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‘मेरा जीवन’: के.एम. अग्रवाल: 57: गुवाहाटी की पुकार*7

के.एम. अग्रवाल

सालों से मन में यह बात आती थी कि कभी आत्मकथा लिखूँ। फिर सोचा कि आत्मकथा तो बड़े-बड़े लेखक, साहित्यकार, राजनेता, फिल्मकार, अन्तर्राष्ट्रीय खिलाड़ी, वैज्ञानिक, बड़े-बड़े युद्ध जीतने वाले सेनापति आदि लिखते हैं और वह अपने आप में अच्छी-खासी मोटी किताब होती है। मैं तो एक साधारण, लेकिन समाज और देश के प्रति एक सजग नागरिक हूँ। मैंने ऐसा कुछ देश को नहीं दिया, जिसे लोग याद करें। पत्रकारिता का भी मेरा जीवन महज 24 वर्षों का रहा। हाँ, इस 24 वर्ष में जीवन के कुछ अनुभव तथा मान-सम्मान के साथ जीने तथा सच को सच और झूठ को झूठ कहने का साहस विकसित हुआ। लेकिन कभी लिखना शुरू नहीं हो सका।

एक बार पत्रकारिता के जीवन के इलाहाबाद के अनुज साथी स्नेह मधुर से बात हो रही थी। बात-बात में जीवन में उतार-चढ़ाव की बहुत सी बातें हो गयीं। मधुर जी कहने लगे कि पुस्तक के रूप में नहीं, बल्कि टुकड़ों-टुकड़ों में पत्रकारिता के अनुभव को जैसा बता रहे हैं, लिख डालिये। उसका भी महत्व होगा। बात कुछ ठीक लगी और फिर आज लिखने बैठ ही गया।

गतांक से आगे…

गुवाहाटी की पुकार: 7

इम्फाल (मणिपुर) की यात्रा

1989 के ही किसी महीने की बात है। एक समाचार आया कि इम्फाल में किसी बड़े व्यापारी (सप्लायर) ने राज्य सरकार को स्टेशनरी की सप्लाई में लाखों का चूना लगाया है। जी.एल. साहब ने मुझसे कहा कि मैं इम्फाल जाऊँ और पता करके रिपोर्ट तैयार करूँ। उनकी रुचि हमेशा तरह-तरह के समाचारों को कवर करने में रहती थी।

बहरहाल, दूसरे ही दिन सुबह मैं प्लेन से इम्फाल पहुँच गया और एक होटल में ठहर गया। दिनभर अपने ढंग से मैंने विभिन्न सूत्रों से इस घटना की जानकारी इकट्ठा की। वहाँ हिन्दी तथा हिन्दी-अंग्रेजी मिक्स बातचीत करने में कोई परेशानी नहीं थी। फिर मौका निकालकर मणिपुर विश्वविद्यालय भी गया और हिन्दी विभाग में एक-दो प्रोफेसरों डा.देवराज और डा.जगमल सिंह से भी मिला।  इम्फाल में रहने वाले हिन्दी के मणिपुरी लेखक आचार्य राधा गोविंद थोंगम से भी मुलाकात हुई, जो हिन्दी में पतली सी एक मासिक पत्रिका भी निकालते थे। उनमें हिन्दी के प्रति असीम प्यार था।

दूसरे दिन एशिया का महिलाओं द्वारा संचालित सबसे बड़ा बाजार भी देखा। इस बाजार में साग-सब्जी से लेकर किराने के सारे सामान तथा घरों में उपयोगी दूसरे सामान भी मिलते हैं। खूब भीड़ होती है। खरीदार स्त्री-पुरुष कोई भी हो सकता है। यह बाजार किसी आधुनिक बाजार की तरह नहीं है, बल्कि पुराने ढंग की ही दुकानें हैं, जहाँ औरते जमीन पर ही कुछ बिछाकर बैठती हैं ओर सामने सामानों का ढेर होता है।

