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“कुदाल से कलम तक”: रामधनी द्विवेदी :25: “प्रैक्टिकल “

रामधनी द्विवेदी

आज जीवन के 71 वें वर्ष में जब कभी रुक कर थोड़ा पीछे की तरफ झांकता हूं तो सब कुछ सपना सा लगता है। सपना जो सोच कर नहीं देखा जाता। जिसमें आदमी कहां से शुरू हो कर कहां पहुंच जाता है? पता नहीं क्‍या-क्‍या घटित होता है? कभी उसमें कुछ दृश्‍य और लोग पहचाने से लगते हैं, तो कभी हम अनजाने लोक में भी विचरने लगते हैं। जगने पर असली दुनिया में आने पर जो देखें होते हैं,उसके सपना होने का बोध हेाता है। यदि सपना सुखद है तो मन को अच्‍छा लगता है, यदि दुखद है तो नींद में और जगने पर भी मन बोझिल जाता है। सुखद सपने बहुत दिनों तक याद रहते हैं, हम अपने अनुसार उनका विश्‍लेषण करते हैं और दुखद सपने कोई याद नहीं रखता, क्‍योंकि वह पीड़ा ही देते हैं। यही हमारी जिंदगी है। जब हम कभी रुक कर पीछे देखते हैं तो सुखद और दुखद दोनों बातें याद आती हैं। इनमें से किसी अपने को अलग भी नहीं किया जा सकता क्‍योंकि बिना ‘ दोनों ‘ के जिंदगी मुकम्‍मल भी तो नहीं होती। जिंदगी की धारा के ये दो किनारे हैं। बिना दोनों के साथ रहे जिंदगी अविरल नहीं होगी और उसमें थिराव आ जाएगा। तो मैं अपनी जिंदगी के दोनों पक्षों का सम्‍मान करते हुए उन्‍हें याद कर रहा हूं। जो अच्‍छा है, उसे भी और जो नहीं अच्‍छा है उसे भी, सुखद भी दुखद भी।  तो क्‍यों न अच्‍छे से शुरुआत हो। यह स्‍मृति में भी अधिक है और इसमें कहने को भी बहुत कुछ है। जो दुखद या अप्रिय है, वह भी कालक्रम में सामने आएगा। लेकिन मैं सबसे अनुनय करूंगा कि इसे मेरे जीवन के सहज घटनाक्रम की तरह ही देखें। मैं बहुत ही सामान्‍य परिवार से हूं, मूलत: किसान रहा है मेरा परिवार। आज भी गांव में मेरे इस किसानी के अवशेष हैं, अवशेष इसलिए कि अब पूरी तरह किसानी नहीं होती। पहले पिता जी अवकाश ग्रहण के बाद और अब छोटा भाई गांव पर इसे देखता है। खुद खेती न कर अधिया पर कराई जाती है लेकिन कागजात में हम काश्‍तकार हैं। उस गांव से उठकर जीवन के प्रवाह में बहते-बहते कहां से कहां आ गया, कभी सोचता हूं तो जैसा पहले लिखा सब सपना ही लगता है। कभी सोचा भी न था कि गांव के खुले माहौल में पैदा और बढ़ा-बड़ा हुआ मैं दिल्‍ली-एनसीआर में बंद दीवारों के बीच कैद हो जाऊंगा। लेकिन वह भी अच्‍छा था, यह भी अच्‍छा है। जीवन के ये दो बिल्‍कुल विपरीत ध्रुव हैं जो मुझे परिपूर्ण बनाते हैं। कुदाल के बीच शुरू हुई जिंदगी ने हाथों में कलम पकड़ा दी और अब वह भी छूट गई और लैपटॉप ने उसका स्‍थान ले लिया। कुदाल से शुरू और कलम तक पहुंची इस यात्रा के पड़ावों पर आप भी मेरे साथ रहें, जो मैने देखा, जिया, भोगा उसके सहभागी बनें।

रामधनी द्विवेदी

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और दैनिक जागरण समाचार पत्र की कोर टीम के सदस्य हैं।

” प्रैक्टिकल ! 

