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” विमर्श का अर्थ !!!”: “इन आँखिन देखी” :27: विभूति नारायण राय IPS

1947 से 1949 के बीच नई दिल्ली की संविधान सभा मे जो कुछ घट रहा था, वह किसी शून्य से नही उपजा था । यह असाधारण ज़रूर था पर अप्रत्याशित तो बिल्कुल नही कि रक्त रंजित बटवारे के बीच , जब काफ़ी लोगों ने मान लिया था कि हिंदू तथा मुसलमान दो अलग राष्ट्र हैं और इस लिये साथ नही रह सकते , संविधान सभा ने देश को ऐसा संविधान दिया जो एक उदार और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की परिकल्पना करता है । अप्रत्याशित इसलिये नही कि देश की आज़ादी की लड़ाई जिन मूल्यों से परिचालित हो रही थी, वे आधुनिकता और धर्मनिरपेक्षता की ही उपज थे ।

” विमर्श का अर्थ !!!”

विभूति नारायण राय, IPS

लेखक उत्तर प्रदेश में पुलिस महानिदेशक रहे हैं और महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति भी रह चुके हैं

जमशेदपुर कई अर्थों मे बड़ा दिलचस्प शहर है । यहाँ 1907 मे टाटा औद्योगिक घराने की नींव रखने वाले जमशेद जी नौशरवान जी टाटा ने इलाक़े के पहले बड़े कारख़ाने टिस्को की स्थापना के साथ ही भविष्य के एक बड़े शहर की शुरुआत भी की थी । वे संभवतः पहचान गये थे कि खनिज पदार्थों की प्रचुर मात्रा में उपलब्धता , खड़कई तथा सुवर्णरेखा नदी के आसानी से उपलब्ध पानी और कोलकाता से नजदीकी के कारण साक़ची नामक यह छोटा सा गाँव उनके वंशजों को इतनी समृद्धि बख्शेगा कि भारत के मारवाड़ी ख़ानदानों के बीच यह टाटा परिवार अलग से चमकेगा । अपनी सुदृढ़ नागरिक सुविधाओं , फ़ुटबाल और शिक्षण संस्थाओं के अतिरिक्त यह शहर मुझे इसके नागरिकों के राष्ट्रीय / अंतर राष्ट्रीय मुद्दों पर बहसों मे सक्रिय भागीदारी और गहरी समझ के लिये उल्लेखनीय लगता है ।
इस बार की मेरी चौथी यात्रा एक ऐसे कार्यक्रम के सिलसिले मे थी जिसका विषय शुरू मे तो मुझे घिसी पिटी लफ़्फ़ाज़ी भरा लगा। पर वहाँ जाकर शहरियों की भागीदारी और जुड़ाव देखकर समझ मे आया कि हाशिये पर अल्प संख्यकों, आदिवासियों , दलितों या औरतों के लिये ऐसे विमर्श क्या अर्थ रखते हैं ? विषय भारतीय संविधान और उसके चलते देश की अखंडता या संप्रभुता को बचाने से जुड़ा था । आयोजक सरदार बलदेव सिंह , शशि कुमार या रियाज़ ने आयोजक संस्था का नाम भी देश बचाओ संविधान बचाओ अभियान रखा है । विभिन्न राजनैतिक दलों और स्वयं सेवी संगठनों से जुड़े ये लोग संविधान को लेकर कितने चिंतित हैं , इसे इनके पिछले कुछ वर्षों के कार्यक्रमों की सूची देख कर समझा जा सकता है । पिछले कुछ वर्षों मे जो बड़े मानवाधिकार आंदोलन देश में हुये, उन की प्रतिगूँज इस संघटन के माध्यम से जमशेदपुर मे सुनाई दी है , चाहे वह रोहित वेमुला की आत्महत्या हो या नागरिकता क़ानून में संशोधन का मसला ।

देश बचाओ संविधान बचाओ अभियान को सही ही लगता है कि हाल फ़िलहाल भी बहुत कुछ ऐसा घटा है जिसके चलते नागरिकों को स्मरण कराना ज़रूरी है कि संविधान की हिफ़ाज़त की शपथ लेते रहना सिर्फ़ औपचारिकता भर नही है । आज़ादी के फ़ौरन बाद मुसलमानों की एक पस्त भीड़ के सामने बोलते हुये मौलाना आज़ाद ने कहा था कि उन्हे तब तक अपनी हिफ़ाज़त की चिंता नही करनी चाहिये जब तक 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ भारतीय संविधान सुरक्षित है । अब देश के दूसरे हाशिये के समुदायों को भी समझ मे आ गया है कि अगर संविधान नही बचा तो उनके एक सभ्य मनुष्य के रूप में जीने की संभावना भी नही बचेगी । इस संविधान को बनने और फिर उसके जनता द्वारा स्वीकृत किये जाने की प्रक्रिया बार बार याद किये जाने की ज़रूरत है ।

