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“पत्रकारिता की दुनिया :20”: “आज से विदाई”! : रामधनी द्विवेदी :46:

रामधनी द्विवेदी

“पत्रकारिता की दुनिया :20”: “अखबार की गर्मी”! : रामधनी द्विवेदी :46:

आज जीवन के 71 वें वर्ष में जब कभी रुक कर थोड़ा पीछे की तरफ झांकता हूं तो सब कुछ सपना सा लगता है। सपना जो सोच कर नहीं देखा जाता। जिसमें आदमी कहां से शुरू हो कर कहां पहुंच जाता है? पता नहीं क्‍या-क्‍या घटित होता है? कभी उसमें कुछ दृश्‍य और लोग पहचाने से लगते हैं, तो कभी हम अनजाने लोक में भी विचरने लगते हैं। जगने पर असली दुनिया में आने पर जो देखें होते हैं,उसके सपना होने का बोध हेाता है। यदि सपना सुखद है तो मन को अच्‍छा लगता है, यदि दुखद है तो नींद में और जगने पर भी मन बोझिल जाता है। सुखद सपने बहुत दिनों तक याद रहते हैं, हम अपने अनुसार उनका विश्‍लेषण करते हैं और दुखद सपने कोई याद नहीं रखता, क्‍योंकि वह पीड़ा ही देते हैं। यही हमारी जिंदगी है। जब हम कभी रुक कर पीछे देखते हैं तो सुखद और दुखद दोनों बातें याद आती हैं। इनमें से किसी अपने को अलग भी नहीं किया जा सकता क्‍योंकि बिना ‘ दोनों ‘ के जिंदगी मुकम्‍मल भी तो नहीं होती। जिंदगी की धारा के ये दो किनारे हैं। बिना दोनों के साथ रहे जिंदगी अविरल नहीं होगी और उसमें थिराव आ जाएगा। तो मैं अपनी जिंदगी के दोनों पक्षों का सम्‍मान करते हुए उन्‍हें याद कर रहा हूं। जो अच्‍छा है, उसे भी और जो नहीं अच्‍छा है उसे भी, सुखद भी दुखद भी।  तो क्‍यों न अच्‍छे से शुरुआत हो। यह स्‍मृति में भी अधिक है और इसमें कहने को भी बहुत कुछ है। जो दुखद या अप्रिय है, वह भी कालक्रम में सामने आएगा। लेकिन मैं सबसे अनुनय करूंगा कि इसे मेरे जीवन के सहज घटनाक्रम की तरह ही देखें। मैं बहुत ही सामान्‍य परिवार से हूं, मूलत: किसान रहा है मेरा परिवार। आज भी गांव में मेरे इस किसानी के अवशेष हैं, अवशेष इसलिए कि अब पूरी तरह किसानी नहीं होती। पहले पिता जी अवकाश ग्रहण के बाद और अब छोटा भाई गांव पर इसे देखता है। खुद खेती न कर अधिया पर कराई जाती है लेकिन कागजात में हम काश्‍तकार हैं। उस गांव से उठकर जीवन के प्रवाह में बहते-बहते कहां से कहां आ गया, कभी सोचता हूं तो जैसा पहले लिखा सब सपना ही लगता है। कभी सोचा भी न था कि गांव के खुले माहौल में पैदा और बढ़ा-बड़ा हुआ मैं दिल्‍ली-एनसीआर में बंद दीवारों के बीच कैद हो जाऊंगा। लेकिन वह भी अच्‍छा था, यह भी अच्‍छा है। जीवन के ये दो बिल्‍कुल विपरीत ध्रुव हैं जो मुझे परिपूर्ण बनाते हैं। कुदाल के बीच शुरू हुई जिंदगी ने हाथों में कलम पकड़ा दी और अब वह भी छूट गई और लैपटॉप ने उसका स्‍थान ले लिया। कुदाल से शुरू और कलम तक पहुंची इस यात्रा के पड़ावों पर आप भी मेरे साथ रहें, जो मैने देखा, जिया, भोगा उसके सहभागी बनें।

रामधनी द्विवेदी

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और दैनिक जागरण समाचार पत्र की कोर टीम के सदस्य हैं।

“पत्रकारिता की दुनिया: 20”

गतांक से आगे…

“आज से विदाई”!

थोड़ दिनों बाद अमृत प्रभात से नियुक्ति पत्र मिला जिसमें पूरा वेतनमाान, नियम कानून आदि थे। यह मेरा पहला नियुक्ति पत्र था। मैने उसे स्‍वीकार कर पावती लौटाई जिसमें बताया कि मैं 10 दिसंबर 1977 को ज्‍वाइन करुंगा। थोड़े दिनों बाद के बी माथुर साहब का अंतर्देशीय पत्र भी मिला जिसमें उन्‍होंने मुझे अखबार की तैयारी के बारे में बताया और लिखा था कि आपको यहां काम करने में आनंद मिलेगा। उनका पत्र और वह पहला नियुक्ति पत्र मेरे पास आज भी सुरक्षित है।

जब मेरी नियुक्ति अमृत प्रभात में हो गई तो मैने आज में बता दिया, हालांकि यह बात फैल चुकी थी। विनोद भैया ने पूछा भी कि तुम पत्रिका में जा रहे हो ?

