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“1950 के आसपास का बचपन और महराजगंज कस्बा”: के एम अग्रवाल

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के. एम. अग्रवाल

‘मेरा जीवन’: के.एम. अग्रवाल: 95: 

सालों से मन में यह बात आती थी कि कभी आत्मकथा लिखूँ। फिर सोचा कि आत्मकथा तो बड़े-बड़े लेखक, साहित्यकार, राजनेता, फिल्मकार, अन्तर्राष्ट्रीय खिलाड़ी, वैज्ञानिक, बड़े-बड़े युद्ध जीतने वाले सेनापति आदि लिखते हैं और वह अपने आप में अच्छी-खासी मोटी किताब होती है। मैं तो एक साधारण, लेकिन समाज और देश के प्रति एक सजग नागरिक हूँ। मैंने ऐसा कुछ देश को नहीं दिया, जिसे लोग याद करें। पत्रकारिता का भी मेरा जीवन महज 24 वर्षों का रहा। हाँ, इस 24 वर्ष में जीवन के कुछ अनुभव तथा मान-सम्मान के साथ जीने तथा सच को सच और झूठ को झूठ कहने का साहस विकसित हुआ। लेकिन कभी लिखना शुरू नहीं हो सका। एक बार पत्रकारिता के जीवन के इलाहाबाद के अनुज साथी स्नेह मधुर से बात हो रही थी। बात-बात में जीवन में उतार-चढ़ाव की बहुत सी बातें हो गयीं। मधुर जी कहने लगे कि पुस्तक के रूप में नहीं, बल्कि टुकड़ों-टुकड़ों में पत्रकारिता के अनुभव को जैसा बता रहे हैं, लिख डालिये। उसका भी महत्व होगा। बात कुछ ठीक लगी और फिर आज लिखने बैठ ही गया।

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महराजगंज की “कुछ शक्सियतें”:8

इतिहास की बात करें तो महराजगंज गौतम बुद्ध की धरती मानी जाती है। आधुनिक काल की बात करें तो यह स्वतंत्रता संग्राम सेनानी प्रो. शिब्बनलाल सक्सेना की धरती मानी जाती है। इसी अवधि में कुछ ऐसे व्यक्तित्व भी यहां हुए, जिन्होंने जीवन पर्यंत यहां की सेवा की और अब आज नहीं हैं। इनमें से कुछ ऐसे हैं, जिनसे मैं स्वयं भी गहराई से जुड़ा रहा और जिनके बारे में लिखना ज़रूरी लगता है।

“1950 के आसपास का
बचपन और महराजगंज कस्बा”

“को-एजुकेशन”


यद्यपि महराजगंज में गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक इंटर कालेज की स्थापना 1952 में ही हो चुकी थी, लेकिन वर्षों बीत जाने के बाद भी कस्बे के लोग अपनी लड़कियों को वहां पढ़ने के लिए नहीं भेजते थे। तब लड़कों के साथ लड़कियों का पढ़ना यहां के लिए आश्चर्य की बात होती थी। अधिकतर लड़कियां बालिका जूनियर हाईस्कूल से आठवीं कक्षा तक ही पढ़ पाती थीं। 1954 में इस विद्यालय के कक्षा 8 में सिर्फ सात लड़कियां थीं, जिनमें से पांच विवाहित थीं। दो अविवाहित लड़कियों में एक तो मेरी बड़ी बहिन थीं। तब वहां दो अध्यापिकायें थीं, जिन्हें बड़की देवी और छोटकी देवी कहा जाता था।


