के.एम. अग्रवाल
सालों से मन में यह बात आती थी कि कभी आत्मकथा लिखूँ। फिर सोचा कि आत्मकथा तो बड़े-बड़े लेखक, साहित्यकार, राजनेता, फिल्मकार, अन्तर्राष्ट्रीय खिलाड़ी, वैज्ञानिक, बड़े-बड़े युद्ध जीतने वाले सेनापति आदि लिखते हैं और वह अपने आप में अच्छी-खासी मोटी किताब होती है। मैं तो एक साधारण, लेकिन समाज और देश के प्रति एक सजग नागरिक हूँ। मैंने ऐसा कुछ देश को नहीं दिया, जिसे लोग याद करें। पत्रकारिता का भी मेरा जीवन महज 24 वर्षों का रहा। हाँ, इस 24 वर्ष में जीवन के कुछ अनुभव तथा मान-सम्मान के साथ जीने तथा सच को सच और झूठ को झूठ कहने का साहस विकसित हुआ। लेकिन कभी लिखना शुरू नहीं हो सका।
एक बार पत्रकारिता के जीवन के इलाहाबाद के अनुज साथी स्नेह मधुर से बात हो रही थी। बात-बात में जीवन में उतार-चढ़ाव की बहुत सी बातें हो गयीं। मधुर जी कहने लगे कि पुस्तक के रूप में नहीं, बल्कि टुकड़ों-टुकड़ों में पत्रकारिता के अनुभव को जैसा बता रहे हैं, लिख डालिये। उसका भी महत्व होगा। बात कुछ ठीक लगी और फिर आज लिखने बैठ ही गया।
गतांक से आगे…
सफर के साथी:3
लगभग 12 वर्ष तक इलाहाबाद में प्रवास के दौरान पत्रकारिता से जुड़े अनेक ऐसे चेहरे हैं, जिनसे मुलाकात हो या न हो, वे प्रायः याद आते हैं। उनके बारे में भी लिखना अच्छा लगता है कि कौन कहाँ से आया और उसकी यात्रा कहाँ तक पहुँची ? इनमें कई ऐसे लोग भी हैं, जिनके बारे पर्याप्त जानकारी के अभाव में नहीं लिख पा रहा हूँ।
मंगलेश डबराल
आज के समय हिन्दी के स्थापित कवियों में एक, मंगलेश डबराल, कभी 1977 में अमृत प्रभात के शुरू के समय ही वरिष्ठ उप संपादक के रूप में इलाहाबाद आ गये थे और स्वतंत्र रूप से अखबार के साहित्य-संस्कृति पृष्ठ को अपनी कल्पना के अनुरूप सजा-सवाँर रहे थे। अमृत प्रभात का प्रकाशन लखनऊ से भी शुरू हो जाने पर वह भी लखनऊ चले गये और लगभग तीन साल तक वहीं रहे।
डबराल जी के लिए लखनऊ शायद छोटा पड़ रहा था। 1983 में वह दिल्ली जनसत्ता में सहायक संपादक होकर चले गये। वहाँ भी वह अखबार का साहित्य-संस्कृति पृष्ठ ही देखते रहे। जनसत्ता उन्हें काफी रास आ गया। लगभग 23 वर्ष की सेवा के बाद 2006 में उन्होंने वरिष्ठ सहायक संपादक के पद से अवकाश ग्रहण कर लिया।
स्वभाव से बहुत ही नम्र लेकिन अपनी सोच और विचारों से दृढ़ रहने वाले डबराल जी पत्रकारिता के साथ-साथ अपने कवि-कर्म को भी बखूबी निभाते रहे। दिल्ली में रहते हुए वहाँ के साहित्यिक क्षेत्र में वह तेजी से चर्चित होते गये।
जनसत्ता से अवकाश ग्रहण करने के बाद, डबराल जी सहारा ग्रुप के ‘ सहारा समय ‘ साप्ताहिक में कार्यकारी संपादक के रूप में आ गये और दो साल तक इस साप्ताहिक को काफी ऊँचाई तक ले गये। बाद में लगभग छह वर्ष तक उन्होंने ‘नेशनल बुक ट्रस्ट‘ में सलाहकार के रूप में अपनी सेवा दी। वर्तमान में डबराल जी वामपंथी विचारधारा के पाक्षिक ‘पब्लिक एजेंडा‘ से जुड़े हुए हैं।
अमृत प्रभात के सहकर्मियों के लिए सचमुच यह गौरव की बात है कि डबराल जी के अबतक छह कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें से ‘ हम जो देखते हैं ‘ संग्रह को 2000 में साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिल चुका है। शेष संग्रह हैं – ‘पहाड़ पर लालटेन‘, ‘घर का रास्ता‘, ‘आवाज भी एक जगह है‘, ‘नये युग के शत्रु‘ और ‘स्मृति एक दूसरा समय है’। इनकी गद्य की भी पाँच पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
अजय चतुर्वेदी
इलाहाबाद निवासी अजय चतुर्वेदी ने बिलकुल युवा अवस्था में 1977 में ही अमृत प्रभात स्टाफ रिपोर्टर के रूप में ज्वाइन किया और दो-तीन साल बाद ही अखबारी दुनिया से मुक्त होकर आकाशवाणी, दूरदर्शन और पी.आई.बी. में रहते हुए लगभग पूरा देश घूम डाले। 2013 में उन्होंने पी.आई.बी. के भोपाल के क्षेत्रीय कार्यालय से निदेशक के रूप में काम करते हुए अवकाश ग्रहण किया।
स्वभाव से काफी चंचल अजय 1982 में आकाशवाणी में समाचार संपादक बनकर भोपाल चले गये। 1985 में वह आगरा आ गये और पुनः 1988 में पोर्ट ब्लेयर अंडमान निकोबार भेज दिये गये। 1990 में वह फिर डी.डी.न्यूज में समाचार संपादक बनकर जयपुर चले गये। इसी पद पर फिर भोपाल चले गये, जहाँ 1997 तक रहे। यहाँ फिर उनका विभाग बदल गया और 1997 के अंत में भोपाल में ही पी.आई.बी. में सहायक सूचना अधिकारी बन गये। वहाँ से फिर 2002 में भोपाल में ही दूरदर्शन में चले गये, जहाँ से 2003 में जयपुर चले गये। वह फिर 2004 में भोपाल आ गये, जहाँ 2007 तक रहे।
अजय 2007 में डी.डी.न्यूज में समाचार संपादक बनकर दिल्ली चले गये। इसी बीच सी.आर.पी.एफ. में वह जन संपर्क अधिकारी हो गये। उनके पैर का पहिया अभी रुकने का नाम नहीं ले रहा था। 2010 में प्रोन्नति पाकर भोपाल पी.आई.बी. में संयुक्त निदेशक हो गये। एक साल बाद ही वहीं क्षेत्रीय कार्यालय में निदेशक बन गये और 2013 में अवकाश ग्रहण कर लिया।
अजय चतुर्वेदी 2017 में दिल्ली चले गये और अब नोयडा में ही अपने पुत्र के परिवार के साथ रह रहे हैं। एक अच्छी बात यह है कि अब भी वह दो-तीन पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से लिखते हैं।
मार्च 2006 में बतौर विशेष संवाददाता, दूरदर्शन न्यूज, वह तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम के साथ म्यांमार और मारीशस के आठ दिन के दौरे पर भी जा चुके हैं।
क्रमशः 35