दिन का काम निपटाने के बाद रात होते-होते 8 बजे तक होटल पहुँच गया। दस मिनट बाद ही फिर टहलने के इरादे से मैं होटल से बाहर जाने लगा तो मैनेजर ने मुझे रोका और पूछा, ‘पहली बार इम्फाल आये हैं ?’ मैंने, हाँ कहा तो बोला, ‘इसीलिए रात में जा रहे हैं। ‘ उसने कहा, ‘सामने देखिये, कोई दिखाई दे रहा है ?’ सामने सड़क बिलकुल सूनी हो चुकी थी। मैनेजर ने फिर कहा, ‘जो पुलिस वाले भी सड़क पर मिलेंगे, शराब के नशे में मिलेंगे। कब क्या घटना हो जाये, कुछ निश्चित नहीं। बाहर मत जाइये।’ और मैं कमरे में वापस आ गया। वैसे मैंने दिन में भी देखा था कि सभी रिक्शेवाले पूरा मुँह गमछे से ढँक कर चलते थे। सिर्फ उनकी आँखें खुली रहती थीं। देखकर डर लगता था। कोई रिक्शावाला कहीं कोई घटना कर दे, तो उसको खोज पाना बहुत मुश्किल था।


वैसे इम्फाल पहाड़ियों और जंगलों से घिरा हुआ, देखने में रमणीक स्थान है। लेकिन राजनीतिक और अपराध एक अलग विषय है, जिसपर चर्चा के लिए अलग जगह और पर्याप्त अध्ययन भी चाहिए। दूसरे दिन दोपहर बाद विमान से मैं गुवाहाटी वापस आ गया।

आचार्य राधा गोविंद थोंगम

इम्फाल में दो दिन के दौरे में हिन्दी के क्षेत्र में कई पीढ़ियों से सेवाभाव से काम कर रहे आचार्य राधा गोविंद थोंगम से मुलाकात हो गयी। हिन्दी के प्रति उनकी सेवाओं एवं रचनाओं को देखते हुए 1988-89 में उन्हें उनकी पुस्तक ‘मणिपुर के अमर दीप‘ पर केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय से पाँच हजार का पुरस्कार प्राप्त हो चुका था। उन्होंने 1985 में ही राजकीय हिन्दी शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान से संबद्ध ‘मणिपुर हिन्दी परिषद पत्रिका’ की स्थापना की तथा इसके संस्थापक संपादक भी रहे।

आचार्य राधा गोविंद के पूर्वज 400 साल पहले सिलहट (ढांका) में वैद्यकी करते थे। इनके पूर्वज 17वीं शताब्दी में वृन्दावन आ गये और काफी लम्बे समय तक वहीँ रहे। आचार्य का जन्म 16 फरवरी, 1942 को वृन्दावन में ही हुआ तथा वहीं से उन्होंने हाईस्कूल पास किया। 1959-60 में ये त्रिपुरा आ गये तथा एक प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने लगे। वह आस-पास के क्षेत्र में भी हिन्दी का प्रचार-प्रसार करते। 1965 तक वह त्रिपुरा में ही रहे। बाद में वह 1965 में मणिपुर आ गये।

आचार्य ने इम्फाल में आर्यसमाज की स्थापना के साथ डी.ए.वी. कालेज की भी स्थापना करवाई। वह मणिपुर हिन्दी परिषद से भी जुड़े रहे। बाद में इसकी शाखाएं असम, मिजोरम और नगालैंड में भी खुल गयीं।
त्रिपुरा में आने के बाद आचार्य के पिता वैद्यराज नृत्य गोपाल कविराज और उनके मामा भी हिन्दी का प्रचार-प्रसार करते थे। उन्होंने 1951 में त्रिपुरा हिन्दी परिषद की स्थापना की। आचार्य की बुआ भी त्रिपुरा में राजघराने के लोगों को हिन्दी पढ़ाती थीं।

आचार्य ने मणिपुर आने के बाद ग्वालियर से हिन्दी में एम.ए. तथा इलाहाबाद के हिन्दी साहित्य सम्मेलन से साहित्य रत्न किया। 1979 में आचार्य ने इम्फाल में ही रहते हुए शादी कर ली। इनकी पत्नी श्रीमती पुण्यवती भी हिन्दी अध्यापिका रहीं। मणिपुर में आदिवासी के आदिवासी जातियों के जो बच्चे पहले बाहर जाकर पढ़ते थे, उन्हें पहले 60 रू. छात्रवृत्ति मिलती थी, लेकिन आचार्य के प्रयास से अप्रैल, 1989 से हाईस्कूल के छात्र को 200 रू., इंटर के  छात्र को 250 रू. और बी.ए. के छात्र को 300 रू. छात्रवृत्ति मिलने लगी।
क्रमशः 58

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