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कैलाश-कथा-8’ : हरिओम IAS

“…..स्मृति-लोक भी हमारी बौद्धिक और भावनात्मक विरासत को समृद्ध करता है लेकिन विकास की दौड़ और लगातार बदलते सामाजिक और भौतिक परिवेश की वजह से बहुत कुछ ऐसा है जो नई पीढ़ी के जीवनानुभवों और स्मृतियों का हिस्सा बनने से रह जा रहा है. शहर आधुनिक जीवन-शैली के केंद्र में आते जा रहे हैं. गाँव पिछड़ते जा रहे है और उसके साथ ही खेत, जंगल, तितली, गौरैया आदि भी शहरी स्मृति-संसार से बहिष्कृत होते जा रहे हैं. मुझे शहरों के बारे में लिखा गया मेरा एक पुराना शेर याद आ रहा था—दरख्तों पर शहर सोए हुए हैं/कहाँ ढूंढे कोई चिड़ियों का डेरा.…!!!

कैलाश मानसरोवर यात्रा

अगर आपको सनातन हिन्दू धर्म में आस्था है। अगर आपको पौराणिक मान्यताएँ आकर्षित और प्रेरित करती हैं। अगर आप प्रकृति के विराट विहंगम रूप का साक्षात्कार करने से रोमांचित होते हैं। अगर आप ज़िंदगी को रोज़मर्रा घटित होने वाले उपक्रम से कुछ अलग समझते हैं। अगर आप शारीरिक और मानसिक कष्ट झेलने की अपनी क्षमता का परीक्षण करना चाहते हैं। अगर आप आरामतलबी और अपने संकीर्ण जीवन से ऊब चुके हैं और धरती के सुदूर विस्तार में फैली ज़िंदगी को मापना, देखना और समझना चाहते हैं तो इनमें से कोई एक वजह आपको इस रोमांचकारी, कष्टकारी यात्रा पर ले जाने के लिए पर्याप्त है। मेरा विश्वास कीजिए कि जब आप वापस आएँगे तो जीवन-जगत और प्रकृति के प्रति आपका दृष्टिकोण काफ़ी समृद्ध हो चुका होगा।

 

डा0 हरिओम IAS

विलक्षण और बहुमुखी प्रतिभा के धनी संवेदनशील कवि – लेखक डॉ हरि ओम विभिन्न क्षेत्रों में पारंगत हैं। आप अच्छे गजल गायक होने के साथ ही बेहतरीन किस्सागो भी हैं जो श्रोता व पाठक को बांधने की कला को बेहतर जानता है। आप यूपी कैडर में वरिष्ठ आईएएस अफसर हैं। पिछले दिनों आपने कैलाश-मानसरोवर की यात्रा की। प्रस्तुत है इस दुर्गम यात्रा का श्रृंखलाबद्ध वृतांत एक अनूठी शैली में।

पिछले भाग से आगे……

हम सैलानी थे, जो कहीं पहुँचने को निकले थे. इस पड़ाव पर हमें बेकाम घूमना था और उस उचाट ख़ाली दिन को इस बस्ती में किसी तरह खर्च करना था. इसलिए हमारी नज़र हर चीज़ पर थी. हमें किसी भी क़िस्म की कोई जल्दबाजी नहीं थी. हम धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे. आरडी सर का कैमरा अब फॉर्म में था. सिमिकोट के कई रूप-रंग उसमें अलग-अलग कोणों से दर्ज़ हो रहे थे. हमने कुछ घरों और दुकानों के आगे रुककर स्थानीय लोगों के साथ अपनी तस्वीरें खीचीं. वहां के लोगों को पता रहा होगा कि सैलानी ऐसे ही होते हैं जो ठहराव और नीरसता भरे माहौल में रोमांच ढूंढते हैं. इक्का-दुक्का घरों को छोड़कर लगभग सभी घरों में कोई न कोई दूकान थी. हर दूसरे-तीसरे घर में होटल या गेस्ट हाउस का बोर्ड लगा था. यह इस बात का संकेत था कि सिमिकोट की अर्थ-व्यवस्था हम जैसे सैलानियों के दम पर टिकी है. कैलाश यात्रा पर जाते-लौटते सैलानी हिलसा के बाद इसी बस्ती में रुकते हैं. एक बार यहाँ पहुँचने के बाद यहाँ से जल्दी या अपनी इच्छानुसार निकलना संभव नहीं था.

