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‘मेरा जीवन’: के.एम. अग्रवाल: 19

… देखते-देखते दोस्ती के चक्कर में मैंने दुबे जी के साथ पाँच पेग तक ले लिया। मुझे काफी नशा हो गया। चलने का समय हुआ। दुबे जी ने मेरी हालत देखकर कहा कि किसी से घर छोड़वा देता हूँ। मैंने कहा कि नहीं, मैं चला जाऊँगा। मैंने स्कूटर उठाया और रात लगभग 11 बजे घर आ गया। गर्मी के दिन थे। पत्नी ने मेरी हालत देखी, खाने के लिए पूछा लेकिन मैंने मना कर दिया। सोने के लिए जैसे ही लेटा, भरपूर उल्टी हुई और जी शांत हुआ। दुबे जी से दोस्ती की ऐसी-तैसी हो गयी..।

के. एम. अग्रवाल

सालों से मन में यह बात आती थी कि कभी आत्मकथा लिखूँ। फिर सोचा कि आत्मकथा तो बड़े-बड़े लेखक, साहित्यकार, राजनेता, फिल्मकार, अन्तर्राष्ट्रीय खिलाड़ी, वैज्ञानिक, बड़े-बड़े युद्ध जीतने वाले सेनापति आदि लिखते हैं और वह अपने आप में अच्छी-खासी मोटी किताब होती है। मैं तो एक साधारण, लेकिन समाज और देश के प्रति एक सजग नागरिक हूँ। मैंने ऐसा कुछ देश को नहीं दिया, जिसे लोग याद करें। पत्रकारिता का भी मेरा जीवन महज 24 वर्षों का रहा। हाँ, इस 24 वर्ष में जीवन के कुछ अनुभव तथा मान-सम्मान के साथ जीने तथा सच को सच और झूठ को झूठ कहने का साहस विकसित हुआ। लेकिन कभी लिखना शुरू नहीं हो सका।

एक बार पत्रकारिता के जीवन के इलाहाबाद के अनुज साथी स्नेह मधुर से बात हो रही थी। बात-बात में जीवन में उतार-चढ़ाव की बहुत सी बातें हो गयीं। मधुर जी कहने लगे कि पुस्तक के रूप में नहीं, बल्कि टुकड़ों-टुकड़ों में पत्रकारिता के अनुभव को जैसा बता रहे हैं, लिख डालिये। उसका भी महत्व होगा। बात कुछ ठीक लगी और फिर आज लिखने बैठ ही गया।

गतांक से आगे…

‘खुद को टेस्ट किया’

अमृत प्रभात में चार-पाँच साल बाद ही मुझे चीफ रिपोर्टर पद नाम मिल गया था। एक दिन शाम को इन्दिरा गाँधी की जनसभा के.पी. इंटर कालेज के मैदान में होनी थी। मैंने सोचा कि खुद को टेस्ट करूँ कि मैं एस.के. दुबे की तुलना में समाचार लिखने में कितना समय लेता हूँ ? शाम को हम दोनों साथ ही कालेज के मैदान में इंदिरा जी को कवर करने गये और साथ ही लौटे। दुबे जी अपने टाइपराइटर पर टपाटप करने लगे और मैं हाथ से ही समाचार लिखने लगा। और दोनों का लिखने एक साथ ही समाप्त हुआ। दोनों ने रिपोर्ट एक साथ ही भेज दिया। उस दिन मुझे अपने पर यह विश्वास हो गया कि लिखने के मामले में मैं उनसे कमजोर नहीं हूँ।

दुबे जी की मानसिकता थी कि साथ के पत्रकारों को अपनी छत्रछाया में रखना। यह मुझे कतई बरदाश्त नहीं था। एक दिन उन्होंने मुझे कुछ इसी आशय का संकेत दिया। मैंने कहा, ‘दुबे जी, आप मुझसे उम्र में बड़े हैं, वरिष्ठ भी हैं। बड़े भाई के रूप में मैं आपको मानता हूँ। इसके आगे और कुछ नहीं।’ तब से वह समझ गये कि मैं झुकने वाला नहीं हूँ। फिर वह दाँव पर दाँव चलते रहे कि मैं झुक जाऊँ, लेकिन उन्हें कभी सफलता नहीं मिली।