1947 से 1949 के बीच नई दिल्ली की संविधान सभा मे जो कुछ घट रहा था, वह किसी शून्य से नही उपजा था । यह असाधारण ज़रूर था पर अप्रत्याशित तो बिल्कुल नही कि रक्त रंजित बटवारे के बीच , जब काफ़ी लोगों ने मान लिया था कि हिंदू तथा मुसलमान दो अलग राष्ट्र हैं और इस लिये साथ नही रह सकते , संविधान सभा ने देश को ऐसा संविधान दिया जो एक उदार और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की परिकल्पना करता है । अप्रत्याशित इसलिये नही कि देश की आज़ादी की लड़ाई जिन मूल्यों से परिचालित हो रही थी, वे आधुनिकता और धर्मनिरपेक्षता की ही उपज थे । अस्पृश्यता या स्त्री पुरुष समानता जैसे प्रश्नों पर संविधान सभा की दृष्टि एक आधुनिक दृष्टि थी और इस के चलते भारतीय समाज मे बड़े दूरगामी परिवर्तन होने जा रहे थे ।

इसी तरह एक करोड़ से अधिक लोगों के विस्थापन और विकट मार काट के बीच भी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अर्जित हिंदू मुस्लिम एकता की भावना ने ही इस धर्म निरपेक्ष संविधान को संभव बनाया ।

यह संविधान 26 नवंबर 1949 को बन तो गया, पर इसे बनाने वाली सभा ही जनता से सीधे नही चुनी गयी थी और इसकी वैधता के लिये ज़रूरी था कि इस पर जन स्वीकृति की मोहर लगवाई जाय । इस ज़िम्मेदारी को निभाया पंडित जवाहर लाल नेहरू ने जो देश के प्रधानमंत्री होने के साथ साथ 1952 के प्रथम आम चुनाव के ठीक पहले एक बार फिर कांग्रेस अध्यक्ष भी चुन लिये गये थे । चुनाव के पहले 1951 मे उन्होंने देश भर घूम घूम कर 300 सभाएँ की । जालंधर से शुरू हुई इस शृंखला मे उनका एक ही एजेंडा था – लोगों को एक धर्म निरपेक्ष राज्य के लिये तैयार करना । हर सभा मे वे इस सवाल से अपना कार्यक्रम शुरू करते – देश बँटवारे के साथ आज़ाद हुआ है , हमारे बग़ल मे एक धर्माधारित इस्लामी हुकूमत क़ायम हो गयी है , अब हमे क्या करना चाहिये , क्या हमें भी एक हिंदू राज बना लेना चाहिये ?

इस सवाल का जवाब वे ख़ुद अगले डेढ़ घंटे तक आसान हिंदुस्तानी मे देते। वे लगभग अशिक्षित श्रोताओं को अपने तर्कों से क़ायल करके ही भाषण समाप्त करते कि कैसे देश की एकता , अखंडता और तरक़्क़ी के लिये एक धर्मनिरपेक्ष भारत ज़रूरी है । समय ने उन्हे सही साबित किया ।

इस्लाम के नाम पर बना पाकिस्तान 25 वर्षों मे ही टूट गया और तमाम हिचकोलों के बावजूद भारत एक मजबूत राह पर आगे बढ़ रहा है । जालंधर को पहली सभा का स्थल चुनना भी नेहरू की आगे बढ़ कर चुनौती स्वीकार करने की प्रवृत्ति का परिचायक था । जालंधर की उनकी सभा के अधिसंख्य श्रोता वे हिंदू और सिक्ख थे जो कुछ ही दिन पहले नये बने पाकिस्तान से अपने प्रियजनों और जीवन भर की जमा पूँजी गँवा कर वहाँ पंहुचे थे । नेहरू जानते थे कि अगर इन हिंसा पीड़ितों को वे समझा सके कि धार्मिक कट्टरता बुरी चीज़ है तो बाक़ी देश में उनका काम आसान हो जायेगा । यही हुआ भी , चुनावी नतीजों ने एक धर्म निरपेक्ष संविधान को वैधता प्रदान कर दी ।

कार्यक्रम के दौरान न्यायविद फ़ैज़ान मुस्तफ़ा ने एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया । एक अच्छे संविधान के बावजूद अमेरिका मे ट्रम्प के उक़सावे पर भीड़ संसद पर चढ़ दौड़ी, इस स्थिति मे सारी सदिच्छाओं का क्या होगा ? वहाँ कम से कम संस्थाओं मे इतना दम तो है कि प्रारम्भिक झटके के बाद उन्होंने अपने राष्ट्रपति का हुक्म मानने से इंकार कर दिया । क्या भारत मे संस्थाएँ इतनी मज़बूत हैं ? लोकतंत्र मे ज़रूरी है है कि विवाद या तो बातचीत से हल हों या फिर संविधान के दायरे में न्यायिक समीक्षा द्वारा , पर हाल का किसान आंदोलन इस मामले में निराशाजनक है कि सरकार ने सिर्फ़ टालमटोल के लिये मामले को सुप्रीम कोर्ट भेजने की बात की है ।

यह ख़तरा तब तक बना रहेगा जब तक हम संविधान मे शामिल धर्मनिरपेक्षता, सहिष्णुता या क़ानून के सामने सबकी बराबरी जैसे मूल्य अपने जीवन पद्धति का अंग नही बनायेंगे । संविधान मे दर्ज शब्द कितने खोखले हो सकते हैं, यह हमसे बेहतर कौन जान सकता है!

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