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‘मेरा जीवन’: के.एम. अग्रवाल: 20

अभी मैं मुख्य भवन के बाहर ही पहुँचा था कि सामने से आते हुए तमाल कांति घोष ने मुझे रोक लिया। नमस्कार हुआ। तमाल बाबू ने सीधे मुझसे कहा कि मैं यूनियनबाजी छोड़ दूँ। मैंने कहा, ” तमाल बाबू, मैं यूनियन में जरूर सक्रिय हूँ, लेकिन कभी भी पत्रिका प्रेस के विरुद्ध कोई काम नहीं किया है।” उन्होंने कहा, ” नहीं, नहीं, आप यूनियनबाजी छोड़िये, अन्यथा आपको डेस्क पर भेज दिया जायेगा।”

के. एम. अग्रवाल

सालों से मन में यह बात आती थी कि कभी आत्मकथा लिखूँ। फिर सोचा कि आत्मकथा तो बड़े-बड़े लेखक, साहित्यकार, राजनेता, फिल्मकार, अन्तर्राष्ट्रीय खिलाड़ी, वैज्ञानिक, बड़े-बड़े युद्ध जीतने वाले सेनापति आदि लिखते हैं और वह अपने आप में अच्छी-खासी मोटी किताब होती है। मैं तो एक साधारण, लेकिन समाज और देश के प्रति एक सजग नागरिक हूँ। मैंने ऐसा कुछ देश को नहीं दिया, जिसे लोग याद करें। पत्रकारिता का भी मेरा जीवन महज 24 वर्षों का रहा। हाँ, इस 24 वर्ष में जीवन के कुछ अनुभव तथा मान-सम्मान के साथ जीने तथा सच को सच और झूठ को झूठ कहने का साहस विकसित हुआ। लेकिन कभी लिखना शुरू नहीं हो सका।

एक बार पत्रकारिता के जीवन के इलाहाबाद के अनुज साथी स्नेह मधुर से बात हो रही थी। बात-बात में जीवन में उतार-चढ़ाव की बहुत सी बातें हो गयीं। मधुर जी कहने लगे कि पुस्तक के रूप में नहीं, बल्कि टुकड़ों-टुकड़ों में पत्रकारिता के अनुभव को जैसा बता रहे हैं, लिख डालिये। उसका भी महत्व होगा। बात कुछ ठीक लगी और फिर आज लिखने बैठ ही गया।

गतांक से आगे…

‘जो होता है, अच्छा होता है’

संभवतः 1986-87 की बात है। एक शाम लगभग 5 बजे हमेशा की तरह मैं प्रेस लौटा था। अभी मैं मुख्य भवन के बाहर ही पहुँचा था कि सामने से आते हुए तमाल कांति घोष ने मुझे रोक लिया। नमस्कार हुआ। तमाल बाबू ने सीधे मुझसे कहा कि मैं यूनियनबाजी छोड़ दूँ।

मैंने कहा, ” तमाल बाबू, मैं यूनियन में जरूर सक्रिय हूँ, लेकिन कभी भी पत्रिका प्रेस के विरुद्ध कोई काम नहीं किया है।”

उन्होंने कहा, ” नहीं, नहीं, आप यूनियनबाजी छोड़िये, अन्यथा आपको डेस्क पर भेज दिया जायेगा।”

मैंने बिना देर किये तुरंत कहा,” मैं यूनियन नहीं छोड़ूंगा, आगे आपकी जैसी इच्छा।”

मेरे इतना कहते ही तमाल बाबू पीछे लौट गये और सीधे समाचार संपादक आर.डी. खरे के पास जा कर कहा कि अग्रवाल जी को डेस्क पर कर दीजिए और चले गये।
तुरंत ही खरे साहब ने मुझे बुलाया और पूछा, “क्या बात हो गयी” ?

मैंने सारी बात बता दी।

खरे साहब ने कहा,” मेरी मजबूरी है। आपको डेस्क पर आना होगा।”

मैंने कहा,” कोई बात नहीं “! (मन में सोचा, चीफ रिपोर्टर हूँ, डेस्क पर चीफ सब ही तो रहूँगा। दोनों पद बराबर होते हैं)।
मेरे मन में तुरंत एक बात दौड़ गयी कि माथुर साहब यहाँ समाचार संपादक होते तो शायद तमाल को वह समझा लेते। लेकिन खरे साहब में इतनी हिम्मत/मनोबल कहाँ जो तमाल से तर्क करते!
रिपोर्टिंग से हटकर डेस्क पर आते ही तमाल बाबू ने प्रेस से मुझे मिले हुए टेलीफोन को कटवा देने का आदेश जारी कर दिया। उन दिनों पी.बी.एक्स. में बैठकर टेलीफोन लाइनों का संचालन करने वाले बनर्जी दादा को यह बात अच्छी नहीं लगी और उन्होंने तब तक मेरा टेलीफोन कटने नहीं दिया, जब तक कि मेरे नाम से वही नम्बर फिर से मुझे एलाट नहीं हो गया।
शायद मुझे नीचा दिखाने के लिए शुरू में मुझे जिला पेज देखने का काम दिया गया। मुझे विभिन्न जिलों से संवाददाताओं द्वारा भेजे गये समाचारों को संपादित करना होता था। मेरे मन में आया कि किसी भी संवाददाता को न तो कुछ पैसे दिये जाते हैं और न ही कोई नियुक्ति पत्र। कोई जरुरत पड़ने पर वे कैसे सिद्ध कर सकेंगे कि वे अमृत प्रभात के संवाददाता हैं ? मैंने लगभग सभी संवाददाताओं को अमृत प्रभात के लेटर पैड पर कुछ न कुछ सुझाव देते हुए पत्र लिखे, जिससे कि लेटर पैड पर लिखा वह पत्र उनके लिए कोई प्रमाण बन सके।
तीन-चार महीने बाद ही मैंने समाचार संपादक खरे साहब से कहा कि मुझे शिफ्ट में भेजिये। उन्होंने कहा कि किस शिफ्ट में जाना चाहेंगे ? मैंने कहा कि नाइट शिफ्ट में भेज दीजिए। खरे साहब चौंक गये। बोले,”अभी सीधे नाइट शिफ्ट में नहीं। कल से मिड शिफ्ट में आइये।”
एक सप्ताह मिड शिफ्ट में रहने के बाद स्वतः नाइट शिफ्ट में आ गया। साथ में तीन और सहयोगी सह संपादक थे। पहले पृष्ठ के सारे समाचार भेज दिये गये। रात 11 बजे पहला पेज बनवाने के लिए अंदर प्रेस में गया तो वहाँ के इंचार्ज रामदास ने कहा,” अग्रवाल जी, घबराइयेगा नहीं। मैं हूँ न!”

