… फिर महादेवी वर्मा जी के बाहर आने पर अर्गल साहब ने कहा, ‘आप साहित्यकार हैं और मैं भी कलाकार हूँ। दोनों का सम्मान होता है, जिसका ध्यान आपने नहीं रखा’। और अर्गल साहब, महादेवी जी की फोटो खींचे बगैर कार में बैठे और घर वापस आ गये। महादेवी जी देखती ही रह गयीं…।

के. एम. अग्रवाल
सालों से मन में यह बात आती थी कि कभी आत्मकथा लिखूँ। फिर सोचा कि आत्मकथा तो बड़े-बड़े लेखक, साहित्यकार, राजनेता, फिल्मकार, अन्तर्राष्ट्रीय खिलाड़ी, वैज्ञानिक, बड़े-बड़े युद्ध जीतने वाले सेनापति आदि लिखते हैं और वह अपने आप में अच्छी-खासी मोटी किताब होती है। मैं तो एक साधारण, लेकिन समाज और देश के प्रति एक सजग नागरिक हूँ। मैंने ऐसा कुछ देश को नहीं दिया, जिसे लोग याद करें। पत्रकारिता का भी मेरा जीवन महज 24 वर्षों का रहा। हाँ, इस 24 वर्ष में जीवन के कुछ अनुभव तथा मान-सम्मान के साथ जीने तथा सच को सच और झूठ को झूठ कहने का साहस विकसित हुआ। लेकिन कभी लिखना शुरू नहीं हो सका।
एक बार पत्रकारिता के जीवन के इलाहाबाद के अनुज साथी स्नेह मधुर से बात हो रही थी। बात-बात में जीवन में उतार-चढ़ाव की बहुत सी बातें हो गयीं। मधुर जी कहने लगे कि पुस्तक के रूप में नहीं, बल्कि टुकड़ों-टुकड़ों में पत्रकारिता के अनुभव को जैसा बता रहे हैं, लिख डालिये। उसका भी महत्व होगा। बात कुछ ठीक लगी और फिर आज लिखने बैठ ही गया।

गतांक से आगे…
‘ छायाकृति ‘ का जन्म
इलाहाबाद जैसे साहित्यिक, सांस्कृतिक क्षेत्र में आने के बाद मैंने स्वयं को महज एक प्रेस रिपोर्टर के रूप में सीमित नहीं रखा। साहित्य, कला के एक अन्य रूप ‘फोटोग्राफी ‘ से भी अपने को जोड़ा। उन दिनों इलाहाबाद में कलात्मक फोटोग्राफर तो कई थे, लेकिन उनके बीच मिलकर कुछ करने की सोच नहीं थी और न कोई ऐसी संस्था थी, जिसके माध्यम से फोटोग्राफी कला का इलाहाबाद में विकास हो।
हिन्दी साहित्य सम्मेलन चौराहे के एक कोने के मकान में मैं रहता था। थोड़ी ही दूर पर राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के फोटोग्रफर एस.के.अर्गल रहा करते थे। घर में फोटोग्राफी का उनका स्टूडियो ‘ अर्गल आर्ट ‘ था। उनके पिता जी.पी. अर्गल, जो स्वयं भी अपने समय के प्रसिद्ध प्रमुख फोटोग्रफर थे, उन्होंने ही ‘ अर्गल आर्ट ‘ को शुरू किया था।
एस.के. अर्गल साहब से एक दिन मैंने मुलाकात की। वह मुझे एक पत्रकार के रूप में पहले से जानते थे। मैंने फोटोग्राफी सीखने और कुछ करने की इच्छा व्यक्त की तो उन्हें अच्छा लगा। बोले, ‘अच्छी बात है, मैं तो कहीं दौड़ -भाग नहीं कर सकता। आप करना चाहते हैं, तो मेरा सहयोग रहेगा।’ मेरे पास अपना एक कैमरा था, जिसे मैंने निकाल लिया। अर्गल साहब से कुछ बातें सीखी।
यह बात सामने आयी कि जब तक कोई अपने फोटोग्राफ खुद नहीं बनायेगा, फोटोग्राफी कैसी ? फिर तो रील धुलने और इन्लार्जर आदि की सारी व्यवस्था अपने घर पर ही सीढ़ी के नीचे के स्थान को घेरकर डार्क रूम बनाया। पहली बार ब्लैक एण्ड ह्वाइट की खींची हुई रील लेकर विश्वविद्यालय के फोटोग्राफी विभाग में गया और रील की धुलाई कैसे करते हैं, सीखा।