 

गतांक से आगे…

बीएससी की पढ़ाई बहुत अच्‍छी नहीं रही। कॉलेज में केमिस्ट्री के टीचर कम थे। पहले साल फिजिकल के टीचर तो नवंबर तक नहीं आए। बीएचयू से उसी साल एमएससी किए मजूदमदार सर आए तो कुछ महीने बाद ही छोड़कर चले गए। कॉलेज का माहौल उन्‍हें अच्‍छा नहीं लगा। जुलॉजी और बॉटनी में हेड के अलावा एक- एक टीचर और एक लैब सहायक ही था। पहले कॉलेज की इस स्थिति के बारे में पता नहीं था। आर्मापुर से नजदीक होने और एडमीशन मे दिक्‍कत न होने से वहां दाखिला लिया था। केमिस्‍ट्री के एक ही टीचर रेगुलर क्‍लास लेते थे डाक्‍टर एसएस अवस्‍थी। पतले-दुबले लंबे से थे,कमर थोड़ी झुकी हुई। वह बायोलाजी और मैथ के बच्‍चों की क्‍लास एक साथ लेते। फिर बाद में बायोलॉजी के लड़कों की अलग से लेने लगे। पढ़ाने में ठीक थे लेकिन उनकी आवाज इतनी पतली थी कि पीछे तक सुनाई नहीं देती थी। हम लोगों के बीच एक लड़का था केसी श्रीवास्‍तव। नया- नया आया तो किसी ने ध्‍यान नहीं दिया। वह कुछ अधिक उम्र का भी लगता था। कहते हैं कि वह पहले किसी और विवि में पढ़ता था, वहां किसी कारण से निकाल दिया गया और बीएससी अधूरी रह गई तो डीबीएस कालेज में एडमीशन ले लिया।एक बार जब केमिस्‍ट्री का कोई टीचर नहीं था तो उसने कहा मैं कुछ पढ़ाऊं।

बच्‍चों को समय काटने का बहाना मिल गया, सबने कहा- पढाओ। उसने पीरियाडिक टेबल शुरू किेया। उसका यह चैप्‍टर खूब तैयार था। उसने बड़े ही रोचक तरीके से पढ़ाना शुरू किया और हर चीज का याद करने के लिए एक सूत्र बताता था। ये सूत्र फिल्‍मी गानों पर या मजाकिया से होते लेकिन वह इससे केमिस्‍ट्री को याद करने का तरीका बताता था। जैसे उसने किसी भी एलीमेंट के लिए माला सिन्‍हा की पहली फिल्‍म के नाम पर बताया- माला सिन्‍हा की पुकार। इसे अंग्रेजी में लिखने पर हर अक्षर से पीरियाडिक टेबल के एलीमेंट के गुण आ जाते। जैसे माला के एम से मेटल, ए से कुछ और इसी तरह आगे भी। केमिकल एक्‍वीशन को बैलेंस करने का उसका सूत्र था- रिफ्यूजी अपान रिफ्यूजा । इसके भी अंग्रेजी के हर अक्षर से अलग अलग संकेत होते और इसके सहारे किसी भी तरह का एक्‍वीशन बैलेंस हो जाता। केमिस्‍ट्री में एक्‍वीशन बैलेंस करना सबसे बड़ी समस्‍या होती है जो इससे हल हो जाती है। वह अपने फार्मूले को उदाहरण सहित बताता भी। इससे लड़कों पर प्रभाव भी पड़ा। लड़के उसे केसी कहते। उन्‍हें पढ़ने में मजा आने लगा और केसी को पढ़ाने में। उसकी क्‍लास कोई भी बंक नहीं करता। लड़के लड़कियां सब मजा लेते। वह इतने कांफिडेंस से पढ़ाता कि टीचर क्‍या पढाएंगे। दूसरे क्‍लास के लड़के भी आने लगे तो बात प्रिंसिपल मदन मोहन पांडेय जी के कान तक पहुंची। टीचरों में सनसनी मच गई। कॉलेज के अनुशासन की बात थी। क्‍या गजब कि एक छात्र ही अपने साथियों की क्‍लास को पढ़ा रहा है। एक दिन गजब हो गया। वह क्‍लास ले ही रहा था कि प्रिंसिपल साहब दो अन्‍य टीचरों के साथ आ धमके। क्‍लास भरी हुई थी।

