यहाँ पहली बार हमें तारा, सीता, श्री और शौर्य एयरलाइन्स जैसे नाम देखने को मिले। यह छोटे-छोटे एयरक्राफट चलाने वाली एयर लाइन्स के नाम थे जिनमें दस से लेकर बीस यात्री तक एक बार में बैठ सकते थे। इस बीच वक्त काटने और गरमी का सामना करने के लिए हमने कुछ दही, कोल्ड डिंक्स के केन ख़ाली किये और कुछ टाफियों का रसास्वादन किया।
कैलाश-मानसरोवर यात्रा
अगर आपको सनातन हिन्दू धर्म में आस्था है। अगर आपको पौराणिक मान्यताएँ आकर्षित और प्रेरित करती हैं। अगर आप प्रकृति के विराट विहंगम रूप का साक्षात्कार करने से रोमांचित होते हैं। अगर आप ज़िंदगी को रोज़मर्रा घटित होने वाले उपक्रम से कुछ अलग समझते हैं। अगर आप शारीरिक और मानसिक कष्ट झेलने की अपनी क्षमता का परीक्षण करना चाहते हैं। अगर आप आरामतलबी और अपने संकीर्ण जीवन से ऊब चुके हैं और धरती के सुदूर विस्तार में फैली ज़िंदगी को मापना, देखना और समझना चाहते हैं तो इनमें से कोई एक वजह आपको इस रोमांचकारी, कष्टकारी यात्रा पर ले जाने के लिए पर्याप्त है। मेरा विश्वास कीजिए कि जब आप वापस आएँगे तो जीवन-जगत और प्रकृति के प्रति आपका दृष्टिकोण काफ़ी समृद्ध हो चुका होगा।
कैलाश-कथा-4
डा0 हरिओम
विलक्षण और बहुमुखी प्रतिभा के धनी संवेदनशील कवि – लेखक डॉ हरि ओम विभिन्न क्षेत्रों में पारंगत हैं। आप अच्छे गजल गायक होने के साथ ही बेहतरीन किस्सागो भी हैं जो श्रोता व पाठक को बांधने की कला को बेहतर जानता है। आप यूपी कैडर में वरिष्ठ आईएएस अफसर हैं। पिछले दिनों आपने कैलाश-मानसरोवर की यात्रा की। प्रस्तुत है इस दुर्गम यात्रा का श्रृंखलाबद्ध वृतांत एक अनूठी शैली में।
नेपालगंज एयरपोर्ट एक लम्बे पतले बरामदे की शक्ल में था। इसमें अन्दर जाने के लिए किसी टिकट-पास की व्यवस्था नहीं थी। कोई सुरक्षा भी मुख्य द्वार पर नहीं थी। कुछ कर्मी ज़रूर वर्दी में इधर उधर दिख रहे थे लेकिन उनका काम शायद यात्रियों को एयरपोर्ट के अन्दर जाने से रोकना-टोकना नहीं था।
मैंने अपने जीवन में पहला एयरपोर्ट ऐसा देखा जहाँ पर बिजली नहीं थी। अन्दर जगह कम थी और यात्रियों के कई जत्थे इधर-उधर हो रहे थे जिससे यह जगह किसी स्कूल के वरामदे की तरह लग रही थी, जहाँ अचानक सभी कक्षा के बच्चे एक साथ उमड़ आए हों। सामने छोटे-छोटे कई काउन्टर्स बने हुए थे जिन पर बैठे कर्मचारियों की कुछ सक्रियता दिख रही थी।
पहले हमारा बड़ा बैग तौला गया फिर पिट्ठू बैग कई लोगों के एक साथ तुले। हमारे सामानों की स्क्रीनिंग का कोई इंतज़ाम वहां भले नहीं था लेकिन उसका वजन देखने की सावधानी बड़ी सतर्कता से बरती गई थी। मैंने अनुमान लगाया था कि यह छोटे विमानों की भार ढोने की सीमित क्षमता के मद्देनज़र रहा होगा।