 मैने बताया कि जी।

उन्‍होंने मुझे रोकने की कोशिश की और बताया कि तुम्‍हारा वेतन बढ़ा देता हूं। उस समय तक मुझे चार सौ के आसपास वेतन मिलता था। उन्‍होंने डेढ़ सौ रुपये बढ़ा कर 540 रुपये किए और कहा कि यह सबसे अधिक वेतन वृद्धि है। बात सही थी। 25 या 50 रुपये से अधिक किसी का वेतन उन दिनों नहीं बढ़ता था। मैने कहा कि अमृत प्रभात में मुझे 660 रुपये मिलेंगे जो फिर भी अधिक हैं।

उनका कहना था कि इससे अधिक मैं नहीं कर सकता। जाओ लेकिन कभी जरूरत पड़े तो मुझे याद रखना।

मैंने बता दिया कि मैं दिसंबर में ज्‍वाइन करूंगा, तब तक आपके साथ काम करुंगा।

एक शिफ्ट इंचार्ज छोड़ कर जा रहा था। मेरी शिफ्ट में लोग थे जो काम संभाल लेते, लेकिन यह सूचना बनारस को दी गई और एक दिन अचानक विद्याभास्‍कर जी आ गए। उस दिन मेरी रात की शिफ्ट थी। मैं छह बजे के आसपास आफिस पहुंचा। ज्‍योंही मैं अपनी सीट पर बैठने लगा, ‍स्थानीय संपादक के कक्ष से, जो मेरी सीट के पीछे की तरफ था, विद्याभास्‍कर जी निकले।

मैने उन्‍हें प्रणाम किया तो वह बोले- आप रामधनी जी हैं?

 मैंने कहा जी

फिर उन्‍होंने पूछा – आपकी नौकरी पत्रिका में लग गई है?

मैने कहा- जी।

इस पर उन्‍होंने कहा कि जब आपकी नौकरी दूसरी जगह लग गई है तो यहां काम करना अनुचित है। आपने अभी इस्‍तीफा भी नहीं दिया है। आप इस्‍तीफा दे दीजिए और यदि छुट्टी बकाया हो तो उसे ले लीजिए।

मैंने वहीं आफिस से कागज लेकर जिस पर हम लोग खबर लिखते थे, ‍इस्तीफा लिखा और अलग से छुट्टी का प्रार्थना पत्र भी। मैने दोनों उन्‍हें दिए और पूछा कि आज मैं काम करूं कि नहीं?

तो वह बोले कि जब इस्‍तीफा दे दिया है तो काम क्‍यों करेंगे? आप अब जा सकते है, आज से मुक्‍त हैं।

मैं उन्‍हें धन्‍यवाद कहा। साथियों को नमस्‍ते की और विनोद भैया से मिलने के बाद आर्मापुर चला आया। पिता जी को बता दिया कि यहां इस्‍तीफा दे दिया है और दिसंबर में इलाहाबाद ज्‍वाइन करने जाना है। यह नवंबर की शुरुआत का कोई दिन था। मैं कुछ दिन छुट्टी पर रहा।

इस बीच एक घटना घटी। आर्मापुर में एक व्‍यक्ति ने अपनी पत्‍नी के चरित्र पर संदेह होने पर दो बच्‍चों सहित उसका गला काटा और थाने पहुंच कर अपने को गिरफ्तार करा दिया। यह बात पूरे आर्मापुर में फैल गई। मैं भी मौके पर पहुंचा। पूरे घटनाक्रम की जानकारी ली और नोट किया। आर्मापुर में किसी अखबार का कोई रिपोर्टर नहीं था। यह खबर सभी अखबार पुलिस से मिली जानकारी के आधार पर ही छापते। मेरे पास अधिक सूचना थी। मैंने सिन्‍हा जी की सीख याद कर आसपास के लोगों से भी कुछ बात की थी। मैं क्‍वार्टर पर आया और पिता जी से कहा कि मैं आज के दफ्तर जा रहा हूं।

वह बोले क्‍यों?

