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‘कैलाश-कथा-5’ : हरिओम IAS

…..कान हमेशा ढककर रखिये, कुछ-कुछ खाते रहिये, सिर्फ गरम पानी पीजिये, आगे हिलसा में कुछ भी नहीं है, टॉयलेट भी नहीं मिलेगा…!!!

कैलाश-मानसरोवर यात्रा 

अगर आपको सनातन हिन्दू धर्म में आस्था है। अगर आपको पौराणिक मान्यताएँ आकर्षित और प्रेरित करती हैं। अगर आप प्रकृति के विराट विहंगम रूप का साक्षात्कार करने से रोमांचित होते हैं। अगर आप ज़िंदगी को रोज़मर्रा घटित होने वाले उपक्रम से कुछ अलग समझते हैं। अगर आप शारीरिक और मानसिक कष्ट झेलने की अपनी क्षमता का परीक्षण करना चाहते हैं। अगर आप आरामतलबी और अपने संकीर्ण जीवन से ऊब चुके हैं और धरती के सुदूर विस्तार में फैली ज़िंदगी को मापना, देखना और समझना चाहते हैं तो इनमें से कोई एक वजह आपको इस रोमांचकारी, कष्टकारी यात्रा पर ले जाने के लिए पर्याप्त है। मेरा विश्वास कीजिए कि जब आप वापस आएँगे तो जीवन-जगत और प्रकृति के प्रति आपका दृष्टिकोण काफ़ी समृद्ध हो चुका होगा।

कैलाश-कथा-5

डा0 हरिओम

विलक्षण और बहुमुखी प्रतिभा के धनी संवेदनशील कवि – लेखक डॉ हरि ओम विभिन्न क्षेत्रों में पारंगत हैं। आप अच्छे गजल गायक होने के साथ ही बेहतरीन किस्सागो भी हैं जो श्रोता व पाठक को बांधने की कला को बेहतर जानता है। आप यूपी कैडर में वरिष्ठ आईएएस अफसर हैं। पिछले दिनों आपने कैलाश-मानसरोवर की यात्रा की। प्रस्तुत है इस दुर्गम यात्रा का श्रृंखलाबद्ध वृतांत एक अनूठी शैली में।

हमारे सामान जहाज़ से उतर चुके थे। वहां ओझा एण्ड कम्पनी के मि. आर. ओझा ने हमें रिसीव किया और अपने एक आदमी को हमारे साथ ऊपर सीढ़ियों से सिमीकोट कस्बे में भेजा। हमारी पीठ पर हमारा छोटा बैग जमा हुआ था। सभी बड़े बैग एक जगह इकट्ठा हो रहे थे। बताया गया कि वे बाद में हमारे ‘होटल एमएस’ पर भेज दिये जायेगें। एक नए पड़ाव पर हवाई पट्टी से ऊपर सिमीकोट कस्बे में जाने के लिए सीढियां चढ़ते हुए तमाम दूसरी चीज़ों के साथ मि.भटनागर भी हमें याद आये थे जो पीछे नेपालगंज में ही रह गए थे। यात्रा में उनकी भूमिका अब ख़त्म हो चुकी जान पड़ती थी।


सिमीकोट की हरियाली, पहाड़ों और घाटियों का सौन्दर्य पहली नज़र में आपको काफी आकर्षित करता है। आप चाहें तो थोड़ी देर के लिए रूमानी हो सकते हैं लेकिन जैसे-जैसे हम सिमीकोट के मुख्य पथ से गुजर रहे थे मुझमें एक अजीब उचाट घर कर रहा था। यह शायद इसलिए भी था कि अरसे से जीवन में हम जिस ‘कम्फर्ट ज़ोन’ के आदी हो चले थे, वह यहाँ पहुँचकर अचानक छूटता-टूटता दिख रहा था। तरक्क़ी के नाम पर एक तरफ़ जहाँ हम लगातार प्रकृति को परास्त करने की आत्मघाती कोशिश करते जा रहे हैं, वहीँ दूसरी तरफ़ अतिशय आरामपसंदगी के चलते शारीरिक कष्ट सहने की हमारी क्षमता भी छीजती जा रही है। हम विकास के जिस ढर्रे पर चल रहे हैं वहां हम यह मान बैठे हैं कि सुविधा-सपन्न शहरों के बाहर अच्छा जीवन संभव नहीं है।

