के.एम. अग्रवाल
सालों से मन में यह बात आती थी कि कभी आत्मकथा लिखूँ। फिर सोचा कि आत्मकथा तो बड़े-बड़े लेखक, साहित्यकार, राजनेता, फिल्मकार, अन्तर्राष्ट्रीय खिलाड़ी, वैज्ञानिक, बड़े-बड़े युद्ध जीतने वाले सेनापति आदि लिखते हैं और वह अपने आप में अच्छी-खासी मोटी किताब होती है। मैं तो एक साधारण, लेकिन समाज और देश के प्रति एक सजग नागरिक हूँ। मैंने ऐसा कुछ देश को नहीं दिया, जिसे लोग याद करें। पत्रकारिता का भी मेरा जीवन महज 24 वर्षों का रहा। हाँ, इस 24 वर्ष में जीवन के कुछ अनुभव तथा मान-सम्मान के साथ जीने तथा सच को सच और झूठ को झूठ कहने का साहस विकसित हुआ। लेकिन कभी लिखना शुरू नहीं हो सका।
एक बार पत्रकारिता के जीवन के इलाहाबाद के अनुज साथी स्नेह मधुर से बात हो रही थी। बात-बात में जीवन में उतार-चढ़ाव की बहुत सी बातें हो गयीं। मधुर जी कहने लगे कि पुस्तक के रूप में नहीं, बल्कि टुकड़ों-टुकड़ों में पत्रकारिता के अनुभव को जैसा बता रहे हैं, लिख डालिये। उसका भी महत्व होगा। बात कुछ ठीक लगी और फिर आज लिखने बैठ ही गया।
गतांक से आगे…
नीड़ का निर्माण फिर: 2
“आंदोलन “
कहने को तो महराजगंज जिले का निर्माण 2 अक्टूबर, 1989 को ही हो गया था, लेकिन वर्षों तक यह निर्णय नहीं हो पा रहा था कि जिला मुख्यालय कहां बने ? उन दिनों नेपाल सीमा के निकट नौतनवा मेें निवास करने वाले सपा विधायक कुंवर अखिलेश प्रताप सिंह चाहते थे कि जिला मुख्यालय फरेंदा में बने। दूसरी तरफ महराजगंज से 20 किमी दूर रहने वाले जुझारू सपा नेता, छह बार के विधायक जनार्दन प्रसाद ओझा घुघली के पास मुख्यालय का निर्माण चाहते थे। एक और जुझारू नेता पूर्व सांसद हर्षवर्धन सिंह भी फरेंदा में मुख्यालय निर्माण चाहते थे। इन सबके विपरीत महराजगंज के लोग चाहते थे कि जिला मुख्यालय का निर्माण महराजगंज नगर से अधिक से अधिक 4–5 किमी के भीतर ही हो।
महराजगंज नगर की स्थिति भी जिले के नक्शे में बिलकुल मध्य में है। इसलिए यहां के लोगों का तर्क था कि जिले के सभी लोगों के लिए महराजगंज बराबर दूरी पर पड़ेगा, जबकि फरेंदा जिले के एक किनारे पड़ता था। पुनः जिले का नाम महराजगंज तो मुख्यालय महराजगंज में क्यों नहीं?