तो मैने पूरी बात बताई। वह बोले कि नौकरी छोड़ दिए हो तो जाने की क्‍या जरूरत है। वे लोग जाने कैसे खबर छपेगी।

मैंने कहा, नहीं – ढाई साल मैने वहां नौकरी की है और मन से जुड़ा हूं तो मैं जाकर खबर बना कर तीन घंटे में आ जाता हूं।

पिता जी ने कहा जाओ फिर।

मैं साइकिल लेकर नौ किमी आज के दफ्तर गया। शाम हो गई थी। मंगल जायसवाल जी और विनोद शुक्‍ला थे। उनसे बताया कि मैं क्‍यों आया हूं। दोनो लोग खुश हुए और बोले, लिखो खबर।

मैने वह खबर लिखी जो लोकल में लीड छपी। जाहिर है जागरण में पुलिस से‍ मिली सूचना छपी और आज में आंखों देखी। विनोद भैया मुझे शायद इन्‍हीं कारणों से बहुत मानते थे। वह हमेशा मुझे याद रखे रहे और जब अमृत प्रभात दो बार आर्थिक कारणों से बंद हुआ तो उन्‍होने ने मुझे खुद जागरण ज्‍वाइन करने का प्रस्‍ताव रखा लेकिन मैने उस समय टाल दिया और बाद में 1999 में जागरण में आया। उसकी अलग कहानी है जो आगे पढ़ने को मिलेगी।

आज में जो साथी मिले उनमें शैलेंद्र दीक्षित और रामकृपाल सिंह से अभी तक संपर्क है। शैलेंद्र तो जागरण में ही आए, मेरे आने के लगभग साल भर बाद। उन्‍होंने बिहार और झारखंड में जागरण को जमाया और बिहार के राज्‍य संपादक पद से रिटायर हुए। रामकृपाल नवभारत टाइम्‍स के संपादक पद से रिटायर हुए और गाजियाबाद के वसुंधरा में ही रह रहे हैं। शैलेंद्र दीक्षित पटना में ही रहते हुए एक न्‍यूज पोर्टल चला रहे हैं। मेरी टीम में रमाकांत शर्मा उद्भ्रांत भी थे। पहले वह रिपोर्टिंग में थे फिर शादी होने के बाद जनरल डेस्‍क पर आए। रिपोर्टिंग में रहते हुए उन्‍होंने कई अच्‍छे इंटरव्‍यू लिए थे और इनसे मिलिए कॉलम बहुत पसंद किया जाता था। पहले वह विद्याव्रत जी की शिफ्ट में थे लेकिन उनसे न पटने के बाद में मेरी शिफ्ट में आए और मेरे आज छोड़ने तक साथ रहे।

जब मैं नोएडा आया तो अचानक एक दिन लखनऊ से सुभाष राय और सत्‍येंद्र मिश्र ने उनसे फोन पर बात कराई और नोएडा आने पर मुझसे मिले भी। वह आज के दिनों में ही स्‍थापित कवि और कहानीकार हो गए थे। अब भी निरंतर रचनाकर्म में लगे हैं और हर साल उनकी दो तीन किताबें आ ही जाती हैं। बीच बीच में मुलाकात हो जाती है। इस समय अपनी जीवनी के दूसरे खंड को अंतिम रूप देने में लगे हैं। दूरदर्शन के निदेशक पद से अवकाशग्रहण करने के बाद इस समय नोएडा में ही आवास ले रह रहे हैं।

अमर सिंह से जागरण में रहते मुलाकात हुई थी लेकिन इधर और कोई जानकारी नहीं मिली। विद्याव्रत जी रांची में जागरण काफी दिन रहे फिर लखनऊ में भी लेकिन अब घर पर हैं। उनकी अवस्‍था भी 80 के आसपास होगी। चारुचंद्र जी नोएडा में अपने बेटे के साथ रहते हैं। उनके बारे में कुछ महीने पहले पता चला लेकिन उनसे संपर्क नहीं हो पाया। पता चला कि वह स्‍वस्‍थ हैं। वह भी 80 के ऊपर ही होंगे। दिलीप शुक्‍ला कानपुर में ही हैं। बसंत गुप्‍त खेल डेस्‍क के इंचार्ज थे, बाद में वह नवभारत टाइम्‍स में चले गए और शायद वहीं से रिटायर हो गए हैं। फोन से संपर्क में हैं। ज्ञानेंद्र बहादुर सिंह के बारे में भी कोई ताजा जानकारी नहीं है। वह मेरी ही शिफ्ट में थे। वह सबसे अलग व्‍यक्ति थे और अपना शीन कॉफ दुरुस्‍त रखते थे। वह हमेशा सजे संवरे रहते और नई साइकिल पर चलते। वह काफी दिनों तक जागरण और आज में साथ ही काम करते रहे। एक जगह दिन की शिफ्ट तो दूसरी जगह रात की। वह कैसे यह कर लेते, यह वह ही जाने। लेकिन इसका असर उन पर पड़ता और वह काम करते- करते सोने लगते। खबर लिखते समय भी सो लेते और कलम उनके हाथ से गिर जाती। हम लोगों के मजाक करने पर भी वह नाराज नहीं होते। वह अपनी पत्‍नी के नाम कई अखबारों के लिए खबरें भी लिखते। उनके बारे में भी ताजा जानकारी नहीं है।

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