कैलाश-मानसरोवर यात्रा पर आने के पीछे मेरे मन में एक बड़ी वजह अपनी उस आरामतलबी की आदत को चुनौती देना भी था जिसने हमारी ज़िन्दगी को सिर्फ़ बड़े शहरों तक ही महदूद कर रखा है। खैर अब हम सिमीकोट में थे। टूटा-फूटा पथरीला पथ। दोनों किनारों पर बेहद छोटी रोज़मर्रा की ज़रुरतें पूरी करने वाली दुकानें, कच्चे-अधपके घर। गंदे लिबासों और मलिन चेहरों वाले बच्चे-बड़े। विपन्नता हर तरफ मुखर थी। खै़र हम सिमीकोट के मुख्य पथ पर सधे क़दमों टहलते, इधर-उधर नज़र फेंकते हुए आगे बढ़ रहे थे। कई छोटे बच्चे हमारे साथ-साथ चलते हुए हमसे अस्फुट स्वर में कुछ पैसे मांग रहे थे। वो जिस तरह हममें से हर एक के पास जाकर कुछ मांग रहे थे, उससे लगता था कि यह उनका नियमित स्वाभाविक काम है।

नेपालगंज-सिमीकोट-हिलसा रूट कैलाश मानसरोवर यात्रियों का एक प्रमुख मार्ग है। सिमीकोट में तीर्थयात्रियों के समूह साल के लगभग चार माह—जून से सितम्बर के बीच—यात्रा के मौसम में नियमित प्रवास करते हैं। मैंने अनुमान लगाया था कि आस-पास घूमते हुए बच्चों को थोड़े श्रम से ही तीर्थयात्रियों से काफी कुछ मिल जाता होगा। अतः अब यह मांगना इनकी आदत में शुमार हो चुका लगता है। मेरे पास नेपाली मुद्रा नहीं थी। चीनी युवान था। उसके भी छुट्टे नोट या सिक्के नहीं थे इसलिए अर्थ-दान तो मैंने नहीं किया लेकिन मेरे जैकेट की जेबों में टॉफियाँ और ड्राई फ्रूट्स थे। इन्हीं चीज़ों से भरी एक मुट्टी मैंने बच्चों की तरफ बढ़ाई थी जिसे उन्होंने एक हलकी मुस्कान के साथ स्वीकार किया था। मैं समझता हूँ कि पैसों से भी वे अपनी मनपसंद खाने-पीने की चीज़ें ही लेते, सो यही सही।