अर्गल साहब के साथ धीरे-धीरे इलाहाबाद के कलात्मक फोटोग्राफरों जी.आर.कपूर और प्रो.स्कन्द गुप्त से मुलाकात हुई। निकटता बढ़ी। फिर 11 अप्रैल, 1982 को प्रो.स्कन्द गुप्त के विश्वविद्यालय स्थित प्रोफेसर कालोनी के आवास पर एक बैठक में ‘छायाकृति’ नाम से संस्था का जन्म हुआ। एस.के.अर्गल इसके अध्यक्ष, जी.आर.कपूर और प्रो.स्कन्द गुप्त उपाध्यक्ष तथा मैं महामंत्री/कोषाध्यक्ष बना। साथ में एस.के.यादव, स्नेह मधुर, विभु गुप्ता और अजामिल कार्यकारिणी सदस्य बने।
फिर तो कभी-कभी हम दो-चार लोग कभी सूर्योदय से पहले और कभी सूर्यास्त के ठीक पहले फोटोग्राफी के उद्देश्य से इधर-उधर निकल जाते। साथियों के नये काम भी इस प्रकार दिखाई देने लगे। धीरे-धीरे वह दिन भी आया, जब छायाकृति से जुड़े फोटोग्राफरों के छायाचित्रों की एक प्रदर्शनी हिन्दुस्तानी एकेडमी में 1 नवम्बर, 1985 को लगायी गयी, जिसे लोगों ने काफी सराहा।

पुनः 30 अप्रैल, 1988 को हिन्दुस्तानी एकेडमी में ही ‘ छाया सुन्दरी ‘ (मिस फोटोजेनिक) प्रतियोगिता से संबंधित छाया चित्रों की दो दिवसीय प्रदर्शनी लगायी गयी।
1988 के इस प्रदर्शनी की एक खासियत यह थी कि पहली बार इलाहाबाद के अपने समय के फोटोग्राफी के स्तम्भ चार फोटोग्राफरों को विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो.जगदीश गुप्त के हाथों सम्मानित किया गया। यह क्षण इतना भावुक था कि सभी की आँखें नम हो गयीं।


