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“1950 के आसपास का महराजगंज कस्बा”: 6: के एम अग्रवाल

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के. एम. अग्रवाल

‘मेरा जीवन’: के.एम. अग्रवाल: 92: 

सालों से मन में यह बात आती थी कि कभी आत्मकथा लिखूँ। फिर सोचा कि आत्मकथा तो बड़े-बड़े लेखक, साहित्यकार, राजनेता, फिल्मकार, अन्तर्राष्ट्रीय खिलाड़ी, वैज्ञानिक, बड़े-बड़े युद्ध जीतने वाले सेनापति आदि लिखते हैं और वह अपने आप में अच्छी-खासी मोटी किताब होती है। मैं तो एक साधारण, लेकिन समाज और देश के प्रति एक सजग नागरिक हूँ। मैंने ऐसा कुछ देश को नहीं दिया, जिसे लोग याद करें। पत्रकारिता का भी मेरा जीवन महज 24 वर्षों का रहा। हाँ, इस 24 वर्ष में जीवन के कुछ अनुभव तथा मान-सम्मान के साथ जीने तथा सच को सच और झूठ को झूठ कहने का साहस विकसित हुआ। लेकिन कभी लिखना शुरू नहीं हो सका। एक बार पत्रकारिता के जीवन के इलाहाबाद के अनुज साथी स्नेह मधुर से बात हो रही थी। बात-बात में जीवन में उतार-चढ़ाव की बहुत सी बातें हो गयीं। मधुर जी कहने लगे कि पुस्तक के रूप में नहीं, बल्कि टुकड़ों-टुकड़ों में पत्रकारिता के अनुभव को जैसा बता रहे हैं, लिख डालिये। उसका भी महत्व होगा। बात कुछ ठीक लगी और फिर आज लिखने बैठ ही गया।

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महराजगंज की “कुछ शक्सियतें”:6

इतिहास की बात करें तो महराजगंज गौतम बुद्ध की धरती मानी जाती है। आधुनिक काल की बात करें तो यह स्वतंत्रता संग्राम सेनानी प्रो. शिब्बनलाल सक्सेना की धरती मानी जाती है। इसी अवधि में कुछ ऐसे व्यक्तित्व भी यहां हुए, जिन्होंने जीवन पर्यंत यहां की सेवा की और अब आज नहीं हैं। इनमें से कुछ ऐसे हैं, जिनसे मैं स्वयं भी गहराई से जुड़ा रहा और जिनके बारे में लिखना ज़रूरी लगता है।

“1950 के आसपास का
महराजगंज कस्बा”

छोटे बच्चों के लिए मां की गोद में चिपक कर बैठना और बड़ों के लिए बचपन को याद करना, शायद दोनों ही स्थिति में समान सुख दु:ख और संतोष की अनुभूति होती है। सच झूठ अथवा अच्छे बुरे की सीमा से परे एक आजादी और बेफिक्री, कुछ इस प्रकार बचपन को रेखांकित किया जा सकता है।

मेरे बाबा स्व. बसंतलाल अग्रवाल 1950 में महराजगंज तहसील में खजांची के पद से अवकाश ग्रहण कर चुके थे। पिता जी श्री घनश्याम दास अग्रवाल को उनकी जगह पर यहीं खजांची पद मिल गया था। तब हम लोग वर्तमान पुरानी कचहरी परिसर में ही दक्षिण पश्चिम कोने वाले हिस्से में रहा करते थे। बाबा रोजाना एक पैसे देते, जिसकी गरम गरम जलेबी लाकर तबके हम चार भाई बहन दो दो जलेबी खा लेते थे। पूरा कचहरी परिसर हमारे लिए एक बड़ा आंगन और कचहरी के बाहर स्थित छोटा, बहुत छोटा सा बाजार, गिने चुने सहपाठियों से मिलने जुलने और खेलने का स्थान था।

1951 की जुलाई में कस्बे के एकमात्र प्राइमरी स्कूल में कक्षा एक में मेरा दाखिला हुआ। दवात पट्टी की पूजा हुई और हल्दी के रंग में रंगी धोती और कुर्ता पहना कर स्कूल भेज दिया गया। पहले ही दिन स्कूल में धोती खुल गयी थी, फिर धोती पहन कर जाना दूसरे दिन से ही बंद हो गया।