मि. भटनागर वहाँ के कुछ स्थानीय सहयोगियों से बात कर रहे थे जो आगे की यात्रा के लिए ज़रूरी औपचारिकताओं को पूरा करने में हमारे समूह की मदद कर रहे थे। बिजली न होने की वजह से छत पर टँगे हुए सभी पंखे भी अविचल थे। ऐसे में वातानुकूलित विमान पत्तनों के बारे में सोचना बहुत विलासी होना होता, सो हम वहीँ उसी देश-काल में रमे रहे।
गर्मी बढ़ रही थी। भीड़ की वजह से बरामदे में बैठना मुश्किल और बाहर निकलते ही चटख धूप आपका स्वागत कर रही थी। दीवालों पर आस-पास न थूकने, कचरा न फेंकने आदि की हिदायतें नेपाली भाषा में दर्ज थीं,--‘पान गुट्खा खाएर जथाभावि नथुकनु होला….’ आरडी सर बार-बार नेपाली भाषा में संस्कृत की झलक देख रहे थे। उनके अनुसार नेपाल की भाषा-संस्कृति, धर्म आदि पर भारतीय प्रभाव सघन है। मेरे मन में अचानक यह सवाल कौंधा था कि अगर यह प्रभाव इतना ही सघन है तो फिर नेपाल की सियासत में साम्यवादी विचारधारा इतनी सशक्त क्यूँ है? खैर इसपर विमर्श का अवसर उस वक़्त नहीं था। आरडी सर खुद इस पर हैरानी जता चुके थे।
यहाँ पहली बार हमें तारा, सीता, श्री और शौर्य एयरलाइन्स जैसे नाम देखने को मिले। यह छोटे-छोटे एयरक्राफट चलाने वाली एयर लाइन्स के नाम थे जिनमें दस से लेकर बीस यात्री तक एक बार में बैठ सकते थे। इस बीच वक्त काटने और गरमी का सामना करने के लिए हमने कुछ दही, कोल्ड डिंक्स के केन ख़ाली किये और कुछ टाफियों का रसास्वादन किया। देखकर आश्चर्य हुआ कि नेपाल में भी अमूल की सादी-मीठी दही बिक रही थी। ग्रुप के सभी सदस्य घूम-घूम कर इधर-उधर इसके-जिसके-तिसके साथ फोटो खींचते रहे।
हाथ में स्मार्ट फ़ोन होने की वजह से आजकल हर कोई फोटोग्राफर है। समझ में नहीं आता कि खुद को ही हज़ार बार देखकर क्या हासिल होता है? यह भी एक किस्म की आत्म-मुग्धता ही है। बच्चा हो, बड़ा हो, जवान हो बूढ़ा हो, सुडौल-बेडौल, सूरत-बेसूरत सब खुद में खोये हुए… ख़ुद को आड़े-टेढ़े-मेढ़े कोण से निहारते ज़िन्दगी का मज़ा लेते हुए। जो वर्तमान है उसे अतीत के हवाले करके बाद में उसका आनंद लेने की कला है यह स्मार्ट फोटोग्राफी। मुझे लगता है कि आत्म-मुग्धता ने ही हर क्षेत्र में हमें आत्म-निर्भरता की और धकेला। यह ‘सेल्फी सिंड्रोम’ भी वही है।
इकबाल का मशहूर शेर, ’ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले, ख़ुदा बन्दे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है’ आजकल हमें ‘सेल्फी-सिंड्रोम’ में सही साबित होता दीखता है। हर कोई ‘ख़ुदी’ को बुलंद करने में लगा हुआ है। मैं सोचता हूँ कि ये बड़े-बड़े फोटोग्राफर कभी अपनी फोटो क्यूँ नहीं खींचते? वह जीवन और प्रकृति के वैविध्य और विराट का सौन्दर्य पकड़ने को बेचैन फिरते हैं। लेकिन अब हम सभी से तो इस कलात्मक स्तरीयता की उम्मीद नहीं कर सकते न। तो ख़ुद्दारी प्रदर्शित करने के लिए सेल्फी ही सही!