यहाँ की आबादी काफी विरल थी इसलिए बच्चे भी चार-पांच ही थे। हम यात्रियों की तादाद ज्यादा थी इसलिए वे एक-एक कर सबके पास जाकर अपनी क़िस्मत आज़मा रहे थे और सबसे उन्हें कुछ न कुछ मिला भी। हम तकरीबन सात-आठ सौ मीटर उस रास्ते पर चले होंगे कि हमें बाएं हाथ एक तरफ़ मुड़ना पड़ा। कुछ सीढ़ियाँ नाप हम थोड़ी ऊँचाई पर बने अपने होटल एम.एस. उर्फ़ मानसरोव में दाखिल हुए। यह होटल बाहर से देखने में काफी सुन्दर लग रहा था। पत्थर और लकड़ी से बना हुआ ढांचा। अढ़ाई तल्ला होटल, जिसकी पहले तल्ले पर बनी हुई रैलिंग्स पर लकड़ी से बने खूबसूरत कीमियागिरी वाले छोटे-छोटे स्तम्भ लगे थे। इस बीच रास्ते में ही लम्पट स्वामी का ग्रुप किसी अन्य ठिकाने की तरफ मुड़ गया था। हमारे होटल में पहले से भी कई यात्री टिके हुए थे। हम आठों को होटल की पहली मंज़िल पर लकड़ी वाले ज़ीने के ठीक बगल एक कमरा मिला और हम उसी में समा गए। हमारे हिस्साब से गर्मी के मौसम में भी भारी गद्दों-कम्बलों और रजाइयों से लदे बिस्तर। हमने सुविधानुसार बिस्तर चुन लिए और अपनी पीठ पर लदा हुआ बैग उतार बिस्तर पर रख दिया। एक नज़र चारों तरफ दौड़ाई। यात्रा के ख़ास उद्देश्य से खरीदा गया भारी भरकम ट्रेकिंग के जूते खोले और बिस्तर पर निढाल हो थोडा आराम किया। होटल के एक कर्मी ने आकर हमें सूचना दी कि नीचे दोपहर का खाना तैयार है। हमने नीचे जाकर खाना खाया। खाना कामचलाऊ था लेकिन शायद हमें भूख लगी थी। हमें उसमें स्वाद मिला। कुछ मिली-जुली दाल, कुछ झालफ्रेजी सी सब्जी, मोटा चावल, मैदे की रोटी, एसिड की तीखी खटास वाला आचार और चमकदार तेल की परत वाला पापड़। दाल और सब्ज़ी किस चीज़ से बनी थी यह अटकल हम सभी खाना ख़त्म होने के काफी बाद तक लगाते रहे पर हमें सही जवाब नहीं मिल सका। हवा में ठंडक बढ़ गई थी। इस ठंडक ने शायद भूख बढ़ाई थी। हमने भर पेट खाना खाया, फिर इधर-उधर टहल दुबारा अपने बिस्तर में घुस गए। हमें पता था कि आज सिमीकोट में ही रुकना होगा। हमें बताया गया था कि हमारा वीसा-पासपोर्ट दोपहर बाद हम तक पहुँच पायेगा, तभी हम आगे हिलसा के लिए रवाना हो पाएंगे। जो समय नेपालगंज पहुँचते ही हिन्दुस्तानी समय से पंद्रह मिनट आगे चल पड़ा था, वह सिमीकोट तक पहुँचते-पहुँचते थोड़ा भारी और गाढ़ा होने लगा था।

सिमीकोट में ही हम आठों ने एक दूसरे से क़ायदे से जान-पहचान करनी शुरू की। हमारी चार की सरकारी चौकड़ी के अलावा चार दूसरे यात्री हमारे साथ सफ़र पर थे। हम सब मि. भटनागर के जरिए इस यात्रा से जुड़े थे। इन चारों में एक थीं राजलक्ष्मी जो बकौल भटनागर पच्चीसवीं बार ‘‘कैलाश यात्रा’’ पर आ रहीं थीं। वह मूलतः एक मलयाल़ी महिला थी जो दिल्ली में रहती थीं और एयर इंडिया में काम करती थीं। वह एयर इंडिया में क्या काम करती थीं -यह न तो हमने तफ्सील में पूछा, न ही उन्होंने बताया। हमारे बड़े ग्रुप में भी राजलक्ष्मी जी चर्चा में थीं। हमें ज्यादा हैरानी इस बात को लेकर हुई कि इस दुष्कर यात्रा पर हर साल आने के लिए ज़रूरी प्रोत्साहन-प्रेरणा, मनोबल, अवकाश और धन का इंतज़ाम भला कैसे होता होगा लेकिन जो चर्चा चल निकली थी, उसे लक्ष्मी जी ने नकारा भी नहीं, इसलिए उन्हें लेकर हमारी हैरत और बढ़ चली। हम जैसे तमाम दूसरे यात्री-जो बड़ी मुश्किल से इस दुश्कर यात्रा पर आए थे—उनके लिए लक्ष्मी जी दुनिया के आठवें अजूबे से कम नहीं थीं। बाबा भोलेनाथ के दुर्गम, दुस्साध्य ठिकाने के दर्शन की अभिलाषा हम सबके मन में थी और हममे से हरेक कमोवेश इस यात्रा को लेकर रोमांचित था। जीवन में ऐसी यात्राएँ एक बार ही की जाती हैं और यहाँ हमारे बीच एक ऐसी महिला थी जो इतनी बार इस मुश्किल सफ़र पर आ चुकी थी। ऐसे अनुभवी और संचित पुण्य वाली सहयात्री का सानिध्य एक दुर्लभ संयोग ही था। हर कोई उनसे मिलकर यात्रा में आगे बढ़ने से पहले जरूरी जानकारी, हिदायतें हासिल करना चाहता था।