घर से लगभग डेढ़ फर्लांग की दूरी पर प्राइमरी स्कूल स्थित था, जो खपड़े की जगह पक्के कमरों के रूप में आज भी स्थित है। कंकड़ से बने रास्ते के दोनों ओर जामुन के सघन वृक्ष थे। दूसरे ही दिन से घर से तो स्कूल के लिए तैयार करके भेजा जाता, लेकिन थोड़ा पहले ही मिडिल स्कूल के निकट जामुन के एक पेड़ के नीचे लगभग दिन भर बैठा रहता, इधर उधर करता और शाम को छुट्टी होने के समय घर आ जाता। एक दिन पकड़ा गया और तब से कक्षा में बैठने लगा।

उस समय अक्षर ज्ञान कराने का तरीका भी अजीब था। पटरी पर दुधिया से लिखवाया तो जाता ही था, अच्छी राइटिंग की प्रैक्टिस करने के लिए सड़क की धूल को कुर्ते/कमीज के अगले हिस्से से चालकर मैदे जैसी चिकनी धूल जमीन पर फूंक मारकर, उसे चिकना कर, फिर उसपर लिखना होता था। रोजाना कमीज बिलकुल गंदी हो जाती थी। मां मारकीन का रुमाल दे देतीं, लेकिन उससे भला कौन धूल चालता! कुर्ते में धूल चालने का मजा ही कुछ और था।

अब तो बच्चों को घरों पर भी मार नहीं पड़ती, स्कूल में तो मास्टर मार ही नहीं सकते। लेकिन मेरे बचपन का समय आज की तरह नहीं था। प्राइमरी कक्षाओं में पढ़ने के दौरान स्कूल से आने के बाद, सुबह बचाकर रखा दाल चावल खाता और फिर थोड़ा इधर उधर घूमने निकल जाता। अगर अंधेरा होने के काफी पहले घर वापस नहीं आ जाता, तो बाबूजी (पिता जी) लालटेन लेकर मुझे खोजने निकल जाते। और तब अम्मा (मां) घबरा जाती थीं कि अब तो मोहन (बचपन का नाम) की पिटाई हो जायेगी। वह मन ही मन मनाने लगतीं थी कि मोहन जल्दी घर आ जाये। मेरे घर आने के कुछ देर बाद यदि बाबूजी लौटते थे तो मेरा पिटना तय था।

मैं अम्मा के पीछे भागता और बाबूजी मुझे पकड़ने की कोशिश करते। ऐसा करते मैं गोल गोल अम्मा के चारों तरफ घूमता हुआ बचने की कोशिश करता। कभी कभी बाबूजी का थप्पड़, जो मुझे मारने के लिए होता, लेकिन मुझे बचाने के प्रयास में थप्पड़ अम्मा को लग जाता। और तब बाबूजी वहां से हट जाते।

सात आठ में पढ़ते हुए जब शाम को घर आने में देर होती और बाबूजी पूछते, ‘कहां थे ?’

मैं तुरंत कहा देता, ‘रामू श्यामू के साथ था।

और फिर मार खाने से बच जाता। ऐसा इसलिए होता, क्योंकि बाबूजी की नजर में रामू श्यामू काफी अच्छे बच्चे माने जाते, जबकि वे दोनों भाई मुझसे तीन चार साल बड़े थे।

आज जो बलिया नाला है, बचपन में इसे नदी के रूप में ही हम सब समझते थे। उसमें अपने बचपन के दोस्त ढुनमुन के साथ कटिया से मछली मारने और किनारे किनारे घूमने का आनंद भला अब कहां ? कस्बे का पूरा बाजार धर्मशाले से चौराहा होते हुए पोस्ट आफिस से थोड़ा आगे तक ही था। कपड़ा, किराना, जनरल मर्चेंट और मिठाई की सिर्फ दो दो दुकानें ही बाजार में थीं। कपड़े की श्री रामलखन दास की ‘जैहिन्द’ नाम की एक दुकान धर्मशाला के दक्षिण जहां आज जिला सहकारी बैंक है और दूसरी श्री राजमंगल रामचंद्र की दुकान चौराहे और पोस्ट आफिस के बीच में थी। श्री राजमंगल की दुकान के सामने ही जनरल मर्चेंट की दोनों दुकानें श्री किशोरी लाल और श्री रामचन्द्र की थीं। पूरे कस्बे में सिर्फ इन्हीं दो दुकानों में शाम अंधेरा होने पर पेट्रोमेक्स जलता था। तब यह बहुत बड़ी बात मानी जाती थी। श्री सामा साह की किराने की दुकान काफी अच्छी मानी जाती थी, जो पोस्ट आफिस के पास थोड़ा दक्षिण में थी औश्र श्री झकरी शाह की एक दूसरी दुकान चौराहे पर थी। इन्हीं के बगल में श्री रज्जाक की जूते की एक अकेली दुकान थी।