पिन ड्राप साइलेंस था कि प्रिंसिपल साहब अचानक घुसे। सन्‍नाटा छा गया। कक्षा में ही अदालत लग गई। उससे पूछा गया कि तुम स्‍टूडेंट होकर क्‍यों पढ़ा रहे हो। तो उसने कहा कि मैं सर मैं पढा़ कहां रहा हूं। लड़के बाहर घूमते रहते हैं तो मैं उनका समय काट रहा हूं, उनका मनोरंजन भी हो रहा है। पूछा गया- तुमने पहले भी कहीं पढ़ाई की है। उसने बताया उस्‍मानिया युनिविर्सिटी में(मुझे यही याद आ रहा है) वहां से रेस्टिकेट कर दिया था और बीएससी नहीं कर पाया तो यहां एडमीशन लिया है। बाद में उसे लेकर प्रिंसिपल साहब अपने कमरे में गए और उसे कॉलेज से निकाल दिया गया। बाद में जब मैं 1975 में आज अखबार के कानपुर से खुलने पर वहां गया तो एक दिन वही विज्ञापन के किसी काम से दफ्तर आया। उसका चेहरा मैं भूला नहीं था।

मैने उसे डीबीएस कालेज की घटना याद दिलाई तो उसने कहा कि तुम भी उस समय वहीं थे क्‍या। मैनें उसे सब घटना बताई। उसने बताया कि उसने कृष्‍णा कोचिंग खोली है। बाद में पता चला कि उसने उसको किसी दूसरे को बेच दिया है। इलाहाबाद की कृष्‍णा कोचिंग शायद दूसरी थी। केसी ने आज के दफ्तर में हाथ की सफाई का दो एक खेल भी दिखाया। पता नहीं बाद में उसका क्‍या हुआ। फिर कभी मुलाकात नहीं हुई।

खैर, किसी तरह बीएसी की पढ़ाई चलती रही। आर्मापुर से गोबिंद नगर आने जाने में ही दो घंटे निकल जाते। टीचर भी सामान्‍य थे। देखा जाए तो बॉटनी के दो टीचरों को छोड़ सबमें बस कामचलाऊ लोग ही थे। जुलॉजी में मात्र प्रो शांडिल्‍य ही ठीक पढ़ा पाते। दूसरे टीचर के बारे में मैने पहले बताया ही है। प्रैक्टिकल जरूर ठीक होते। वह भी बॉटनी और जुलॉजी के। कभी-कभी तो कोर्स पूरा करने के लिए एक साथ कई प्रैक्टिकल करा दिए जाते। अभ्‍यास करने का अवसर ही नहीं मिलता। जुलॉजी और बॉटनी के प्रैक्टिकल ठीक हो जाते, मेरा डिसेक्‍शन ठीक था ही। स्‍पाटिंग का अभ्‍यास कर लिया था। स्‍लाइडें सीमित थीं, उन्‍हें पहचानने का अभ्‍यास कर लिया था। स्‍पाटिंग में उनमें से ही रखा जाता था। जो लड़के स्‍लाइड का अभ्‍यास कर लेते उनकी स्‍पाटिंग ठीक हो जाते। स्‍केच अच्‍छे बन जाते तो नंबर ठीक मिल जाते। लेकिन केमिस्‍ट्री के प्रैक्टिकल में दिक्‍कत आती। मेरे साल्‍ट कभी नहीं निकलते। इंटर में और बीएससी दोनों में। कुछ लड़के डाइरेक्‍ट टेस्‍ट से साल्‍ट निकालने की कोशिश करते। डायरेक्‍ट टेस्‍ट और ड्राई टेस्‍ट आसान होते लेकिन किताबों में मिलते नहीं। सिर्फ कार्बोनेट आसानी से निकल जाता।रंग आदि से कंपाउंड का अंदाज तो लग जाता लेकिन कफर्म करने के लिए टेस्‍ट तो करने पड़े।