मैंने कहा, ” रामदास जी,आप अपना काम करिये। पेज मैं बनवाऊँगा।” और मैंने अपने ढंग से पहला पेज बनवाया। सबकी उत्सुकता थी कि आज पता नहीं कैसा अखबार आयेगा ? रामदास ने भी पेज बन जाने के बाद देखा और कहा कि अच्छा है।
दूसरे दिन सुबह अखबार आया और संपादक से लेकर सभी ने प्रथम पृष्ठ की तारीफ की। किसी साथी ने पूछा कि रिपोर्टिंग से हटकर सीधे कैसे पहला पेज संपादित कर दिया ? मैंने कहा कि बीच-बीच में मैं देखता रहता था कि डेस्क पर कैसे काम होता है। फिर तो मेरे अंदर आत्मविश्वास और मजबूत हो गया।
मुझे रिपोर्टिंग और डेस्क दोनों का अनुभव हो जाना ही बाद में गुवाहाटी के अखबार के लिए संपादक पद पर मेरे चुनाव में सहयोगी रहा। ….शायद, इसीलिए कहा जाता है, जो होता है, अच्छा होता है।

पत्रकार कालोनी

चीफ रहते हुए एकबार मैंने इलाहाबाद श्रमजीवी पत्रकार यूनियन के कार्यालय के लिए महापालिका से कोई मकान/भवन आवंटित करने का लिखित अनुरोध किया। यूनियन के महामंत्री के नाते हमें रेलवे स्टेशन के बिलकुल निकट ही मुख्य मार्ग पर एक पुराना बंगला एलॉट हो गया। लेकिन उसमें जलकल विभाग के एक जूनियर इंजीनियर सपरिवार रहते थे। जैसे ही उन्हें पता चला, झट से उन्होंने हाईकोर्ट से स्टे ले लिया।

फिर हमें अलोपीबाग में मुख्य सड़क पर ही एक प्लाट दिखाया गया, जो उस समय हमें छोटा लगा और हमने इंकार कर दिया। वर्षों बाद हमने देखा कि उसी प्लाट पर सुंदर सा दोमंजिला मकान बन गया है। ….बहरहाल, कार्यालय के लिए कोई व्यवस्था नहीं हो पायी।
इलाहाबाद में पत्रकार कालोनी के लिए प्रयास किया गया। इलाहाबाद विकास प्राधिकरण ने बमरौली की तरफ अपनी एक कालोनी में 22 फ्लैट देने की पेशकश की, लेकिन साथियों ने यह कहकर इंकार कर दिया कि शहर से बहुत दूर है।
बाद में जब मैं डेस्क पर आ गया, तब भी अन्य साथी पत्रकार कालोनी के लिए प्रयास करते रहे। उन्हें सर्किट हाउस के निकट ही अशोक नगर में पत्रकार कालोनी के रूप में प्लाट आवंटित होने में सफलता मिली।
इस बीच हमारे ही कुछ साथियों ने प्राधिकरण की एक बैठक में यह आरोप लगाया कि मेरे पास इलाहाबाद में अपना मकान है, इसलिए मुझे प्लाट नहीं मिलना चाहिए। प्राधिकरण के लोग भी असमंजस में थे कि क्या करें, क्या न करें ? वैसे हमारा विरोध करने वाले साथी यह सिद्ध नहीं कर सके कि हमारे पास अपना मकान है।

पत्रकार कॉलोनी के लिए मैंने काफी प्रयास किया जिसमें सफलता भी मिली। काफी पत्रकारों को नियमानुसार प्लॉट आबंटित भी किए गए। लेकिन मुझे प्लॉट नहीं मिला। मुझे इस बात का मलाल भी नहीं रहा क्योंकि एक तरह से यह अच्छा भी रहा। मेरा दाना- पानी तो कहीं और लिखा था। लखनऊ में भी जैसे मुंह के अंदर से निवाला निकाल लिया जाता है, उसी तरह से प्लॉट निकल गया था। इलाहाबाद में भी ऐसा ही हुआ। वह कहावत कहीं गई है न: Man proposes, God disposes.

क्रमशः 21

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