुचते ही हमारी निगाहों में एक ख़ालीपन था। हम अपनी सड़कों पर इतना ट्रेफिक, किनारों पर इतनी दूकानें और आस-पास इतनी भीड़ देखने के आदी हैं कि नेपालगंज काफ़ी वीरान-सा लगा।
अब यहाँ उतने लोग भला कैसे आते जितने हमारे यहाँ हर तरफ़ बेवजह-बेकाम दिख जाते हैं. यहाँ हम ‘सिगनेट होटल’ में रुके। लखनऊ से हमारे साथ मि0 भटनागर भी नेपालगंज चल रहे थे। पता चला था कि एक दूसरी गाड़ी में उनके साथ चार अन्य कैलाश यात्री भी हैं। इस तरह लखनऊ से नेपालगंज पहुँचने वाला हमारा समूह आठ का हो जाता है।
अब हम नेपालगंज के होटल सिगनेट में थे। होटल में गहमा-गहमी थी। यह नेपालगंज का सबसे अच्छा होटल जान पड़ता था, जिसके व्यवसाय की धुरी हम जैसे कैलाश-यात्रियों पर टिकी थी। हमें पूरी यात्रा के लिए एक तय धनराशि अपने एजेंट को देनी थी जिसमें रास्ते का खाना-पीना, रिहाइश, यातायात आदि सबकुछ शामिल था। अतः हमें इस होटल में एक कमरा मिल गया। यहाँ हमारे जैसे तमाम कैलाश-यात्री थे। कई हमारी तरह आगे जाने वाले और कई यात्रा पूरी कर लौटने वाले।
मि0 भटनागर को मैंने गौर से यहीं देखा। दुबला-पतला, जरूरत से ज्यादा मीठा बोलने की कोशिश करता हुआ एक शख्स। हमारी हर शंका का जवाब,‘‘बाबा भोले जैसा चाहें’’ कह कर देने वाला। वह बात-बात में ‘सर! डोन्ट वरी। लीव इट ऑन भोले बाबा। आई जस्ट नीड योर कोऑपरेशन’ कहते थे।
मि. भटनागर अपनी बातचीत में हर बार यह संकेत देते थे कि इस यात्रा में कुछ भी पहले से तय नहीं हो सकता।आना-जाना, ठहरना, खाना-पीना सब बाबा भोले और मौसम के भरोसे ही रहेगा। हालाँकि उन्होंने अपनी तरफ से हमारी सुविधा का पूरा ख़याल रखा है। कई बार मन किया कि उनसे पूछूं कि जब सब बाबा भोले ही करेंगे तो वो किसलिए ज़हमत उठाकर यहाँ तक आये हैं? लेकिन फिर उसका जवाब भी मुझे खुद ही मिल जाता। हमें अभी भी मि. भटनागर को बचे हुए पैसे देने थे और बाबा भोले ने उन्हें हमसे वो पैसे उसूलने को कहा था। तभी वो दिल्ली से चलकर यहाँ नेपालगंज तक आए हैं।
हम भी कितने मासूम थे। हमें लगा था कि यात्रा पैकेज के कुछ पैसे रोके रहने से यात्रा के दौरान खाना ,ठहरना, यातायात जैसी चीज़ों में हमारे हिसाब से भी कुछ हो सकेगा। हमें मालूम नहीं था कि इसमें मि. भटनागर खुद चाहकर भी कोई तब्दीली नहीं कर सकते थे। वह सिर्फ एक जरिया थे हमें इस यात्रा पर भेजने के लिए यात्रा के दौरान होने वाले इंतज़ामों में उनका दखल न के बराबर था।
क्रमशः