के.एम. अग्रवाल
सालों से मन में यह बात आती थी कि कभी आत्मकथा लिखूँ। फिर सोचा कि आत्मकथा तो बड़े-बड़े लेखक, साहित्यकार, राजनेता, फिल्मकार, अन्तर्राष्ट्रीय खिलाड़ी, वैज्ञानिक, बड़े-बड़े युद्ध जीतने वाले सेनापति आदि लिखते हैं और वह अपने आप में अच्छी-खासी मोटी किताब होती है। मैं तो एक साधारण, लेकिन समाज और देश के प्रति एक सजग नागरिक हूँ। मैंने ऐसा कुछ देश को नहीं दिया, जिसे लोग याद करें। पत्रकारिता का भी मेरा जीवन महज 24 वर्षों का रहा। हाँ, इस 24 वर्ष में जीवन के कुछ अनुभव तथा मान-सम्मान के साथ जीने तथा सच को सच और झूठ को झूठ कहने का साहस विकसित हुआ। लेकिन कभी लिखना शुरू नहीं हो सका।
एक बार पत्रकारिता के जीवन के इलाहाबाद के अनुज साथी स्नेह मधुर से बात हो रही थी। बात-बात में जीवन में उतार-चढ़ाव की बहुत सी बातें हो गयीं। मधुर जी कहने लगे कि पुस्तक के रूप में नहीं, बल्कि टुकड़ों-टुकड़ों में पत्रकारिता के अनुभव को जैसा बता रहे हैं, लिख डालिये। उसका भी महत्व होगा। बात कुछ ठीक लगी और फिर आज लिखने बैठ ही गया।
गतांक से आगे…
गुवाहाटी की पुकार: 21
“अलविदा गुवाहाटी “
मैंने पूर्वांचल प्रहरी क्यों छोड़ा?
पत्रकारिता की जीवन यात्रा में एकाएक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब मुझे अखबार की नौकरी छोड़ देने का निर्णय लेना पड़ा। वैसे तो मैं यह सोचकर गुवाहाटी गया था कि वहां पांच साल रहकर नार्थ ईस्ट का एक्सपर्ट बन जाऊंगा और फिर दिल्ली निकल जाऊंगा।
हुआ यह कि इलाहाबाद में जी.एल.अग्रवाला से बातचीत के दौरान ही यह तय हुआ था कि मुझे 5 हजार वेतन मिलेगा और एक साल बाद एक हजार बढ़ा दिया जायेगा। एक वर्ष जब अखबार में बीत गया तो एक दिन मैंने जी.एल. साहब से वेतन वृद्धि की बात की। उन्होंने कहा, ‘अग्रवाल साहब देख रहे हैं, अखबार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है।’ मैं चुप हो गया और जब एक महीना और बीत गया तो मैंने जी.एल. साहब को इस बात का फिर स्मरण कराया। इस बार भी उन्होंने आर्थिक स्थिति का रोना रोया।
अब यह स्थति मेरे लिए सहनीय नहीं थी। मैंने सोचा कि यहां से पहले मैं पत्रकारों के शोषण के खिलाफ लड़ता था और यहां तो अब हमारा ही शोषण हो रहा है। इसे मैं बर्दाश्त नहीं कर सका और एक महीने की नोटिस देते हुए मैंने अपना इस्तीफा जी.एल. साहब को पकड़ा दिया।
जी.एल. साहब ने कहा, ‘आल्फा वालों ने धमकी तो नहीं दी है ?’ मैंने कहा, ‘ मैं अपने घर से इतनी दूर आया हूं और यहां आप ही मेरे गार्जियन हैं। यदि मुझे कहीं से धमकी मिलेगी तो तुरंत आप को ही बताऊंगा।’ बहरहाल, वह चुप हो गये।
एक महीने की नोटिस 30 अप्रैल को पूरी हो गयी। एक मई को गोरखपुर के लिए हमारा टिकट था। दो दिन पहले ही मैंने घर का सामान एक ट्रांसपोर्टर के हवाले कर दिया, जिसने असम से कोयला लेकर गोरखपुर जाने वाली ट्रक से सामान को गोरखपुर भेजवा दिया। चलते समय असमिया प्रतीक शरई और गमछा देकर जी.एल. साहब ने तथा संपादकीय के लोगों ने दु:खी मन से मुझे बिदा किया। चलते-चलते जी.एल. साहब ने कहा,’ अग्रवाल जी, आपकी यह कुर्सी छह महीने तक खाली रहेगी। इस बीच आप जब चाहें ,चले आईयेगा।’
मैंने तुरंत कहा, ‘जी.एल. साहब, मैं जाने के लिए जा रहा हूं, आने के लिए नहीं जा रहा हूं।’ और मैं परिवार के साथ रेलवे स्टेशन पर आ गया, जहां हमारे संपादकीय के कुछ साथी रत्नेश, रविकांत नीरज आदि ट्रेन तक हमें छोड़ने आये थे। रत्नेश ने मुझे एक पुस्तक भी भेंट की। मैंने पूर्वांचल प्रहरी तथा गुवाहाटी को अलविदा कह दिया।
यह भी एक सच्चाई है कि जी.एल. साहब ने सचमुच अगले छह महीने तक मेरी जगह पर किसी को कार्यकारी संपादक नहीं बनाया था। उन्हें शायद मेरा इंतजार था। लेकिन मुझे तो वापस जाना नहीं था। कभी-कभी उनका फोन आ जाता। मैंने उनसे यह नहीं बताया था कि महराजगंज घर आकर कोई बिजनेस शुरू करूंगा। इसलिए जब वह पूछते, मैं महराजगंज मैं क्या कर रहा हूं, तो बताता कि एक पत्रिका निकालने की तैयारी में हूं। जबकि ऐसी बात नहीं थी।
पूर्वांचल प्रहरी और गुवाहाटी से एक अलगाव, बिछड़ना 1990 के मध्य में जमीन पर हुआ था। पुनः 30 वर्षों बाद एक वैचारिक लगाव उन दिनों के साथ के युवा पत्रकार साथियों से फिर से हुआ। गुवाहाटी और साथियों पर लेखन फिलहाल बंद हो रहा है, इसलिए दुःख हो रहा है। लेकिन चलिये, हम फिर से जो जुड़े हैं तो यह जुड़ाव अब बना रहेगा। मैं तो चाहता हूं, कोई बहाना मिले और मैं फिर एकबार असम की धरती पर साथियों के बीच पैर रखूं।
के एम अग्रवाल: +919453098922
क्रमशः 72