लक्ष्मी जी ने बड़े रोचक अंदाज़ में बताया कि वे हर साल माँ वैष्णो देवी के दर्शन करने जाती थीं। एक दफ़ा उन्होने सोचा कि जब वे अपनी माँ से मिलने हर साल जाती हैं तो पिता कैलाशपति अर्थात् शिव के भी दर्शन उन्हें करना चाहिए। तभी से यह सिलसिला चालू हुआ। उनके मुताबिक वह कैलाश-मानसरोवर आने वाले लगभग सभी रास्तों—पिथौरागढ़, काठमाण्डू, लासा और यह सिमीकोट-से कैलाश यात्रा कर चुकी हैं। वे हमारे समूह से बीच-बीच में यात्रा से जुड़े अपने अनुभव बांटती रहीं-कान हमेशा ढककर रखिये, कुछ-कुछ खाते रहिये, सिर्फ गरम पानी पीजिये, आगे हिलसा में कुछ भी नहीं है, टॉयलेट भी नहीं मिलेगा… वगैरह। हमने देखा कि उनमें हमारे समूह के दूसरे सदस्यों के लिए एक सेवा भाव भी था। वे सहर्ष हमारे लिए जरूरत के मुताबिक चाय, गरम पानी आदि का इन्तजाम भी होटल के किचन से जाकर कर लातीं।

लक्ष्मी के अलावा मि.वाधवा एंड मिसेज वाधवा थे। वाधवा जी खाने-पीने के बेहद शौकीन क्लासिक पंजाबी तबीयत के इंसान थे। अभी यात्रा शुरू ही हुई थी लेकिन होटल की रसोई पर उनकी राय मिलनी शुरू हो गई थी। हालाँकि अभी दोपहर में मिली दाल और सब्ज़ी के बारे में वह भी कुछ पक्के तौर पर बताने में नाकाम रहे थे। वे दिल्ली में ट्रैक्टर्स की हेडलाइट बनाने की फैक्टरी चलाते थे। खुशरंग मूड में रहते थे। खाने की गुणवत्ता और स्वाद पर जी भरकर बात करते थें।

मिसेज वाधवा काफी सरल स्वभाव की ‘फिटनेस पसंद’ महिला थी। उन्हें देखकर लगता था कि वे अपने दिन का एक बड़ा हिस्सा जिम में बिताती होंगी। ‘फिटनेस रहस्य’ पूछने पर उन्होने बताया कि वे ‘पॉवर योगा’ सहित तमाम दूसरी तरह की कसरतें अपने स्वास्थ्य-लाभ के लिए करती हैं। शाम को खाने के बाद लम्बी पैदल चाल भी उनकी दिनचर्या में शामिल है। सादा खाना पसंद करती हैं। पंजाबियों में इस कदर फिटनेस चेतना मुझे तो पहले कभी किसी में नहीं दिखी। अमूमन पंजाबी लोग तला और मक्खन-मलाई में रजा पगा खाने के काफी शौक़ीन होते हैं, और ऊपर से पीने-पिलाने के भी। ऐसे में किसी ठेठ पंजाबी महिला में फिटनेस को लेकर ऐसी दीवानगी मेरे लिए वाक़ई हैरान करने वाली थी।