इंटर कालेज में को-एजुकेशन का सिलसिला अचानक 1957 में शुरू हुआ, जब यहां के सरकारी अस्पताल में एक चिकित्सक डा. मित्तल आये। उनकी दो लड़कियां सरिता और रीता थीं, जिनका कक्षा 9 और 11 में नाम लिखा जाना था। शुरू में तो कक्षा के अध्यापक ने प्रवेश लेने से इंकार कर दिया, लेकिन जब प्रधानाचार्य श्री महेन्द्र नाथ द्विवेदी को इसकी जानकारी हुई, तो उन्होंने बहुत ही सहज भाव से दोनों लड़कियों को अपने विद्यालय में प्रवेश दिया। शीघ्र ही सब रजिस्ट्रार की ललिता नाम की लड़की भी पढ़ने आ गयी। द्विवेदी जी का कहना था, ‘हम इन्हें प्रवेश नहीं देंगे तो ये कहां पढ़ेंगी ?’ इस प्रकार को-एजुकेशन शुरू हो गया। उन दिनों मैं कक्षा 7 में था।

आतिशबाजी

हमारे समाज में आतिशबाजी की परम्परा भी काफी पुरानी है। अक्सर मुस्लिम परिवार ही इस पेशे में देखे गये हैं। यहां भी दीना और उनके लड़के समद का ही एक परिवार रहा जो आतिशबाजी बनाता था, जिसका इस्तेमाल प्राय: शादी विवाह के मौके पर होता था। दीना का बोतल बम काफी मशहूर था, जिसकी तेज धमाकेदार आवाज साल में दो बार 15 अगस्त और 26 जनवरी को तहसील प्रांगण में झंडारोहण के तत्काल बाद सुनने को मिलती थी। बस्ती के अंदर चूंकि इस प्रकार के ज्वलनशील पदार्थ नहीं रखें जा सकते थे, इसलिए दीना ने वर्तमान दुर्गा मंदिर के उत्तर सुनसान गढई के किनारे बंसवाड़ी के पास खपरैल की एक कच्ची कोठरी बनायी थी। वह उसी में बारूद वगैरह रखते थे।

शामियाना

एक पटेहरा परिवार के मुखिया श्री खूबलाल ने उन दिनों यहां शामियाने की सुविधा उपलब्ध कराई थी। शादी विवाह में लोग उन्हीं के यहां से शामियाने ले जाते थे। पोस्ट आफिस वाली सड़क पर और अंदर की ओर इस पटेहरा के मकान के लगभग सामने ही फुन्नी दीवान भी थे, जो शामियाने का काम करते थे। काफी पहले विवाह के समय दूल्हे द्वारा जामा-जोड़ी और कंठा पहनने की परम्परा थी। यह सामान एकमात्र खूबलाल के यहां ही किराये पर मिलता था। तब दो रात के लिए इसका किराया 12 आना हुआ करता था। 1955 आते-आते महराजगंज कस्बे से यह परम्परा समाप्त हो गयी। वैसे खूबलाल के परिवार के लोग आज भी शामियाने का काम बड़े पैमाने पर करते हैं। उन दिनों कस्बे का ही बलिकरन कहार डोली उठाने का काम करता था। लेकिन यह परम्परा भी 1960-62 तक ही चली। तब दो रात के लिए डोली अथवा पालकी का किराया 5 रू हुआ करता था।

इस छोटे से कस्बे में उन दिनों पन्ना नाम की एक दायी भी अपना अलग ही पहचान रखती थी। वह किनारेदार लक-दक सफ़ेद साड़ी पहनती थी और कस्बे के चार-पांच घरों में ही चौका-बर्तन करती थी। हमारे घर में भी यही बर्तन मांजती थी। उसकी खुद की सफाई को लोग पसंद करते थे। पोस्ट आफिस के निकट स्थित राम-जानकी मंदिर के पास रहने वाले बलिकरन का भी परिवार कुछ घरों में चौका-चूल्हा का काम करता था।

1950 के आसपास इस कस्बे की लगभग पूरी आबादी यहां के एकमात्र वर्तमान चौराहे से दक्षिण ओर थी। चौराहे से पूर्व बलिया नाले के पुल के ठीक पहले श्री केदारनाथ मुख्तार का मकान था और पश्चिम ओर सीधे थाना था, जिसके बीच में सड़क किनारे कोई मकान नहीं था। चौराहे से मऊपाकड़ की ओर रास्ते में कहीं कोई आबादी न होकर एक किनारे से सिर्फ कचहरी, धर्मशाला, डांकबंगला, आबकारी, सार्वजनिक निर्माण विभाग, मिडिल स्कूल, प्राइमरी स्कूल, अस्पताल और गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक इंटर कालेज स्थित था। चौराहे से पूर्व में मुख्तार साहब के मकान के बाद बलिया नाला पुल पार करने के बाद सीधे हनुमानगढ़ी ही था। उसके बाद एक छोटी सी आबादी थी। इसके उत्तर ओर कुछ हटकर अमरुतिया बाजार था।

