साल भर मुकदमा चला और मैं जीत गया। उसी शाम कोर्ट के चपरासी को एक नोटिस उस मकान पर मकान मालिक के लिए चस्पा करना था, जिसके लिए परम्परा के अनुसार वह 20रू. लेता था। मैं ऐसा काम नहीं कर सकता था। मैंने चपरासी से कहा, चलो तुम्हें स्कूटर से वहाँ तक पहुँचा देता हूँ। मैंने उसे स्कूटर से मकान तक पहुँचा दिया। उसने नोटिस चस्पा कर दी, लेकिन चूँकि उसे 20रू. नहीं दिया था, इसलिए नोटिस चस्पा करने की सूचना उसने उसी दिन कोर्ट में न देकर, दूसरे दिन दी। मकान मालिक को फिर मौका मिल गया और उसने फिर स्टे ले लिया।
के. एम. अग्रवाल
सालों से मन में यह बात आती थी कि कभी आत्मकथा लिखूँ। फिर सोचा कि आत्मकथा तो बड़े-बड़े लेखक, साहित्यकार, राजनेता, फिल्मकार, अन्तर्राष्ट्रीय खिलाड़ी, वैज्ञानिक, बड़े-बड़े युद्ध जीतने वाले सेनापति आदि लिखते हैं और वह अपने आप में अच्छी-खासी मोटी किताब होती है। मैं तो एक साधारण, लेकिन समाज और देश के प्रति एक सजग नागरिक हूँ। मैंने ऐसा कुछ देश को नहीं दिया, जिसे लोग याद करें। पत्रकारिता का भी मेरा जीवन महज 24 वर्षों का रहा। हाँ, इस 24 वर्ष में जीवन के कुछ अनुभव तथा मान-सम्मान के साथ जीने तथा सच को सच और झूठ को झूठ कहने का साहस विकसित हुआ। लेकिन कभी लिखना शुरू नहीं हो सका।
एक बार पत्रकारिता के जीवन के इलाहाबाद के अनुज साथी स्नेह मधुर से बात हो रही थी। बात-बात में जीवन में उतार-चढ़ाव की बहुत सी बातें हो गयीं। मधुर जी कहने लगे कि पुस्तक के रूप में नहीं, बल्कि टुकड़ों-टुकड़ों में पत्रकारिता के अनुभव को जैसा बता रहे हैं, लिख डालिये। उसका भी महत्व होगा। बात कुछ ठीक लगी और फिर आज लिखने बैठ ही गया।
गतांक से आगे…
मकान का एलाटमेंट
1978 में पहली बार जब इलाहाबाद आया तो मकान की समस्या थी कि परिवार को लेकर कहाँ रहा जाहैं? शुरू में कुछ दिनों मुट्ठीगंज में अपने निकट के रिश्तेदार बड़े साढ़ू मोतीलाल अग्रवाल के परिवार के साथ रहा। फिर एक दिन इलाहाबाद विकास प्राधिकरण के एक बाबू से बात हुई, जो अग्रवाल ही थे, उन्होंने कहा कि अल्लापुर में प्राधिकरण के मकान की तीसरी मंजिल पर कई फ्लैट खाली पड़े हैं, मैं वहाँ कुछ महीने बिना किराये के भी रह सकता हूँ। तीन-चार महीने वहाँ भी तीसरी मंजिल पर रहा। पानी की बहुत किल्लत होती थी, क्योंकि ऊपर पानी आता ही नहीं था। एक दायी 30 रू. महीने लेकर रोजाना 6 बाल्टी पानी नीचे से ऊपर पहुँचा देती थी। फिर मीरापुर में किराए का मकान मिल गया। तिवारी जी का मकान था, जो हाईकोर्ट में टाइपिस्ट थे। वे बलिया के रहने वाले सुलझे हुए, मिलनसार थे।
पत्रिका के स्पोर्ट्स रिपोर्टर सी.आर.धर (चीरू दा) ने एक दिन बताया कि हिन्दी साहित्य सम्मेलन चौराहे के एलाटमेंट के जिस मकान में वह स्वयं रहते हैं, उसका एक पोर्शन खाली हुआ है, मैं एलाट करा लूँ। मैंने उधर ध्यान नहीं दिया। लेकिन एक दिन चीरू दा एलाटमेंट से संबंधित फार्म लेते आये और दबाव डालकर मुझसे भरवाकर जमा करवा दिया।
महीना-दो महीना बीत गया तो मैने अपर जिलाधिकारी (एलाटमेंट)श्री चतुर्वेदी जी से कहा कि इतनी देर क्यों लग रही है? उन्होंने कहा कि शांत रहिए, ऐसी रिपोर्ट बना रहा हूँ, जो हाईकोर्ट तक न कटे।
