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“छठी पुण्‍यतिथि पर पिताजी को छोटी सी श्रद्धांजलि”: रामधनी द्विवेदी

रामधनी द्विवेदी

“पत्रकारिता की दुनिया :22”: “पिता जी की विरासत! : रामधनी द्विवेदी :48:

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आज जीवन के 71 वें वर्ष में जब कभी रुक कर थोड़ा पीछे की तरफ झांकता हूं तो सब कुछ सपना सा लगता है। सपना जो सोच कर नहीं देखा जाता। जिसमें आदमी कहां से शुरू हो कर कहां पहुंच जाता है? पता नहीं क्‍या-क्‍या घटित होता है? कभी उसमें कुछ दृश्‍य और लोग पहचाने से लगते हैं, तो कभी हम अनजाने लोक में भी विचरने लगते हैं। जगने पर असली दुनिया में आने पर जो देखें होते हैं,उसके सपना होने का बोध हेाता है। यदि सपना सुखद है तो मन को अच्‍छा लगता है, यदि दुखद है तो नींद में और जगने पर भी मन बोझिल जाता है। सुखद सपने बहुत दिनों तक याद रहते हैं, हम अपने अनुसार उनका विश्‍लेषण करते हैं और दुखद सपने कोई याद नहीं रखता, क्‍योंकि वह पीड़ा ही देते हैं। यही हमारी जिंदगी है। जब हम कभी रुक कर पीछे देखते हैं तो सुखद और दुखद दोनों बातें याद आती हैं। इनमें से किसी अपने को अलग भी नहीं किया जा सकता क्‍योंकि बिना ‘ दोनों ‘ के जिंदगी मुकम्‍मल भी तो नहीं होती। जिंदगी की धारा के ये दो किनारे हैं। बिना दोनों के साथ रहे जिंदगी अविरल नहीं होगी और उसमें थिराव आ जाएगा। तो मैं अपनी जिंदगी के दोनों पक्षों का सम्‍मान करते हुए उन्‍हें याद कर रहा हूं। जो अच्‍छा है, उसे भी और जो नहीं अच्‍छा है उसे भी, सुखद भी दुखद भी।  तो क्‍यों न अच्‍छे से शुरुआत हो। यह स्‍मृति में भी अधिक है और इसमें कहने को भी बहुत कुछ है। जो दुखद या अप्रिय है, वह भी कालक्रम में सामने आएगा। लेकिन मैं सबसे अनुनय करूंगा कि इसे मेरे जीवन के सहज घटनाक्रम की तरह ही देखें। मैं बहुत ही सामान्‍य परिवार से हूं, मूलत: किसान रहा है मेरा परिवार। आज भी गांव में मेरे इस किसानी के अवशेष हैं, अवशेष इसलिए कि अब पूरी तरह किसानी नहीं होती। पहले पिता जी अवकाश ग्रहण के बाद और अब छोटा भाई गांव पर इसे देखता है। खुद खेती न कर अधिया पर कराई जाती है लेकिन कागजात में हम काश्‍तकार हैं। उस गांव से उठकर जीवन के प्रवाह में बहते-बहते कहां से कहां आ गया, कभी सोचता हूं तो जैसा पहले लिखा सब सपना ही लगता है। कभी सोचा भी न था कि गांव के खुले माहौल में पैदा और बढ़ा-बड़ा हुआ मैं दिल्‍ली-एनसीआर में बंद दीवारों के बीच कैद हो जाऊंगा। लेकिन वह भी अच्‍छा था, यह भी अच्‍छा है। जीवन के ये दो बिल्‍कुल विपरीत ध्रुव हैं जो मुझे परिपूर्ण बनाते हैं। कुदाल के बीच शुरू हुई जिंदगी ने हाथों में कलम पकड़ा दी और अब वह भी छूट गई और लैपटॉप ने उसका स्‍थान ले लिया। कुदाल से शुरू और कलम तक पहुंची इस यात्रा के पड़ावों पर आप भी मेरे साथ रहें, जो मैने देखा, जिया, भोगा उसके सहभागी बनें।

रामधनी द्विवेदी

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और दैनिक जागरण समाचार पत्र की कोर टीम के सदस्य हैं।

“पत्रकारिता की दुनिया: 22”

गतांक से आगे…

“मध्‍यांतर”!