श्री सुक्खू साह की भी छोटी सी किराने की एक दुकान सदर विधायक श्री जयमंगल कन्नौजिया के मकान के ठीक पहले थी। मिठाई और चाय की सबसे प्रसिद्ध दुकान बिसार्थी की थी, जो चौराहे के निकट ही पूर्व दिशा में थी। अमरुतिया के रामानंद की मिठाई की एक और दुकान कचहरी गेट के पास थी, लेकिन कम चलती थी। वहीं पर रंगीलाल भड़भूजे की लाई चने की भी एक दुकान थी। चौराहे पर पटहरे की भी सूई धागा, टिकुली आदि घरेलू इस्तेमाल की एक छोटी सी दुकान थी। सब्जी के लिए चौराहे के निकट बृहस्पतिवार को, हनुमानगढ़ी के निकट अमरुतिया बाजार में शनिवार को तथा मऊपाकड़ में मंगलवार को बाजार लगा करता था। उन दिनों दवा की तो कोई दुकान ही नहीं थी। छोटी मोटी मौसमी बीमारियों में लोग घरेलू नुस्खे आजमाते थे और खास बात होने पर सरकारी अस्पताल में दिखाते थे या फिर गोरखपुर भागते थे। आज की सोचें तो आश्चर्य होता है कि तब सरकारी अस्पताल में मरीजों को काम की दवाएं मुफ्त में मिल जाती थीं, अधिकतर मिक्सचर, गोलियां या फिर मरहम पट्टी।

सब्जी वाले बाजारों में ही गेहूं, चावल, दाल आदि भी मिलता था, जिससे सरकारी कर्मचारियों के परिवारों का काम चलता था। सबसे अधिक परेशानी गेहूं पिसाने की होती थी। कस्बे में आटे की एक चक्की प्यारे लाल की थी, जो प्राय: खराब रहती थी। लोगों को लगभग तीन किमी दूर बांसपार जाना पड़ता था। शाम को जब पुक-पुक की आवाज आती, तो पता चल जाता कि चक्की चलने लगी है। बाद में यहां बृहस्पतिवार वाले बाजार में बैकुंठपुर के कपड़े वाले श्री रामलखन दास की एक चक्की लग गयी और तब लोगों ने राहत की सांस ली।

तत्कालीन महराजगंज तहसील, गोरखपुर जिले का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र था। गोरखपुर में जो भी व्यापारिक प्रतिनिधि अपने सामानों के प्रचार के लिए आते, वे महराजगंज भी अवश्य आते। 1954 का वर्ष इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है। संभवतः अगस्त का महीना था और बलिया नाले में भयंकर बाढ़ आयी थी। कस्बे के लोग डरे हुए थे। बाढ़ का पानी लोहे के पुल के ऊपरी हिस्से को छूने वाला था। पुल के सभी खंभे पूरी तरह डूब चुके थे। पुल से बाढ़ का दृश्य देखकर स्कूल पहुंचा तो वहां ‘ हमदर्द दवाखाना ‘ के प्रचार प्रतिनिधि आये हुए थे। हम सभी छात्रों को एक फार्म दिया गया, जिसे भरना था। बदले मैं हमदर्द की छोटी छोटी डायरियां मिलीं। हम सभी बहुत खुश हुए। इसी वर्ष पहली बार लिप्टन चाय के प्रचार प्रतिनिधि कार से मुख्य चौराहे पर आये थे। कार का पिछला हिस्सा खुलने वाला था, जहां चाय बनाने की व्यवस्था थी। लोग उत्सुकतावश कार के इर्द-गिर्द इकट्ठा हो गए। कम्पनी की ओर से लोगों को गर्म गर्म चाय कप प्लेट में सभी को पिलाई गयी।

क्रमशः 93

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