किसी ने बताया कि कोलकाता के प्रो लाडलीमोहन मित्रा की इनआर्गेनिक केमिस्‍ट्री की किताब में डाइरेक्‍ट और ड्राई टेस्‍ट दिए गए है। मैं उस किताब को ढूढने लगा कहीं नहीं मिली। फिर परेड की एक दूकान से उसे मंगाने के लिए कहा। एक हफ्ते बाद दूकानदार कहीं से उसे मंगाया। थी तो दस रुपये की ही लेकिन अच्‍छी किताब थी। वह बाद में चंद्रशेखर और राहुल के काम आई। इसी तरह परेड से एजे मी और पार्टिंगटन की केमिस्‍ट्री की किताबें भी फुटपाथ से खरीदीं। परेड में उन दिनों फुटपाथ पर कई ऐसी दूकानें किताबों की लगतीं, जहां पुरानी अच्‍छी किताबें मिल जातीं। उसी साल हम लोगों के कोर्स में डाई( रंग) को भी शामिल किया गया था। यह किसी किताब में नहीं मिलता। इस पर थ्‍योरी के ही सवाल आते जिसमें जाहिर है डिस्‍क्राइब करना होता है। एजे मी की किताब में डाई पर दो पेज थे। बस इसी से मेरा काम चल गया। मैने उसे तैयार कर लिया और उसके समीकरण भी याद कर लिए। ऐसा संयोग कि परीक्षा में उस पर पूरा एक सवाल आया। मैने उसे सबसे अच्‍छा लिखा। परीक्षा में उस बार एक दिलचस्‍प घटना घटी। मैंने कभी नकल नहीं की। सोचता हूं जो लोग नकल करने के लिए जितनी मेहनत में पर्ची बनाते हैं,उतने में तो सवाल भी याद किया जा सकता था। मेरे कई साथी थे जो किताब के पन्‍ने तक फाड़ लेते थे,नकल करने के लिए। वे इतनी चतुराई से नकल करते कि पकड़ में न आते।

जो दिलचस्‍प घटना मैं बताने जा रहा हूं,वह नकल से ही जुड़ी है। आर्गेनिक केमिस्‍ट्री के पेपर के दिन मैने लगभग पेपर कर लिया था। डाई पर सवाल का जवाब दो पेज में लिखा था। मेरी सीट के पीछे एक लड़की ललिता रानी नाम की थी। वह गोबिंद नगर में ही रहती थी,कालेज के पास ही। क्‍लास में जितनी सामान्‍य जान पहचान होती है, उतनी ही थी। उसने मुझसे फुसफुसा कर पूछा तुमने डाइ पर लिखा है, मैने कहा हां। उसने कहा कापी मुझे दे दो। मेरी तो जान सूख गई। समय बस आधा घंटा ही बचा था। मैं टाल रहा था। अचानक उसने देखा कि इन्विजिलेटर महोदय दरवाजे की ओर गए हैं तो वह अपनी सीट से उठी,अपनी कॉपी मेरी मेज पर रखी और मेरी कापी उठा कर चली गई। उसने मेरे जवाब के प्‍वाइंट अपने पेपर में उतार लिए और मौका देखने लगी। जैसे ही फिर इन्विजिलेटर महोदय दरवाजे की ओर बढे उसने फिर कापी बदल ली। इतनी देर मे तो मेरी जान सूख गई। दूसरे लड़के भी यह सब देख रहे थे। खैर उसका भी एक सवाल ठीक ठाक हो गया। लेकिन जब तक मेरी कापी मुझे नहीं मिल गई मैं डरता ही रहा कि कहीं पकड़ न लिया जाऊं। केमिस्‍ट्री के प्रैक्टिकल में बॉटनी के श्रीवास्‍तव सर ने मदद की थी। जब से उन्‍हें पता चला कि मैं उनके ही गांव के पास का हूं, उनके गांव में मेरी रिश्‍तेदारी है तथा मेरे मामा उनके क्‍लास फेलो रहे हैं, तो उनका झुकाव मेरी तरफ हो गया। मेरी समस्‍याएं पूछते। मैने बताया कि केमिस्‍ट्री के प्रैक्टिकल में परेशानी हेाती है। वह प्रैक्टिकल परीक्षा के दिन लैब में आए और थोड़ी देर टीचरों के साथ हेड के कमरे में भी बैठे। मुझे लगता है कि मेरे बारे में बात की होगी। नंबर ठीक ही आए थे।