थोड़ी ही देर में हम कसबे के एक छोर पर पहुँच गए थे. यहाँ से रास्ता ढलान की तरफ़ जा रहा था. हम आगे बढ़ चले थे. अब हमें सामने घाटी दिख रही थी. छोटे-छोटे टुकड़ों में खेती भी दिखाई दे रही थी. हम अपने यहाँ ज़मीन के ऐसे उपजाऊ टुकड़ों को क्यारियां कहते हैं जो सब्ज़ी और फूल उगाने के काम आती हैं. क़रीब जाने पर उसमें आलू, बाजरा और पात गोभी की फ़सलें भी दिखीं. यह मानवीय श्रम से की गई खेती मालूम पड़ती थी क्यूंकि वहां हमें जानवर भी नहीं दिखे थे. यह फ़सलें इतनी मामूली थीं कि हम अनुमान लगा सकते थे कि यह क़स्बा अपने खुद के लिए भी पूरे साल भर का दाना-खाना नहीं पैदा कर पा रहा होगा.

कस्बे से पूरी तरह बाहर आने के बाद सुदूर बर्फ़ से ढके पर्वतों तक खिंची हुई हरियाली हमें बिलकुल साफ़ दिखने लगी थी. हम पहाड़ी धरातल की उस ऊँचाई पर थे जहाँ वनस्पतियों के नाम पर नुकीली पत्तियों वाले पेड़—पाइन, सस्प्रूस, हेम्लोक और दूसरी तमाम तरह की झाड़ियाँ चारों तरफ़ साया थीं. ऐसे कठोर सूखे-सर्द मौसम में मोटी खाल वाली पत्तियां और कड़ी छाल वाले वृक्ष ही जीवित रह सकते थे, इसलिए यही सब हमें दिख भी रहे थे. ज़्यादातर ज़मीन पथरीली और नमी रहित या थोड़ी बलुही थी. हमारे पीछे भी पहाड़ों की एक श्रृंखला थी. कहीं-कहीं ऊँचाई पर भी कच्चे-पक्के घर दीखते थे लेकिन उन तक पहुँचने का रास्ता अबूझ था. हम तस्वीरें खींचते, सिमिकोट पर बाते करते बढ़ रहे थे.

मि.नागपाल इस दौरान लगभग चुप रहे जो उनके स्वभाव के विपरीत था. ऐसा शायद पैदल चलने में हो रही थकान की वजह से रहा हो या हमारे चारों तरफ़ फैले नज़ारों के चलते. यह भी वजह हो सकती थी कि आरडी सर इस बीच लगातार अपने कैमरे से संवाद में लीन थे और मैं भीतर कहीं न कहीं इस फ़िक्रमंदी में था कि ऐसी जगहों पर जीवन कितना ज़्यादा कठिन है और जाने हमारे हिस्से यह कठिनाई अभी कितनी और शेष है. मि.नागपाल को फ़ोटो खींचने-खिंचवाने का शौक़ कम ही था ऐसा मुझे इस दौरान लगा. यूँ मुझे भी इसका शौक़ काफी कम है मगर यह यात्रा कतई एक सामान्य यात्रा नहीं थी इसलिए हमें इसके हर क्षण को क़रीब से महसूस करना था और यात्रा पड़ावों में आने वाले हर दृश्य को अपनी स्मृतियों के आइने में उतारना था. इसलिए मैं भी आरडी सर के साथ-साथ बना रहा उनकी हर टिप्पड़ी, हर गतिविधि का साक्षी, उनके उल्लास और उत्साह का आत्मीय साझीदार.


ढलान पार करने के बाद हमें आगे फिर बस्ती दिखने लगी थी. आधा सिमिकोट उस पार बसा था शायद. नागपाल जी ने लौटने का प्रस्ताव रखा लेकिन मैं आगे बढ़कर बचा हुआ सिमिकोट भी देखना चाहता था. आख़िर लौटकर हमारे पास करने को था भी क्या! और आख़िर इस तरह हम आगे आने वाली कठिन कैलाश परिक्रमा का कुछ पूर्वाभ्यास भी तो कर रहे थे. इसे हम आपसी बातचीत में मौसम या पारिस्थिति से अनुकूलन (एक्लेमटाईज़ेशन) कहते हैं. इस क्रिया में हमारे शरीर और मन को स्थानीय जलवायु और परिवेश की आदत पड़ जाती है. आरडी सर भी इस बात से सहमत थे कि हमें बचा हुआ सिमिकोट देख लेना चाहिए इसलिए हम चलते रहे.