जिला मुख्यालय को लेकर शुरू शुरू में महराजगंज के कुछ लोगों ने मिलकर, जिनमें मेरे साथ गांधी सिंह, मदनलाल झुनझुनवाला, नर्वदेश्वर पाण्डेय एडवोकेट, अख्तर अब्बासी और शमसुल हुदा खां आदि सम्मिलित थे, ‘ नगर बचाओ आंदोलन समिति ‘ का गठन किया, क्योंकि तब तक पता चल गया था कि मुख्यालय महराजगंज नगर से पांच किमी दूर गोरखपुर रोड पर गौनरिया के निकट बनाने के लिए शासन ने सहमति दे दी थी।
हम लोग तत्कालीन जिलाधिकारी चन्द्र प्रकाश से, जो 1991 से 1994 तक यहां रहे, मिले और पूछा गया कि जिला मुख्यालय के लिए क्या हो रहा है ? उन्होंने बताया कि मुख्यालय तो गौनरिया के पास बनना लगभग तय हो चुका है और दो दिन बाद ही प्रदेश के एक मंत्री आ रहे हैं, जो जमीन को देखने के बाद इस योजना पर अंतिम मुहर लगायेंगे। हम लोगों ने कहा कि यदि गौनरिया में जिला मुख्यालय बनता है तो महराजगंज नगर उजड़ जायेगा। हमने उनसे फिर पूछा कि हम लोग क्या करें ? जिलाधिकारी ने कहा कि आंदोलन करने के अलावा और कोई उपाय नहीं है।
नगर से 3–4 किमी के अंदर ही जिला मुख्यालय बनाते जाने की मांग लेकर हमारे साथ गांधी सिंह और मदनलाल झुनझुनवाला का प्रतिनिधि मंडल लखनऊ जाकर मुख्यमंत्री से भी मिला लेकिन कोई बात नहीं बनी।
एक अच्छी बात यह थी कि गौनरिया के ही रहने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक इंटर कालेज में अध्यापक भगवती प्रसाद, गौनरिया में चिन्हित जगह पर मुख्यालय नहीं चाहते थे, क्योंकि उनकी सारी जमीन इसमें निकल जा रही थी। उन्होंने तथा गांव के ही दो-तीन अन्य लोगों ने शासन से मांग की थी कि मुख्य सड़क के किनारे से 20 फुट गहराई तक जमीन यदि छोड़ दी जाय, तब तो शासन वहां मुख्यालय बना सकता है, लेकिन शासन ने उनकी बात नहीं मानी।
पता चला कि प्रदेश के मंत्री के आने के एक दिन पहले रात में पास की नहर काट दी गयी, जिससे मुख्यालय के लिए निर्धारित जमीन में पानी भर गया। मंत्री ने जब मौके पर जाकर देखा तो कहा कि यह जमीन इतनी नीची है कि अभी जब इतना पानी भरा हुआ है तो बरसात में क्या हाल होता होगा। और फिर मंत्री ने शासन को रिपोर्ट लगा दी कि निर्धारित भूमि बहुत नीची है तथा वहां प्राय: जल भराव रहता है। फलस्वरूप, गौनरिया में जिला मुख्यालय बनाने की योजना टांय टांय फिस हो गयी।
चन्द्र प्रकाश जी के जाने के बाद 1994 में डा.हरिशरण दास यहां जिलाधिकारी होकर आये। उन्होंने महराजगंज नगर के आसपास ही जिला मुख्यालय बनाते जाने की पैरवी शुरू की तो राजनीतिक लोगों ने चार महीने में ही उनका तबादला करा दिया।
डा.हरिशरण दास के जाने के बाद नवंबर 1994 में अरुण आर्या यहां जिलाधिकारी के रूप में आये। तब तक मुख्यालय की मांग लेकर यहां जन आंदोलन काफी तेज हो चुका था। एक बड़ी ‘ जिला मुख्यालय निर्माण संघर्ष समिति ‘ बनी, जिसमें नर्वदेश्वर पाण्डेय एडवोकेट को अध्यक्ष और मुझे सचिव बनाया गया। तत्कालीन भाजपा के सदर विधायक चन्द्र किशोर शुरू में आंदोलन का साथ नहीं दे रहे थे, लेकिन एक दिन जब बाजार और कचहरी आदि बंद कराते हुए, विधायक चन्द्र किशोर का भी मुख्य चौराहे पर घेराव कर दिया गया तो वह हम लोगों, आंदोलन के के साथ चलने के लिए सहमत हुए। फिर तो हम लोग दो-तीन बार उनकी गाड़ी से उन्हें लेकर मुलायम सिंह सरकार से इस संदर्भ में मिलने भी गये लेकिन कोई नतीजा नहीं निकलता था। भाजपा सांसद पंकज चौधरी का तो साफ कहना था, ‘ हमें तो पूरे जिले से वोट लेना होता है तो मैं सिर्फ महराजगंज वालों के साथ कैसे हो सकता हूं ?