उस साल कानपुर युनि‍वर्सिटी का रेजल्‍ट लेट निकला। ऐसी चर्चा थी कि केमिस्‍ट्री में लड़के बहुत फेल हुए हैं तो सबको दस नंबर का ग्रेस मार्क मिला है क्‍यों कि यह कहा गया था कि पेपर सेटर बाहर के थे और पेपर में कई सवाल आउटआफ कोर्स आए थे। खैर एक दिन अचानक दैनिक जागरण में रिजल्‍ट छपा दिखा और मैं द्वितीय श्रेणी में पास हो गया। बहुत संतोष हुआ क्‍यों कि मेरा भी केमिस्ट्री का पेपर खराब ही हुआ था।

पढ़ाई के दौरान हम कई लोग पूर्वी यूपी के थे। जो साथ साथ ही रहते थे। पढ़ने में भी ठीक ही थे। जब कॉलेज में चुनाव हुए तो इस एकता की कीमत पता चली। सब लोग हमें लुभाने की कोशिश में लग गए। छात्र संघ चुनाव में उस साल कोई भदौरिया जीता था। हम लोगों की छात्र संघ में कोई खास रुचि नहीं थी।

एक बीएससी की पढ़ाई बहुत अच्‍छी नहीं रही। कॉलेज में कमेस्ट्रिी के टीचर कम थे। पहले साल फिजिकल के टीचर तो नवंबर तक नहीं आए। बीएचयू से उसी साल एमएससी किए मजूदमदार सर आए तो कुछ महीने बाद ही छोड़कर चले गए। कॉलेज का माहौल उन्‍हें अच्‍छा नहीं लगा। जुलॉजी और बॉटनी में हेड के अलावा एक- एक टीचर और एक लैब सहायक ही था। पहले कॉलेज की इस स्थिति के बारे में पता नहीं था। आर्मापुर से नजदीक होने और एडमीशन मे दिक्‍कत न होने से वहां दाखिला लिया था। केमिस्‍ट्री के एक ही टीचर रेगुलर क्‍लास लेते थे डाक्‍टर एसएस अवस्‍थी। पतले-दुबले लंबे से थे,कमर थोड़ी झुकी हुई। वह बायोलाजी और मैथ के बच्‍चों की क्‍लास एक साथ लेते। फिर बाद में बायोलॉजी के लड़कों की अलग से लेने लगे। पढ़ाने में ठीक थे लेकिन उनकी आवाज इतनी पतली थी कि पीछे तक सुनाई नहीं देती थी। हम लोगों के बीच एक लड़का था केसी श्रीवास्‍तव। नया- नया आया तो किसी ने ध्‍यान नहीं दिया। वह कुछ अधिक उम्र का भी लगता था। कहते हैं कि वह पहले किसी और विवि में पढ़ता था, वहां किसी कारण से निकाल दिया गया और बीएससी अधूरी रह गई तो डीबीएस कालेज में एडमीशन ले लिया।एक बार जब केमिस्‍ट्री का कोई टीचर नहीं था तो उसने कहा मैं कुछ पढ़ाऊं। बच्‍चों को समय काटने का बहाना मिल गया, सबने कहा- पढाओ। उसने पीरियाडिक टेबल शुरू किेया। उसका यह चैप्‍टर खूब तैयार था। उसने बड़े ही रोचक तरीके से पढ़ाना शुरू किया और हर चीज का याद करने के लिए एक सूत्र बताता था।