आगे हमें एक स्कूल दिखा. यह शायद जूनियर हाई स्कूल था. हाई स्कूल भी हो सकता था. एक अस्पताल भी दिखा. फिर एक थाना जैसा परिसर जिसपर पुलिस अधीक्षक जैसा कुछ लिखा था. एक कृषि और सहकारी भवन दिखा. हमें पहली बार पता चला कि सिमिकोट कुछ वैसा है जैसे हमारे यहाँ जिला मुख्यालय होता है. हमने सोचा यहाँ कलेक्टर भी बैठता होगा. उस पुलिस परिसर के बगल से गुज़रते हुए एक लड़की दिखी.

आरडी सर ने उससे पूछा तो उसने बताया कि सिमिकोट में डिप्टी पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट बैठता है और डिप्टी कलेक्टर भी. पता चला कि यह वाक़ई जनपद मुख्यालय था. जिले का नाम था हुम्ला.

हमें कुछ नए किस्म के फलदार पेड़ दिखे. मुझे पता था कि यह सेब के पेड़ थे. आरडी सर सेब का पेड़ देखकर काफी रोमांचित हो उठे थे. पेड़ पर छोटे आकार के सेब लगे भी हुए थे. फिर एक नया पेड़ और दिखा. पूछने पर पता चला कि यह वालनट अर्थात अखरोट का पेड़ था.

आरडी सर प्रकृति के इस मनोरम रूप को देखकर बार-बार आल्हादित हो ‘अद्भुत’ का विशेषण उछाल रहे थे. उनके हाथों मे फंसा हुआ कैमरा अपना काम कर रहा था. हमें ठीक गौरैया जैसी नस्ल की कुछ चिड़िया भी दिखीं. शायद वे नेपाली गौरैया ही थीं. पहले हम गाँवों में कितनी ढेर सारी गौरैया एक साथ देखते थे. झुण्ड में झर्र-झर्र इधर-उधर उड़तीं—पेड़ों, मुंडेरों, झरोंखों और छतों पर कलरव करतीं. अब तो गौरैय्या कभी-कभार ही दिखती हैं. जाने कहाँ ग़ायब हो गईं सब. शहरी ज़िन्दगी ने कितना कुछ पीछे छोड़ दिया, कितना कुछ भुला-गँवा दिया कहना मुश्किल है. जो चिड़िया पहले सुबह-सुबह अपनी चीं-चीं, चौं-चौं से आसमान सर पर उठाए घूमती थी अब लाख ढूँढने और बुलाने पर भी हमारी छतों, दहलीज़ और दीवारों पर नहीं दिखती. पीछे छूटा हुआ कितना कुछ सुन्दर तो बस अब हमारी स्मृतियों में ही बचा हुआ है. और उन स्मृतियों की तरफ़ भी लौटने की फुर्सत हममें से कितनों को है!

स्मृति-लोक भी हमारी बौद्धिक और भावनात्मक विरासत को समृद्ध करता है लेकिन विकास की दौड़ और लगातार बदलते सामाजिक और भौतिक परिवेश की वजह से बहुत कुछ ऐसा है जो नई पीढ़ी के जीवनानुभवों और स्मृतियों का हिस्सा बनने से रह जा रहा है. शहर आधुनिक जीवन-शैली के केंद्र में आते जा रहे हैं. गाँव पिछड़ते जा रहे है और उसके साथ ही खेत, जंगल, तितली, गौरैया आदि भी शहरी स्मृति-संसार से बहिष्कृत होते जा रहे हैं. मुझे शहरों के बारे में लिखा गया मेरा एक पुराना शेर याद आ रहा था—दरख्तों पर शहर सोए हुए हैं/कहाँ ढूंढे कोई चिड़ियों का डेरा.

खैर आरडी सर ने सिमिकोट भ्रमण के दौरान कुछ भी अपनी आँखों से ओझल नहीं होने दिया. हर चीज़ को अपने कैमरे में उतार लिया. छोटे घरों वाली आबादी के बीच से गुज़रते हुए हमें कुछ गौरैया जैसे ही छोटे मासूम बच्चे भी दिखे जिनके साथ हमने बारी-बारी से तस्वीरें खींचीं. इस दरम्यान हमें कोई दूसरा कैलाश यात्री आगे पीछे घूमता टहलता नहीं दिखा. इतनी दूर आना थकाऊ था और लोग शायद आगे की यात्रा के लिए अपनी ऊर्जा बचा के रखना चाहते थे इसलिए बहुत मुमकिन था कि सब अपनी-अपनी जगह आराम फ़रमा रहे हों.

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