दोस्ती की कोशिश

एक बार हमारे समाचार संपादक माथुर साहब ने मुझे समझाया कि दुबे से जरा मिलकर रहा करो। हमेंशा तुम्हारी कुछ न कुछ शिकायत करते रहते हैं।
मैंने सोचा कि देखूँ, उनसे कैसे दोस्ती होती है ? एक शाम प्रेस का काम समाप्त करके मैं भी दुबे जी के साथ वहीं चला गया, जहाँ उनका जमावड़ा होना था। मैं भी एक या दो पेग तक कभी-कभी शाम के किसी बड़े समारोहों में ले लेता था। इस बार देखते-देखते दोस्ती के चक्कर में मैंने दुबे जी के साथ पाँच पेग तक ले लिया। मुझे काफी नशा हो गया। चलने का समय हुआ। दुबे जी ने मेरी हालत देखकर कहा कि किसी से घर छोड़वा देता हूँ। मैंने कहा कि नहीं, मैं चला जाऊँगा। मैंने स्कूटर उठाया और रात लगभग 11 बजे घर आ गया। गर्मी के दिन थे। पत्नी ने मेरी हालत देखी, खाने के लिए पूछा लेकिन मैंने मना कर दिया। सोने के लिए जैसे ही लेटा, भरपूर उल्टी हुई और जी शांत हुआ।
दुबे जी से दोस्ती की ऐसी-तैसी हो गयी।

अंग्रेजी मानसिकता

एक बार जब अमृत प्रभात और एन.आई.पी. के रिपोर्टरों का ब्यूरो बन गया था, मुझे एक अच्छा समाचार मिला, जिसकी कापी मैंने व्यवस्था के अनुसार ब्यूरो चीफ दुबे जी को दे दी। दूसरे दिन दोनों अखबारों में वह समाचार प्रमुखता से छपा।
इत्तेफाक से उसी दिन पूर्वाह्न 11 बजे पत्रिका के संपादक एस.के. बोस प्रेस में आये थे और संपादकीय कक्ष से दुबे जी को फोन करके उस समाचार के लिए बधाई दे रहे थे। उसी समय मैं भी बोस साहब के पीछे से गुजरा और मैंने उनकी बधाई देने की बात सुन ली। मैंने पलटकर बोस साहब से कहा, ‘सर, वह मेरा समाचार है, दुबे जी का नहीं।’
बोस साहब मेरी बात सुनकर चुप हो गये लेकिन उनके मुँह से मेरे लिए बधाई जैसा एक शब्द भी नहीं निकला कि अग्रवाल बहुत अच्छा समाचार है।

स्वीकार कर लिया

मुझे इलाहाबाद आये चार-पाँच साल हो चुके थे। शिक्षक संघ के एक नेता कभी-कभी समाचार लेकर प्रेस में आते थे। वह एक-दोबार मेरे घर पर भी आ चुके थे। गर्मी के दिन थे। जिस कमरे में मैं बाहर से आने वलों को बैठाता था, उसमें सिर्फ एक टेबिल फैन था।
एक रविवार वही शिक्षक नेता एक नया सीलिंग फैन लेकर मिस्त्री के साथ मेरे घर आये और बोले,‘सर, इसे लगवा लीजिए।’ मैंने कई बार मना किया लेकिन उनके बार-बार के भावपूर्ण अनुरोध को मैं अंत में टाल नहीं सका और उन्होंने कमरे में पंखा लटकवा दिया।

यहाँ मैं स्पष्ट कर दूँ, एकबार इस पंखे को स्वीकार करने के अतिरिक्त फिर कभी किसी से कुछ भी स्वीकार नहीं किया।

साली का प्रश्न था

एक बार मेरी छोटी साली, जिनका विवाह अभी नहीं हुआ था, मेरे यहाँ आयी थीं। बेबी को सिनेमा दिखाने के लिए परिवार के साथ हमलोग मुट्ठीगंज के एक सिनेमा हाल पर गये। काफी भीड़ थी। टिकट खिड़की पर पता चला कि टिकटें बिक चुकी हैं। मैं परेशान सा हो गया। हाल के बाहर ही एक दारोगा के सामने ही टिकट ब्लैक हो रहे थे। मुझे गुस्सा लगा। समझ में नहीं आया क्या करूँ ? मन में आया बेबी (साली) क्या कहेगी ? हमलोग बिलकुल पास में ही रहने वाले अपने बड़े साढ़ू के घर पर चले गये। वहीं से मैंने एस.एस.पी. को फोन कर बताया कि इस समय सपरिवार सिनेमा देखने मुट्ठीगंज आया हूँ। एक दारोगा के सामने ही टिकट ब्लैक में बेचे जा रहे हैं। टिकट खिड़की पर ‘हाउस फुल’ का बोर्ड लगा है।

एस.एस.पी. ने कहा, अब जब आपने तीर चला ही दी है, तो प्लीज़, कुछ देर साढ़ू के ही घर पर रुक जाइये और सिनेमा देख कर जाइयेगा। …थोड़ी ही देर में मुट्ठीगंज थाने के एस.ओ. महोदय घर पर आ गये और बोले, ‘ सर, आप सिनेमा देखकर ही घर जायेंगे।’ एक-डेढ़ घंटे बाद ही अगले शो का टिकट भी मिल गया और पूरे समय तक एस.ओ. महोदय सिनेमाघर पर ही मौजूद रहे तथा सिनेमा खतम होने पर मुझे नमस्कार करके चले गये।

क्रमशः 20

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