ये सूत्र फिल्‍मी गानों पर या मजाकिया से होते लेकिन वह इससे केमिस्‍ट्री को याद करने का तरीका बताता था। जैसे उसने किसी भी एलीमेंट के लिए माला सिन्‍हा की पहली फिल्‍म के नाम पर बताया- माला सिन्‍हा की पुकार। इसे अंग्रेजी में लिखने पर हर अक्षर से पीरियाडिक टेबल के एलीमेंट के गुण आ जाते। जैसे माला के एम से मेटल, ए से कुछ और इसी तरह आगे भी। केमिकल एक्‍वीशन को बैलेंस करने का उसका सूत्र था- रिफ्यूजी अपान रिफ्यूजा । इसके भी अंग्रेजी के हर अक्षर से अलग अलग संकेत होते और इसके सहारे किसी भी तरह का एक्‍वीशन बैलेंस हो जाता। केमिस्‍ट्री में एक्‍वीशन बैलेंस करना सबसे बड़ी समस्‍या होती है जो इससे हल हो जाती है। वह अपने फार्मूले को उदाहरण सहित बताता भी। इससे लड़कों पर प्रभाव भी पड़ा। लड़के उसे केसी कहते। उन्‍हें पढ़ने में मजा आने लगा और केसी को पढ़ाने में। उसकी क्‍लास कोई भी बंक नहीं करता। लड़के लड़कियां सब मजा लेते। वह इतने कांफिडेंस से पढ़ाता कि टीचर क्‍या पढाएंगे। दूसरे क्‍लास के लड़के भी आने लगे तो बात प्रिंसिपल मदन मोहन पांडेय जी के कान तक पहुंची। टीचरों में सनसनी मच गई। कॉलेज के अनुशासन की बात थी। क्‍या गजब कि एक छात्र ही अपने साथियों की क्‍लास को पढ़ा रहा है। एक दिन गजब हो गया। वह क्‍लास ले ही रहा था कि प्रिंसिपल साहब दो अन्‍य टीचरों के साथ आ धमके। क्‍लास भरी हुई थी। पिन ड्राप साइलेंस था कि प्रिंसिपल साहब अचानक घुसे। सन्‍नाटा छा गया। कक्षा में ही अदालत लग गई। उससे पूछा गया कि तुम स्‍टूडेंट होकर क्‍यों पढ़ा रहे हो। तो उसने कहा कि मैं सर मैं पढा़ कहां रहा हूं। लड़के बाहर घूमते रहते हैं तो मैं उनका समय काट रहा हूं, उनका मनोरंजन भी हो रहा है। पूछा गया- तुमने पहले भी कहीं पढ़ाई की है। उसने बताया उस्‍मानिया युनिविर्सिटी में(मुझे यही याद आ रहा है) वहां से रेस्टिकेट कर दिया था और बीएससी नहीं कर पाया तो यहां एडमीशन लिया है। बाद में उसे लेकर प्रिंसिपल साहब अपने कमरे में गए और उसे कॉलेज से निकाल दिया गया। बाद में जब मैं 1975 में आज अखबार के कानपुर से खुलने पर वहां गया तो एक दिन वही विज्ञापन के किसी काम से दफ्तर आया। उसका चेहरा मैं भूला नहीं था। मैने उसे डीबीएस कालेज की घटना याद दिलाई तो उसने कहा कि तुम भी उस समय वहीं थे क्‍या। मैनें उसे सब घटना बताई। उसने बताया कि उसने कृष्‍णा कोचिंग खोली है। बाद में पता चला कि उसने उसको किसी दूसरे को बेच दिया है। इलाहाबाद की कृष्‍णा कोचिंग शायद दूसरी थी। केसी ने आज के दफ्तर में हाथ की सफाई का दो एक खेल भी दिखाया। पता नहीं बाद में उसका क्‍या हुआ। फिर कभी मुलाकात नहीं हुई।