जिला मुख्यालय निर्माण संघर्ष समिति से बड़ी संख्या में लोग जुड़ गये। इनमें अध्यक्ष नर्वदेश्वर पाण्डेय और मैं सचिव के अलावा गांधी सिंह, डा.घनश्याम पाण्डेय, डा.आर.के.मिश्रा, विमल पाण्डेय, अख्तर अब्बासी, विजय बहादुर सिंह, शमसुल हुदा खां, पशुपतिनाथ गुप्त, मुखलाल जायसवाल, कृष्ण गोपाल जायसवाल आदि प्रमुख लोग थे। बाकी तो नगर की पूरी जनता साथ में थी।
हम लोगों का प्रतिनिधि मंडल जिलाधिकारी अरुण आर्या से मिला और मांग रखी गयी कि जिला मुख्यालय नगर से अधिक से अधिक 3–4 किमी के अंदर ही बनना चाहिए, जिससे कि वर्तमान नगर उजड़ने न पायेे।
आर्या जी जन साधारण की पीड़ा को समझते थे और उन्होंने जब देखा कि पूरा नगर ऐसा चाहता है तो फिर वह हम लोगों के साथ ही यहां के तीनों मुख्य मार्गों, फरेंदा रोड, निचलौल रोड और गोरखपुर रोड पर मुआयना करने निकल पड़े। दो घंटे के बाद हम लोगों को तब बहुत खुशी हुई , जब आर्या जी ने कहा, ‘ आप लोगों की सोच सही है। ‘
एक दिन आर्या जी ने हम लोगों को सुझाव दिया कि अच्छा होगा कि एक बार आप लोग नौतनवा जाकर विधायक अखिलेश सिंह से मिलकर अपनी बात रखें। ऐसा सिर्फ उनके ‘ईगो’ को शांत करने के लिए है। हम लोग नौतनवा उनके घर पर जाकर उनसे मिले, लेकिन बात नहीं बनी। उन्होंने कहा, ‘ महराजगंज वालों की संस्कृति नौतनवा से मेल नहीं खाती है।’ उनकी यह बात हम सबको बहुत बुरी लगी लेकिन हम सब चुप रहे। वहां से लौटकर हम लोगों ने आर्या जी को सारी बात बतायी। इस मुलाकात, वार्ता से वह संतुष्ट दिखे।
फिर तो इसके बाद जिलाधिकारी अरुण आर्या, जिला मुख्यालय क्यों महराजगंज नगर से 3–4 किमी अंदर ही बनना चाहिए, इस पक्ष में तर्क देते हुए तथा जनता के आंदोलन का भी जिक्र करते हुए मोटी सी एक किताब ही लिख डाली। उन्होंने उसे लखनऊ में छपवा कर मंडलायुक्त की उपेक्षा करते हुए सीधे शासन को भेज दिया।
अरुण आर्या का भी तबादला जल्दी ही हो गया। फिर चार-चार, छह-छह माह के लिए जो भी जिलाधिकारी यहां आते, उन लोगों ने इधर ध्यान नहीं दिया।
1996 में आलोक टंडन जिलाधिकारीके रूप में यहां आये। उन्होंने भी अरुण आर्या के प्रयास को आगे बढ़ाया। सौभाग्य से तब मायावती की सरकार थी। मुख्यमंत्री मायावती ने राजनीतिक सूझ बूझ से काम लिया और 1996 मेें उन्होंने फरेंदा रोड पर नगर से तीन किमी अंदर ही जिला मुख्यालय का शिलान्यास कर दिया। इस प्रकार जिला मुख्यालय का आंदोलन समाप्त हुआ।
के एम अग्रवाल: +919453098922
क्रमशः 74