चौथे सदस्य थे मि.नागपाल। यह भी दिल्ली से ही थे। व्यवसायी थे और मि.वाधवा के पुराने मित्र भी। इन तीनों ने एक साथ कैलाश यात्रा पर आने का फैसला किया था। मि. नागपाल खेलों में इस्तेमाल होने वाले बॉडी प्रोटेक्टोर्स की फैक्टरी चलाते थें लेकिन उससे भी ज्यादा वे राजनीति की बातें करते थे और उनका मानना था कि हिंदुस्तान की सभी समस्यायों की जड़ देश का अल्प-संख्यक समुदाय है। वे एक विचारधारा विशेष में दीक्षित लगते थे। वे हिन्दू राष्ट्र, हिंदू धर्म, हिंदू इतिहास आदि पर मुखर होते थे और अपने विचारों में काफी कट्टर दिखते थे। आप किसी भी समस्या पर बात करिए, वे घूम-फिरकर उसे पकिस्तान और मुसलमान आबादी के मत्थे मढ़ देते थे और फिर शुरू होता था उनके हिंदू-विमर्श का सिलसिला! वे दुनिया के तमाम देशों की व्यवसायिक यात्रा करते रहते थे। उन्होंने बताया कि वे कालेज के दिनों में मैराथन धावक थे तथा आज भी अपनी शारीरिक क्षमता को लेकर काफी आश्वस्त थे।

हमारे आठ के समूह में मुझे आप जानते ही हैं। मैं अपने सरकारी कामकाज के अलावा थोड़ा लिखता-गाता हूँ। आरडी सर सर्विस में मेरे वरिष्ठ हैं और शैक्षिक पृष्ठभूमि की कहें तो एक मेडिकल डॉक्टर भी। शेरो-शायरी के काफी शौकीन। बात-बात पर मौजू शेर कहने का उनका अंदाज निराला था। अक़्सर हमारी थकान, मायूसी और एकांत को वे अपने खूबसूरत अंदाज में कोई न कोई शेर कहकर दूर किया करते थे। ग़ज़लों और गीतों की भी उनकी समझ अद्भुत थी। खुद भी अच्छा गुनगुनाते थे। आरडी सर को देखकर मुझे हैरानी होती थी। उन्हें शेरो-शायरी जितनी याद थी, उतना ही प्रसाद, महादेवी, दिनकर, मैथिलीशरण आदि की मशहूर कविताएँ भी। खास बात तो यह कि उनके पास हर मौके के लिए सटीक शेर या कविता होती थी। उन्हें संस्कृत साहित्य का भी ठीक-ठाक ज्ञान था।

डा. गुप्ता पहले सेना में बिग्रेडियर जैसे बड़े ओहदेदार थे। अब अपने डाक्टर होने की बदौलत एक सरकारी मेडिकल कालेज में डायरेक्टर थे। उनके व्यक्तित्व में मिलिटरीपन बहुत कम था, डॉक्टरीपन ज़्यादा। उनकी पत्नी कमाल की थी। यूँ तो काफी धीरे और मधुर आवाज़ में बोलती थीं लेकिन बात-बेबात डा. गुप्ता से ख़फ़ा हो उठतीं थीं। डा. गुप्ता पूरे गाँधीवादी अंदाज़ में अक्सर खामोश रहकर और कभी-कभार हल्के दबे स्वर में उसका स्वीकार-समाधान करते थे। हमारे विचार से यह पत्नी के प्रति प्यार और सम्मान प्रदर्शित करने का उनका अपना अंदाज़ था और संभवतः गृहस्थी की गाड़ी को चैन से दूर तक खींच ले जाने का उनका आज़माया हुआ कारगर नुस्खा भी। हमारे इस छोटे समूह के बाहर, बड़े समूह से हमें संवाद का मौका कम ही मिलता था। कभी मिलता भी था तो हम बेहद औपचारिक बातचीत करते थे।

क्रमशः

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