डायरेक्‍ट टेस्‍ट और ड्राई टेस्‍ट आसान होते लेकिन किताबों में मिलते नहीं। सिर्फ कार्बोनेट आसानी से निकल जाता।रंग आदि से कंपाउंड का अंदाज तो लग जाता लेकिन कफर्म करने के लिए टेस्‍ट तो करने पड़े। किसी ने बताया कि कोलकाता के प्रो लाडलीमोहन मित्रा की इनआर्गेनिक केमिस्‍ट्री की किताब में डाइरेक्‍ट और ड्राई टेस्‍ट दिए गए है। मैं उस किताब को ढूढने लगा कहीं नहीं मिली। फिर परेड की एक दूकान से उसे मंगाने के लिए कहा। एक हफ्ते बाद दूकानदार कहीं से उसे मंगाया। थी तो दस रुपये की ही लेकिन अच्‍छी किताब थी। वह बाद में चंद्रशेखर और राहुल के काम आई। इसी तरह परेड से एजे मी और पार्टिंगटन की केमिस्‍ट्री की किताबें भी फुटपाथ से खरीदीं। परेड में उन दिनों फुटपाथ पर कई ऐसी दूकानें किताबों की लगतीं, जहां पुरानी अच्‍छी किताबें मिल जातीं। उसी साल हम लोगों के कोर्स में डाई( रंग) को भी शामिल किया गया था। यह किसी किताब में नहीं मिलता। इस पर थ्‍योरी के ही सवाल आते जिसमें जाहिर है डिस्‍क्राइब करना होता है। एजे मी की किताब में डाई पर दो पेज थे। बस इसी से मेरा काम चल गया। मैने उसे तैयार कर लिया और उसके समीकरण भी याद कर लिए। ऐसा संयोग कि परीक्षा में उस पर पूरा एक सवाल आया। मैने उसे सबसे अच्‍छा लिखा। परीक्षा में उस बार एक दिलचस्‍प घटना घटी। मैंने कभी नकल नहीं की। सोचता हूं जो लोग नकल करने के लिए जितनी मेहनत में पर्ची बनाते हैं,उतने में तो सवाल भी याद किया जा सकता था। मेरे कई साथी थे जो किताब के पन्‍ने तक फाड़ लेते थे,नकल करने के लिए। वे इतनी चतुराई से नकल करते कि पकड़ में न आते।

हम कई लोग जो आर्मापुर इंटर कालेज में साथ थे, डीबीएस कालेज में भी साथ रहे। निशिनाथ चंद अवस्‍थी का घर गोबिंद नगर में ही था। वह किराये पर रहता था। उसके बड़े भाई एयरफोर्स में थे, जिनके साथ वह रहता था। एक कमरा, एक किचन और बाथरूम था उसके पास। हम लोग आते जाते उसी के यहां रुक जाते। साथ में कभी कभी उसकी भाभी भी रहतीं तो चाय भी मिल जाती। कभी वहीं साइकिल खड़ी करके पैदल ही स्‍कूल चले जाते। वहीं सुशील पांडे से भी परिचय हुआ। उसका अपना घर था जिसके नीचे चाय नमकीन की दूकान थी। कभी कभी वहां भी बैठक हेा जाती। सुशील बाद में इफ्को फूलपुर अस्‍पताल में चीफ केमिस्‍ट हो गया। जब शिवाकर मामा वहां रहते थे तो हम लोगों का वहां आना जाना लगा रहता था। मामा ने ही बताया कि तुम्‍हारा एक साथी यहीं पर है। वह लेकर उसके यहां गए। पुरानी बातें हुईं। सुशील थोड़ा आक्रामक स्‍वभाव का था। स्‍कूल में भी मारपीट करता रहता। फूलपुर अस्‍पताल में भी डाकटर साहब को परेशान करता रहता था। डाक्‍टर साहब एक वरिष्‍ठ पत्रकार के रिश्‍तेदार थे। मुझसे कहा गया तो मैने सुशील से कहा। उसने कहा डाक्‍टर सब अकेले खाना चाहते हैं। मैं कैसे छोडूं। खैर उससे दो चार बार मिलना हुआ। दो एकबार वह मेरे दफ्तर अमृत प्रभात भी आया। अब रिटायर हो कर शायद इलाहाबाद में ही रह रहा है।निशिनाथ भी इटावा के अजीतमल में बॉटनी पढ़ाने के बाद रिटायर हो गए हैं। मेरी उम्र के हैं तो सब रिटायर ही हो गए होंगे। इस उम्र में अपने छात्र जीवन के सा‍थियों की चर्चा करना गजब का अतीजजीवी बना देता है।

क्रमशः 26

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