इस मकान के मालिक जलकल विभाग में काम करते थे और उन्हें जानकारी हो गयी थी कि मैं उस मकान के उस पोर्शन को एलाट कराने का प्रयास कर रहा हूँ। इसलिए वह इस प्रयास में थे कि एलाटमेन्ट न होने पाये।
एक शाम चतुर्वेदी जी ने टाइपराइटर के साथ बाबू को अपने आवास पर बुलाया और एलाटमेन्ट आर्डर टाइप करवा कर मुझे मकान एलाट कर दिया।
दूसरे दिन मकान मालिक ने जिला जज कोर्ट से स्टे ले लिया। साल भर मुकदमा चला और मैं जीत गया। उसी शाम कोर्ट के चपरासी को एक नोटिस उस मकान पर मकान मालिक के लिए चस्पा करना था, जिसके लिए परम्परा के अनुसार वह 20रू. लेता था। मैं ऐसा काम नहीं कर सकता था। मैंने चपरासी से कहा, चलो तुम्हें स्कूटर से वहाँ तक पहुँचा देता हूँ। मैंने उसे स्कूटर से मकान तक पहुँचा दिया। उसने नोटिस चस्पा कर दी, लेकिन चूँकि उसे 20रू. नहीं दिया था, इसलिए नोटिस चस्पा करने की सूचना उसने उसी दिन कोर्ट में न देकर, दूसरे दिन दी। मकान मालिक को फिर मौका मिल गया और उसने फिर स्टे ले लिया। फिर एक साल लगा। मेरी फिर जीत हुई। मामला हाईकोर्ट में गया। सौभाग्य से एक महीने के भीतर की तारीख लग गयी और वहाँ भी मेरे पक्ष में फैसला हुआ।
धारा 14 सी के अन्तर्गत पुलिस को आदेश हुआ कि मुझे कब्जा दिलाये। मैंने एस.एस.पी. से कहा और उन्होंने कोतवाली इंस्पेक्टर को निर्देश दिया कि सूर्यास्त से पहले मुझे मकान पर कब्जा दिला दें। बहरहाल, इंस्पेक्टर ने तुरंत आनन-फानन में मकान पर मुझे लीगल कब्जा दिला दिया और मैं सपरिवार वहाँ रहने लगा।
वैसे इससे पहले एक-दो लोगों ने जो समाचार के संदर्भ में प्रेस में आते-जाते थे, मुझसे कहा कि कहाँ कोर्ट के चक्कर में पड़े हैं, वर्षों लग जायेंगे। चलिए, हम कब्जा दिला देते हैं। लेकिन मैंने मना कर दिया कि ऐसा काम मैं नहीं करूँगा।
एक और बात की जिक्र करना जरूरी लगता है। जिस दिन हमारे मामले में मकान पर कब्जा दिलाने के लिए 14 सी जारी हुआ था, उसी दिन किन्हीं और दो मामलों में ऐसे ही आदेश जारी हुए थे। लेकिन उन दोनों मामलों में कोई जबरदस्त सिफारिश नहीं थी, इसलिए संबंधित थानों की पुलिस ने रिपोर्ट लगा दी कि यदि बलपूर्वक कब्जा दिलाया जायेगा, तो बलवा हो सकता है। और पुलिस ने इसी आड़ में उन दोनों मामलों में कब्जा नहीं दिलाया। मेरा मामला अलग था। मैं पत्रकार जो था।
ताजी रोहू मछली
इलाहाबाद आने बाद से ही मैं ऐसे-ऐसे सरकारी विभागों में समाचार के संदर्भ में संपर्क करने लगा, जिनका आम जन से संबंध था, लेकिन दूसरे अखबारों के रिपोर्टर वहाँ नहीं जाते थे। ऐसा ही एक विभाग था मत्स्य पालन विभाग। मछली पालने वालों के लिए तरह-तरह की योजनाएं वहाँ आती थीं। मत्स्य पालकों की समस्याएं कभी अखबारों में नहीं छपती थीं, लेकिन मैंने उधर ध्यान दिया।
एक दिन मत्स्य पालन विभाग के एक छोटे अधिकारी रविवार के दिन एक बड़ी सी बिलकुल ताजी रोहू मछली लेकर मुझे देने के लिए मेरे घर पर आये। बोले, दो-तीन घंटे पहले ही तालाब से निकाली गयी है। मैंने कहा कि हम लोग तो शाकाहारी हैं, मछली नहीं खाते। वह निराश वापस जाने लगे तो मैंने उन्हें रोका और बगल में रह रहे चीरू दा को आवाज देकर मछली उन्हें दिलवा दी। अधिकारी भी खुश और चीरू दा का क्या कहना ? दो बार धन्यवाद, धन्यवाद बोले।
क्रमशः 13