“पिता जी की विरासत”

मुझे बचपन के एक दृश्‍य की धुंधली याद आती है—मैं सात आठ साल का रहा हूंगा, गर्मी के दिन थे। स्‍कूलों की छुटि्टयों में हम लोग कानपुर से गांव आए थे- मां और पिता जी भी । उस दिन दोपहर में मेरे पुराने पक्‍के दालान में कुछ लोग जुटे थे। एक बड़े तख्‍त पर हारमोनियम और तबला रखा था। थोड़ी देर में एक सज्‍जन ने हारमोनियम संभाला और तबले पर पिता जी बैठे। हारमोनियम वाले सज्‍जन ने हारमोनियम बजाने के साथ ही राग अलापा और पिता जी ने उनके साथ तबले पर संगत शुरू की। मैं पिता जी को इस रूप में पहली बार देख रहा था।

म‍हफिल काफी देर तक जमी और कई भजन और गजलें हुईं। पिता जी ने हर गाने के साथ संगत की। कभी- कभी बीच में महानंद भैया ढोलक भी बजाते। दालान मे अधिक नहीं हमारी पट्टी के ही लोग थे। यह सब मैं एक पलंग के पैताने बैठा देख रहा था। कालक्रम में यह दृश्‍य धूमिल तो हुआ लेकिन मिटा नहीं। पिता जी का वह रूप मैं विस्मृत नहीं कर पाता था। कभी- कभी वह कुछ चटक भी हो जाता।

जब हम लोग आर्मापुर मे रहते थे तो पिता जी और महानंद भैया जो पिता जी से कुछ साल बड़े थे, छुट्टी के दिन या रात ड्यूटी में शाम के समय क्‍वार्टर में बैठक करते। लेकिन बाद में पिता जी के अलग क्‍वार्टर लेने से अचानक यह सब छूट गया। पिता जी का आकर्षण पूजा पाठ की तरफ हो गया और उन्‍होंने तबला बजाना बंद कर दिया। लेकिन जब वह गुस्‍से में होते और पढ़ाई को लेकर डांटते तो कहते- मैं चमड़े से संगीत निकाल देता हूं जबकि मुझे सिखाने वाला कोई अच्‍छा गुरु नहीं मिला और तुम लोग अच्‍छे स्‍कूल के बाद भी पढ़ नहीं रहे हो।

पिता जी के पास वह छोटी सी चौपड़ी ( पॉकेट डायरी) काफी दिनों तक रहीं जिसमें वह तबले के बोल नोट किए थे। कभी- कभी मुझे उसे देखने का अवसर मिलता तो उसमें- धा तिरकिट ता तिरकिट- जैसा आठ दस लाइनों का अबूझ लिखा पढ़ने को मिलता और मैं पूछता कि यह क्‍या है तो वह बोलते कि यह तबले का छंद है, ‍तुम्हारी समझ में नहीं आएगा।

मुझे लगता है कि यदि पिता जी को तबले के अच्‍छे गुरू मिले होते और वह इसे बजाना नहीं छोड़ते तो अच्‍छे तबला बादक होते, लेकिन रामचरित मानस के प्रति उनके रुझान ने इससे दूर कर दिया। वह घंटों मानस पाठ और पूजा को समय देने लगे।

मुझमें भी पिता जी का संगीत का डीएनए कहीं पड़ा था। बहुत मन करता कि कुछ सीखूं लेकिन वह दबा ही रहा। कभी बांसुरी बजाने का मन करता तो कभी तबला सीखने का लेकिन ग्रह नक्षत्र नहीं बन पा रहे थे। तबले का बीज सुप्‍तापस्‍था में ही पड़ा रहता जब यदि एक दिन मेरे वरिष्‍ठ साथी कमलेश त्रिपाठी ने आफिस से उठते समय अचानक यह नहीं कहा होता कि मैं आज जल्‍द निकलूंगा क्‍यों किे संगीत विद्यालय में दाखिला लेना है।

मैंने पूछा कि कहां दाखिला लेंगे- उन्‍होंने बताया कि वैशाली में कादंबरी संगीत विद्यालय है, मैं एक बार वहां पूछ आया हूं। मैंने पूछा कि क्‍या सीखेंगे तो वह बोले कि हारमोनियम–।

मेरे मन में दबा तबले का बीज उगने के लिए कसमसाने लगा और मैने कहा कि मैं भी चलता हूं, मैं तबला सीखूंगा।

वह दो दिसंबर 2018 का दिन था। हम लोग साथ ही संगीत विद्यालय पहुंचे और नाम लिखाया और दो दिन बाद कक्षांए शुरू कर दीं।