मुख्तार साहब के मकान के सामने उत्तर ओर शराब भट्ठी से सटे पश्चिम सड़क किनारे ही एक टूटी-फूटी झोपड़ी में एक बूढ़ा सूरदास रहता था, जिसे लोग घवताल बाबा कहते थे। यह बाबा दिनभर झोपड़ी में पड़े रहते। वह सिर्फ सुबह-शाम बाहर निकलकर मुख्तार साहब को लगभग चिल्लाते हुए आवाज देते और भोजन की मांग करते। प्राय: मुख्तार साहब ही उसे भोजन देते। यह वृद्ध सूरदास 1963 के आसपास तक ही दिखाई दिये। फिर उनका पता नहीं।

उन दिनों घरों के बर्तन प्राय: फूल अथवा पीतल के होते थे। इनके टूट जाने पर मरम्मत का काम सिर्फ रामकिशुन का ठठेरा परिवार करता था, जो अमरुतिया बाजार में रहता था। इसी प्रकार लोहे के सामानों के निर्माण अथवा मरम्मत के लिए बृहस्पतिवार (बीफे) वाले बाजार में श्री विंध्याचल लोहार थे, जिनके यहां चमड़े की धौकनी चलती रहती। विंध्याचल जी कस्बे के तेज तर्रार, समझदार लोगों में से एक थे।

किसी भी समाज के लिए मनोरंजन आवश्यक है, लेकिन यहां कुछ भी नहीं था। एकमात्र मुख्तार साहब, जो स्वयं भी नाटक और संगीत के प्रति काफी रुचि रखते थे, दशहरा के समय रामलीला करवाने के साथ-साथ साल में एक दो बार कथक नर्तक अथवा किसी संगीत पार्टी को बुलवाकर कार्यक्रम करवाते थे। दरभंगा के हरि जी और अनिरुद्ध जी की नौटंकी पार्टियां प्राय: साल में दो बार आती थीं, जिसे देखने लगभग पूरा कस्बा ही उमड़ पड़ता।
जहां भी आबादी होती है, कपड़ों की धुलाई भी उसका आवश्यक हिस्सा होती है। उन दिनों गब्बू, झब्बू, कुक्कुर, झम्मन और त्रिवेणी धोबी के परिवार थे, जो लोगों के कपड़े धोते थे। कपड़ों की धुलाई कोड़ी (बीस कपड़े) के हिसाब से होती थी। बलिया नाले पर पुल से दक्षिण ओर पूर्वी तट पर एक बड़ा सा टीला था, जहां पाटों पर पटक कर कपड़ों की धुलाई होती और टीले पर कपड़े सुखाये जाते थे। कुछ पाटे नाले के पश्चिमी तट पर भी रहते थे।
किसी आबादी के लिए पक्के मकानों और कारों की उपस्थिति अहम् की संतुष्टि करती है।

यहां पर 1950 के पहले तक पक्के मकान सिर्फ दो ही थे और दोनों पोस्ट आफिस के निकट थे और दोमंजिले थे। यह अलग बात है कि सिर्फ इनके आगे के हिस्से ही पक्के थे, पीछे खपड़े के थे। इनमें से एक मकान श्री काशीनाथ मुख्तार का और दूसरा सामा शाह का था। बाद में 1954-55 में खूबलाल पटेहरा का नक्काशीदार दोमंजिला मकान बना, जो अपने समय में आकर्षण का केंद्र था। जहां तक कार का प्रश्न है, श्री ईश्वर शरण श्रीवास्तव सेकेंड हैंड एम्बेसडर कार लाये थे, लेकिन इनके भी पहले से डा. कौशल किशोर पाण्डेय के पास भी सेकेंड हैंड एक कार थी।