इस बीच मि.भटनागर ‘यह गया, वह गया’ वाले अंदाज़ में खासा व्यस्त दिखे। इस यात्रा में अपनी भूमिका के महत्त्व और अपने मेहनताने को सही साबित करने का उनके पास यह आख़िरी अवसर था। खैर, किसी तरह वक्त कटा। एकाध घंटे की क़वायद के बाद भटनागर उपस्थित हुए और उन्होंने हमें प्रसन्न मुख एक-एक हरे रंग का कार्ड थमाया। यह सिमिकोट यात्रा के लिए हमारा बोर्डिग पास था।
उनके मुख पर विजयी चमक भी थी। उनके अनुसार उन्होंने काफी कोशिश करके सबसे पहले उड़ने वाली फ्लाइट में हम आठों यात्रियों को जगह दिलाई थी। इससे इस यात्रा के सन्दर्भ में हमारे सामने एक और रहस्य खुला कि यहाँ आपके ऑपरेटर का नेटवर्क और उसका अतिरिक्त प्रयास आपकी यात्रा के कष्ट को थोड़ा कम कर सकता है और उसकी तरफ से जानबूझकर की गई शिथिलता आपके कष्ट बढ़ा सकती है। बस इतना ही उसके हाथ में है। हम भटनागर और ओझा से अपनी यात्रा को आरामदायक बनाने को लेकर पहले काफ़ी उम्मीद बांधे थे। आगे, धीरे-धीरे यह उम्मीद ख़त्म होती गई थी।
बहरहाल हरे रंग का यह बोर्डिंग पास भी निराला था। इस पर हमारा नाम आदि नहीं था लेकिन फ्लाइट नंबर, यात्रा की तिथि 18 जून और गंतव्य स्थल एसएमके ज़रूर लिखा हुआ था। यह सीता एयर लाइन्स का जहाज था। अब हम जहाज की तरफ बढ़ चले जो वरामदे के पीछे की तरफ़ खुलने वाले एक दरवाजे से भीतर हवाई पट्टी पर घुसते ही सामने खड़ा दिखा। ऐसा नायाब एयरपोर्ट, बोर्डिग की ऐसी सुगम व्यवस्था, जहाज तक इतनी आसानी से पहॅुचने का अनुभव-सब कुछ हमारे लिए बिल्कुल नया-नया था।
अब हम सिमीकोट जाने वाले जहाज पर थे। यह अठारह सीट वाला जहाज़ था. यात्रियों के बैठने के बाद बमुश्किल उसके अन्दर कोई जगह बच रही थी। हमने पहली बार अपने सहयात्रियों पर एक ज़रा गहरी नज़र डाली थी। हमें मालूम था कि इन्हीं चेहरों को हमें अगले कई रोज़ बार-बार देखना होगा। हमने कोशिश की कि उनके नाम भी हम सुन-याद कर सकें। जहाज में दो पायलट के अलावा बीस-एक साल की एक सीधी सरल दिखने वाली नेपाली लड़की भी थी जो हमारी होस्ट थी। उसने कुछ टाफियों से भरा एक छोटा कटोरा हम सब के सामने घुमाया। मैनें भी कुछ टाफियां उठा लीं। यह काफी सस्ते दामों वाली मीठी टाफियां थीं पर मुझे हवाई सफ़र के वो शुरूआती दिन याद आ गए थे जब जहाज़ में बैठते ही इन टाफियों का इंतज़ार होता था। ख़ासकर इमली के छोटे-छोटे दो गोलों वाली टाफियों का जो ज़बान पर चटपटा स्वाद रख देतीं थीं। हमारे यहाँ अब इंडियन एयरलाइन्स के विमानों में ही यह टाफियां मिलती हैं। बाकी दूसरी कंपनी के जहाज़ तो इसी जुगत में रहते हैं कि जहाज़ के टिकट की क़ीमत के अलावा और कितना पैसा वो हमारी जेब से निकाल सकते हैं। हालत यह है कि अब ऑनलाइन बुकिंग करने वालों को सिर्फ़ बीच कतार वाली सीटें ही मिलती हैं। अब अगर आपको किनारे या खिड़की वाली सीट चाहिए तो भाई आप अपनी जेब और ढीली करिए। अग्रिम पंक्ति की सीट तो आप भूल ही जाइये।