जब मुझे पहले दिन एक संगीत शिक्षक ने तबले के अंग और बजाने का तरीका बताने के बाद मेरा हाथ तबले की पुड़ी पर रख बजाने के लिए कहा तो मेरी उंगलियां कोई आवाज नहीं निकाल पाईं तो मुझे लगा कि मैं सीख नहीं पाऊंगा। जिन शिक्षक ने पहले दिन मुझे सिखाया था, वह दूसरे विषय के थे। मेरे शिक्षक दूसरे थे- संजय रावत जी। मैं मार्च तक वहां जाता रहा। कुछ कखग सीखा। लेकिन दूर होने और रात में आने में दिक्‍कत होने के कारण मैंने वहां की क्‍लास छोड़ दी। मैं आसपास कोई संगीत विद्यालय ढूंढ रहा था लेकिन कोई मिला नहींं। जहां मिलते वहां तबले के शिक्षक नहीं थे। अंत में मेरी सोसायटी के पास ही एक विद्यालय मिला जहां दाखिला लिया। लेकिन वहां भी तबले के शिक्षक बदलते रहे। इस बीच मेरी बहू की तबीयत की बहुत गंभीर हो गई तो मुझे तबला बजाना अच्‍छा नहीं लगा और मैने जो तबला खरीदा था उसे उठा कर रख दिया।

हालांकि वह मेरे संगीत सीखने से खुश थी और खुद गायन में दाखिला लेना चाहती थी लेकिन बीमारी ने यह नहीं होने दिया। वह बिना प्रशिक्षण के ही अच्‍छा गाती थी। सोसायटी के कई कार्यक्रमों में उसने गायन किया और लोगों ने पसंद किया। ‍स्कूल के कार्यक्रमों में भी वह गाती थी। इस बीच उसने हम लोगों का साथ छोड़ दिया। सब लोग गहन शोक में थे, परिवार बिखर सा गया, कैसा गाना- बजाना? आज तक वह घाव हरा बना हुआ है। लेकिन इस बीच मेरे बड़े पौत्र ज्‍योतिर्मय ने जिसने एक साल पहले ही अपने स्‍कूल में संगीत विषय में तबला चुना था और कुछ सीख रहा था और अपने स्‍कूल के वार्षिक कार्यक्रम में प्रस्‍तुति भी दी थी, बताया कि उसके ऑनलाइन क्‍लास में तबला भी बजवाया जाएगा। जिस दिन उसके संगीत की कक्षा हुई, उसके शिक्षक ने तबला बजाने को कहा तो लगभग दस- 12 महीने से बांध कर रखा तबला उतारा गया और उसने बजाया।

 

उसी के साथ मेरा भी अभ्‍यास फिर शुरू हुआ। संगीत ऐसी चीज है जो नियमित अभ्‍यास मांगती है। यदि बीच में अभ्‍यास छूट गया तो गति बाधित हो जाती है। इस बीच मैंने एक शिक्षक से ऑनलाइन कक्षाएं भी लेनी शुरू की हैं। वह अच्‍छा सिखाते हैं। मेरे छोटे पौत्र प्रियंवद ने भी बजाना शुरू किया है। उसकी गति अभी कम है लेकिन ज्‍योतिर्मय का इसमें अधिक मन लगता है। अभी पिछले शनिवार को सुंदरकांड के पाठ के बाद हनुमान चालीसा पर उसने पांच मिनट संगत की। मैंने दो स्‍कूल बदले जिसमें तीन शिक्षकों से अलग- अलग सीखने को मिला।

संगीत के साथ एक बात यह है कि इसमें कई घराने होते हैं। तबले में भी कई घराने हैं और सबके हाथ रखने और बजाने के तरीके अलग- अलग हैं। तालों के ठेके तो एक ही होते हैं, लेकिन उसके बजाने के तरीके अलग। यदि एक ही गुरु से सीखा जाए तो अच्‍छा होता है। मुझे तीन लोगों ने अलग-अलग तरीका बताया जिससे एक में हाथ सधा तो दूसरा बता दिया गया। उसे पकड़ने में समय लगा लेकिन अब सब पटरी पर लगता है। अभी अधिक तो नहीं लेकिन शुरुआती चीजें सीख रहा हूं। रियाज की कमी से गति नहीं आ पाई है।

संगीत समुद्र है। प्रख्‍यात तबला वादक उस्‍ताद जाकिर हुसैन का कहना है कि इस समुद्र में से लोग अपनी क्षमता भर – एक कप, एक बाल्‍टी या एक तालाब भर पानी ले सकते हैं। यह जीवन भर सीखने का विषय है। कोई भी अपने को पूर्ण नहीं कह सकता।

मुझे इतना संतोष है कि मैने अपने पिता की वह विरासत पाई जो अपने परिवार से लुप्‍त हो गई थी।यह ऐसी विरासत है जिसका बंटवारा भी कोई नहीं कर सकता। पिता जी ने 20 दिसंबर 2014 को यह संसार छोड़ दिया। आज उनकी छठी पुण्‍यतिथि पर मेरी यह छोटी सी श्रद्धांजलि।

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