ये चारों 75 वर्ष से अधिक उम्र के फोटोग्रफर सर्वश्री जी.पी.अर्गल, शिवलाल वर्मा, एम.पी.गुप्ता और एन.एन.मुखर्जी थे। शिवलाल वर्मा ने तो नम आँखों से कहा कि इस उम्र में आकर हम लोगों को इलाहाबाद में सम्मानित किया गया, जो बड़ी बात है।
ये चारों फोटोग्रफर अपने समय के बहुत सम्मानित और स्वाभिमानी फोटोग्राफर हुआ करते थे। जी.पी.अर्गल साहब के जीवन से जुड़ी एक-दो घटना बताना समीचीन होगा, जो उन्होंने मुझे कभी बतायी थी।
एक बार दारागंज में किसी इंटर कालेज में कोई कार्यक्रम था, जिसमें निराला जी को आना था। किसी कारण से कार्यक्रम टल गया था, लेकिन निराला जी को जानकारी नहीं हो सकी थी। वह कालेज में आकर एक कमरे में अकेले एक खिड़की के पास बैठे थे। तभी जी.पी.अर्गल साहब कार्यक्रम की तस्वीर लेने पहुँचे थे। उन्होंने निराला जी को अकेले बैठे देखा तो उनका कलाऊ जाग उठा। निराला जी के चेहरे पर एक किनारे से रोशनी पड़ रही थी। अर्गल साहब ने बिना बताये, चुपके से कैमरा क्लिक कर दिया। निराला जी जान भी नहीं पाये। अर्गल साहब खींची इस तस्वीर को डाक विभाग ने टिकट के रूप में प्रकाशित भी किया।
दूसरी घटना महादेवी वर्मा जी से संबंधित है। महादेवी जी ने अर्गल साहब को शाम को एक निश्चित समय पर अपनी फोटो खीचने के लिए अनुरोध किया था। अर्गल साहब अपनी कार से महादेवी जी के घर पहुँच गये। महादेवी जी को घर से बाहर निकलने में निर्धारित समय से आधा घंटा विलम्ब हो गया। महादेवी जी के बाहर आने पर अर्गल साहब ने कहा, ‘आप साहित्यकार हैं और मैं भी कलाकार हूँ। दोनों का सम्मान होता है, जिसका ध्यान आपने नहीं रखा’। और अर्गल साहब, महादेवी जी की फोटो खींचे बगैर कार में बैठे और घर वापस आ गये। महादेवी जी देखती ही रह गयीं।
एन.एन.मुखर्जी अपने समय के मशहूर प्रेस फोटोग्रफर थे। 1954 के कुंभ में, जिसमें प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के आगमन के दौरान भगदड़ मच जाने से एक हजार से अधिक लोग कुचल कर मर गये थे, उसकी तस्वीर मुखर्जी (नीपू दा) ही खींच सके थे। इसके लिए उन्हें अपनी जान हथेली में लेकर, गिरे हुए लोगों के ऊपर से होकर गुजरना पड़ा था। दूसरे दिन, लाशों को एक दूसरे पर डालकर पेट्रोल छिड़क कर जला दिया गया था। इस जघन्य कार्य की तसवीर भी सिर्फ नेपू दा ही खींच पाये थे। इन तस्वीरों को एन.आई.पी. में देखने के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने मुखर्जी को ‘हरामजादा फोटोग्रफर ‘ कहा था।
पुनः 1989 के माघ माह में महाकुंभ के अवसर पर ‘महाकुंम-1989’ विषय पर छायाचित्र प्रतियोगिता और प्रदर्शनी का आयोजन हुआ, जिसकी चारो ओर चर्चा हुई।
धीरे-धीरे करके छायाकृति से हिमांशु तिवारी, लोकनाथ सान्याल, वसीमुल हक, केशव घिल्डियाल, नरेंद्र यादव, अरुण मुखर्जी, दीपक, शिवानी यादव, त्रिभुवन नाथ मंजुल, रंजन मिश्रा और अनूप मेहरोत्रा आदि स्थानीय फोटोग्रफर भी जुड़ गये।
स्नेह मधुर उन दिनों पहले से ही ‘ माया ‘ और ‘मनोरमा’ पत्रिकाओं के लिए विभिन्न माडलों की कलात्मक तस्वीरें बनाया करते थे। उनकी खींची ट्रांसपेरेंसी बाम्बे से बन कर आती थी।
फोटोग्राफी के प्रति मेरे अंदर एक जुनून सा पैदा हो गया था, जिस कारण ही छायाचित्र प्रतियोगिताओं में मेरे कई छायाचित्र प्रथम और द्वितीय स्थान पर आते रहे। एकबार तो वाराणसी प्रेस फोटोग्राफर्स एसोसिएशन की ओर से आयोजित प्रतियोगिता में मेरे छायाचित्र ‘पेयर’ को ‘विशेष सम्मान’ प्राप्त हुआ।

महाकुंभ के बाद मार्च, 1989 में मैं तो इलाहाबाद छोड़कर गुवाहाटी चला गया, लेकिन अच्छी बात यह रही कि एस.के.यादव संस्था के महामंत्री बना दिये गये और फिर उनकी कल्पनाओं के अनुसार कलात्मक फोटोग्राफी का काय आगे बढ़ता गया। विश्व में फोटोग्राफी के 150 वर्ष पूरे होने पर इलाहाबाद में भी इस अवसर को यादगार बनाने के लिए फोटो प्रतियोगिता तथा प्रदर्शनी का आयोजन 28 से 30 मई, 1990 में हुआ, जिसमें 50 से अधिक फोटोग्राफरों ने भाग लिया। लगभग 300 छायाचित्र प्राप्त हुए, जिनमें से 20 को पुरस्कृत किया गया। बाद में ‘छायाकृति‘ का नाम ‘फोटोग्राफिक सोसाइटी आफ इलाहाबाद’ कर दिया गया। इसकी यात्रा आज भी जारी है।

क्रमशः 18
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