इस नगर में पार्क का अभाव तो अभी हाल तक था। 1950 के आसपास बच्चों के खेलने के लिए यहां कोई स्थान नहीं था। छोटे बच्चे तो गुल्ली-डंडा, गुच्ची, गोली और लट्टू नचाने का ही खेल खेलते। कक्षा 6 अथवा उससे आगे पढ़ने वाले कस्बे के बच्चे रोजाना ही नियमित रूप से साल भर कालेज फील्ड में हाकी, फुटबॉल, वालीबाल, बैडमिंटन आदि खेलते। वर्तमान जिला पंचायत कार्यालय (पुराना डाक-बंगला) के ठीक पीछे पूर्व में आम का एक बागीचा था, जहां छोटे बच्चे लखनी खेलते। लोक निर्माण विभाग कार्यालय के बाहर सड़क किनारे काफी संख्या में केले लगे रहते, जिन्हें शाम को खेल कर लौटते हुए चोरी से तोड़कर खाने का मजा ही कुछ और था। कस्बे के पढ़ने वाले खिलाड़ी लड़कों का एक दल प्राय: शाम को पड़रि  गांव के सामने मुख्य सड़क पर पुलिया पर बैठकर हवाखोरी करता।

1955 के आसपास एकमात्र ‘सरकउवा‘ (सीढ़ी से चढ़कर सरकने वाला) ग्रामसभा की ओर से खरीद कर आया, लेकिन उसे ग्राम प्रधान श्री केदारनाथ मुख्तार ने अपने आवास के सामने मैदान में लगवा दिया। फलस्वरूप, दूसरे बच्चे वहां खेलने नहीं जा पाते।
अधिकारी के नाम पर तब यहां तीन ही अधिकारी होते– एक तहसीलदार, दूसरे थानेदार और तीसरे आबकारी निरीक्षक। तब तहसीलदार एक बड़ी ऊंची चीज होता। परगनाधिकारी अथवा पुलिस के क्षेत्राधिकारी गोरखपुर जिला मुख्यालय पर ही बैठते थे। तहसीलदार के आवास की भी एक शोभा होती। कई चपरासी और ढेरों फल फूल के पौधे।

1950 के आसपास तीनों विद्यालयों प्राइमरी, मिडिल और गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक इंटर कालेज सचमुच आदर्श विद्यालय के रूप में थे। आज की स्थिति काफी बदल चुकी है। वेतन अधिक और पढ़ाई कम है। तब के तीनों विद्यालयों के प्रमुखों में श्री पौहारी शरण, श्री नागेश्वर लाल और श्री महेन्द्र नाथ द्विवेदी आज भी याद किये जाते हैं। खेल के अध्यापक (पीटी मास्टर) श्री खेदू प्रसाद की तरह समर्पित कोई दूसरा खेल अध्यापक फिर नहीं पैदा हुआ।

एक बात सोचता हूं, विशेषकर बीता हुआ बचपन और उससे जुड़ी हुई प्राय: सारी चीजें आज की तुलना में अच्छी लगती हैं। लेकिन सिर्फ इस मनोवैज्ञानिक सत्य के आधार पर हम आज को झुठला नहीं सकते। हम आज वर्तमान के सत्य और संघर्षों के बीच पल बढ़ रहे बच्चों की भावनाओं को ध्यान में रखकर वर्तमान तथा आने वाले कल को और सुधारें तथा बेहतर बनायें, जहां एक ऐसा समाज हो , जहां ऊंच-नीच न हो, आपसी वैमनस्य न हो, गंदी स्वार्थी राजनीति न हो और न हो हवा, पानी तथा खाद्य पदार्थों में तेजी से फैलता प्रदूषण अपमिश्रण। हम अपने इतिहास को याद कर भविष्य और बेहतर बनायें, जो निश्चय ही बेहतर बनेगा।

समाप्त

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