यह अच्छी बात थी कि इस छोटे जहाज़ में ऐसी कोई शर्त नहीं थी। आप जहाँ चाहें बैठ सकते थे और ऊपर से मुफ्त की टाफियां भी हमें मिलीं। एक टाफी मैंने खा भी ली थी। हमारे आगे वाली सीटों पर तीन आदमियों का एक अन्तरंग ग्रुप था। उनकी बातचीत से पता चला कि वे चंडीगढ़ से थे। इनमें से एक आदमी काफी वाचाल था। बेबात बोलता-हॅसता, चुहल करता। एक काफी शान्त लेकिन हर बात पर प्रतिक्रिया देने वाला। तीसरा व्यक्ति अपने फक्कड़ अंदाज़ वाले हुलिए की वजह से अनोखा था। बड़ी दाढ़ी, लगभग चाँद सरीखे सर पर एक साफा जैसा, बदन पर मुनीमी बनियान-गेरूए रंग से रंगी। नीचे पैरों में थर्मल पैजामी और उसके ऊपर पीला जांघिया जैसा कुछ। अजब परिधान, गजब व्यक्तित्व।
एयर होस्टेस के गुजर जाने पर इनमें से वाचाल व्यक्ति ने कुछ शरारती चुटकी ली। बाकी दोनों ने सस्ती हंसी से उसका समर्थन किया। मेरे मुंह से अचानक निकला ‘जय हो लंपट स्वामी जी। यहाँ भी बाज नहीं आ रहे।‘ मेरी अगली ही सीट पर बैठे हुए आरडी सर मुस्कराए। हम अब हवा में ऊपर थे बादलों के बीच, और हमारे सामने बैठे यात्रियों में से एक नाम मुझे याद हो गया था—लंपट स्वामी। थोड़ी देर में जहाज कुछ ठंडा हुआ और हमें गर्मी से कुछ राहत मिली। जहाज़ जितनी तेज़ी के साथ हवा में तैर रहा था उतनी ही तेज़ी के साथ नेपालगंज और उसके आसपास का कस्बाई मंज़र हमारी आँखों से ओझल होता जा रहा था। पहले खेत के कुछ मैदान हमें नीचे दिखे लेकिन उसके बाद बीहड़-वीरान पहाड़ी धरती हमारे नीचे फ़ैल गई। कुछ मिनट हवा में उड़ने के बाद हमने बाहरी नज़ारों के कुछ फोटो खीचें, बादलों के बीच कुछ हिंचकोले खाए, बीच-बीच में सहयात्रियों से भोले की जयकार और आरडी सर से कुछ नीति-वचन सुने. लगभग चालीस मिनट बाद हमारा विमान हरे-भरे पहाड़ों से घिरी एक घाटी में बने छोटे से एयर स्ट्रिप पर उतर रहा था। इसी हवाई पट्टी का एक छोटा हिस्सा ऐसा था जिस पर एक हेलीकाप्टर भी खड़ा था। विमान रुका और हम भी उत्सुकता के साथ अपना भारी जैकेट पहन विमान से बाहर निकल आए।
बाहर ठीक-ठाक सर्दी थी। मैंने मन में सोचा चलो कम से कम पीछे की उमस और गर्मी से तो अब कुछ दिनों के लिए मुक्ति मिली लेकिन कहाँ पता था कि दूसरी तमाम तकलीफ़ें हमारी राह तक रही थीं। हम सभी यात्री विमान से बाहर निकलकर एक तरफ खड़े हो रहे थे। हमें अपने-अपने बड़े बैग भी लेने थे जो जहाज़ से निकाले जा रहे थे। इस बीच आसमान में एक हेलिकॉप्टर मंडराया। मैंने गौर किया कि आगे जाने के लिए कई यात्री अपने सामान के साथ तत्पर दिखे। हेलीकॉप्टर नीचे आकर ठहर गया था। बाकी यात्रियों के साथ उसमें से एक शव भी श्वेतपट में लिपटा हुआ उतारा गया। इसकी कल्पना किसी ने भी नहीं की थी कि यात्रा के दौरान यह दृश्य भी दिखाई देगा. हमने कैलाश-मानसरोवर यात्रा में होने वाली शारीरिक-मानसिक कठिनाइयों का ज़िक्र सुन रखा था लेकिन यह प्राणान्तक भी हो सकता है, इसका ख़याल तक न आया था। किसी ने कहा कि यह एक वृद्धा श्रद्धालु का शव है जो ह्रदय-गति रुक जाने से स्वर्ग सिधार गई। मेरे मन में विचार आया कि उन्हें इस हालत में ऐसी कठिन यात्रा पर नहीं जाना चाहिए था। तभी मेरे पीछे खड़े एक श्रद्धालु ने लम्बी सांस खींचते हुए कहाँ ‘ऐसी मृत्यु कितनी अच्छी है. माता जी को मोक्ष मिल गया।’
मैंने पलटकर देखा उन्हें। उनके चहरे पर एक परम आश्वस्त आस्थावान श्रद्धालु की आभा थी। मैंने सोचा ‘कैसी अविचल है यह आस्था भी जो कुछ न जानते हुए भी सबकुछ जानने का तर्क रखती है। मृत्यु के बाद कौन कहाँ जायेगा यह हम जैसे लोगों के लिए भले ही सृष्टि का एक गूढ़ रहस्य हो, विज्ञान भले ही मृत्यु के रहस्य को समझने के लिए रात-दिन एक किये पड़ा हो लेकिन आस्थावान मानस के लिए यह एक खुला रहस्य है।’ संत कबीर तक ने इसके लिए तर्क दिया था कि ‘जो कबिरा काशी मरे तो रामै कौन निहोरा’ लेकिन हमारे पीछे खड़े हुए श्रद्धालु के मन और चहरे पर कैसी आश्वस्ति थी! धर्म का अपना तर्क होता है और उस तर्क की अपनी असीमित शक्ति होती है। प्रेम के रीतिकालीन कवि घनानंद ने जो प्रेम के बारे में कभी लिखा था कि- ‘अति सूधो सनेह को मारग है, यहाँ नैकु सयानप बांक नहीं…’ यह धार्मिक आस्था पर भी सटीक लागू होता है। आस्था दरअसल शंका और तर्क से परे होती है। यहाँ चिंतन और वैचारिकी का पूर्णतः समर्पण है। शायद तभी आस्थावान भक्त अपने लोक-परलोक की चिंता में असहनीय कष्ट भी ख़ुशी-ख़ुशी सह लेता है।
चूँकि उसके पाप-पुण्य का लेखा-जोखा जन्म-जन्मान्तर के कर्मों के हिसाब-किताब पर टिका होता है, इसलिए सामान्यतः मरने के बाद वह स्वर्ग ही जायेगा, यह कहना निश्चित नहीं होता लेकिन फिर भी ऐसा माना जाता है कि काशी, कैलाश जैसे अपार दैवीय महिमा वाले तीर्थ-स्थलों पर मिली मृत्यु हमारे पूर्व जन्मों के पाप भी नष्ट कर देती है और हमारे पुण्य का लेखा भारी पड़ जाता है! फलतः ऐसा मृतक अवश्य ही स्वर्गवासी होता है। अब यह मान्यता है तो है, इस पर सवाल करने वालों की मासूमियत पर भला आस्थावान लोग क्या कहें!!!
क्रमशः