राज्यपाल ने हिन्दी और हिन्दी अखबारों के बारे में कुछ ऐसा कमेंट किया, जो अशोक जी को नागवार गुजरा और वह तुरंत राज्यपाल पर बरस पड़े। राज्यपाल महोदय क्या बोलते! ‘एक चुप तो हजार चुप ‘जैसी वाली स्थिति उत्पन्न हो गई थी।
के.एम. अग्रवाल
सालों से मन में यह बात आती थी कि कभी आत्मकथा लिखूँ। फिर सोचा कि आत्मकथा तो बड़े-बड़े लेखक, साहित्यकार, राजनेता, फिल्मकार, अन्तर्राष्ट्रीय खिलाड़ी, वैज्ञानिक, बड़े-बड़े युद्ध जीतने वाले सेनापति आदि लिखते हैं और वह अपने आप में अच्छी-खासी मोटी किताब होती है। मैं तो एक साधारण, लेकिन समाज और देश के प्रति एक सजग नागरिक हूँ। मैंने ऐसा कुछ देश को नहीं दिया, जिसे लोग याद करें। पत्रकारिता का भी मेरा जीवन महज 24 वर्षों का रहा। हाँ, इस 24 वर्ष में जीवन के कुछ अनुभव तथा मान-सम्मान के साथ जीने तथा सच को सच और झूठ को झूठ कहने का साहस विकसित हुआ। लेकिन कभी लिखना शुरू नहीं हो सका।
एक बार पत्रकारिता के जीवन के इलाहाबाद के अनुज साथी स्नेह मधुर से बात हो रही थी। बात-बात में जीवन में उतार-चढ़ाव की बहुत सी बातें हो गयीं। मधुर जी कहने लगे कि पुस्तक के रूप में नहीं, बल्कि टुकड़ों-टुकड़ों में पत्रकारिता के अनुभव को जैसा बता रहे हैं, लिख डालिये। उसका भी महत्व होगा। बात कुछ ठीक लगी और फिर आज लिखने बैठ ही गया।
गतांक से आगे…
विशेष संवाददाता सरोज जी विधानसभा और गोपाल जी विधानपरिषद कवर करते थे। बाकी दिनों में कुछ भी कवर कर लेते थे। सरोज जी के पास जब किसी दिन कोई समाचार नहीं होता था, तो वह शाम को ही प्रेस में एक किनारे बैठकर कभी महापालिका प्रशासक या फिर शासन के किसी प्रमुख सचिव आदि को फोन करके भविष्य में विकास की किसी योजना की जानकारी ले लेते थे और वह प्रमुखता से सेकेंड लीड बन जाता था।
एक दिन सरोज जी ने मुझसे कहा, ‘प्यारे, सुबह-सुबह कुछ थानों पर चले जाया करो, कई समाचार मिल जाया करेंगे।’ मैं दो-तीन थानों का साइकिल से चक्कर लगाता लेकिन सबेरे-सबेरे कुछ नहीं मिलता। मैंने महसूस किया कि सरोज जी मुझे सिर्फ फालतू में दौड़ाना चाहते हैं। दो दिन के बाद से सवेरे थानों पर जाने का सिलसिला बंद कर दिया।
सरोज जी की राइटिंग ऐसी होती थी, मानो कोई छोटा चूहा पैर में स्याही लगाकर कागज पर दौड़ गया हो। उनके लिखी रिपोर्ट को सिर्फ दीक्षित जी और कम्पोजीटर ही पढ़ पाते थे। एक दिन अशोक जी ने सरोज जी को आदेश दिया कि आप टाइपराइटर से टाइप करके अपनी रिपोर्ट दिया करेंगे। बेचारे सरोज जी, टाइपिंग तो आती नहीं थी। एक उँगली से टक-टक एक-दो दिन तक टाइप करते रहे। फिर कपूर साहब ने उनसे कहा कि रहने दीजिए, टाइपराइटर टूट जायेगा। और फिर सरोज जी को हाथ से ही लिखने की छूट मिल गयी। उम्र में वह अशोक जी से भी संभवतः बड़े थे, इसलिए सभी उनका लिहाज करते थे।
अशोक जी रोजाना सुबह 11 बजे सभी रिपोर्टरों को अपने कमरे में बुलाते और उस दिन के कार्य के बारे में डिस्कस करते। फिर हम अपने कार्य पर निकल जाते। वह मुझे हमेशा समझाते कि छोटे-छोटे वाक्य लिखा करो। रिपोर्टरों से उनकी छपी रिपोर्ट पर भी चर्चा करते और कमियों को बताते। किसी रिपोर्ट के फालतू अंशों को काटकर हटाने में उन्हें बिलकुल समय नहीं लगता था।
छोटे कद-काठी के दुबले-पतले अशोक जी कितने स्वाभिमानी और निर्भीक व्यक्तित्व के धनी थे, इसका एक उदाहरण काफी होगा।
एक बार बेगम हजरत महल पार्क में कोई प्रदर्शनी लगी थी, जिसका उद्घाटन राज्यपाल को करना था। राज्यपाल महोदय उद्घाटन करने के बाद तीन-चार लोगों के साथ किनारे खड़े होकर बातचीत करने लगे। अशोक जी भी वहीं पर थे। राज्यपाल ने हिन्दी और हिन्दी अखबारों के बारे में कुछ ऐसा कमेंट किया, जो अशोक जी को नागवार गुजरा और वह तुरंत राज्यपाल पर बरस पड़े। राज्यपाल महोदय क्या बोलते! ‘एक चुप तो हजार चुप ‘जैसी वाली स्थिति उत्पन्न हो गई थी।
लखनऊ में रहते हुए मुझे राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के कलाकारों द्वारा अभिनीत नाटक एवं नृत्य के साथ चित्र प्रदर्शनी आदि देखने के मौके मिलते रहे, जो मेरे लिए उपलब्धि जैसी बात थी। रवीन्द्रालय में प्रायः कुछ न कुछ होते ही रहते थे।
बहुगुणा जी के साथ दो और नाम चन्द्रभान गुप्त और रामनरेश यादव याद आते हैं। गुप्ता जी कड़क मिजाज और प्रशासनिक क्षमता के साथ सरल, सादा स्वभाव के लिए पहचाने जाते थे, जबकि राम नरेश यादव, जिनकी पांच रू. रोजाना की भी वकालत नहीं थी, ऐसा उस समय कहा जाता था, और न तो राजनीति में ही अधिक सक्रिय थे, एकाएक मुख्यमंत्री बना दिये गये थे।
मुख्यमंत्री चंद्रभानु गुप्ता जी चारबाग के निकट पानदरीबा के अपने मकान में एक साधारण से तख्त पर चादर डालकर, खादी का पायजामा और दर्जी की सिली कपड़े की बांह वाली बनियान पहनकर, बैठे रहते और लोगों मिलने के साथ-साथ दूसरे काम भी निबटाते रहते।
एकबार कांग्रेस पार्टी का प्रदेश स्तर का कोई चुनाव मोतीमहल में चल रहा था। गुप्ता जी अंदर से निकलकर वापस जा ही रहे थे कि सामने से राजनारायण जी आते दिखे। उनके नजदीक आते ही गुप्ता जी ने अपना रूल उनकी पेट में कोचते हुए कहा, ‘तुम यहाँ भी आ गये ?’और राजनारायण वहीं से उल्टे पाँव लौट गये।
रामनरेश यादव, राजनारायण के आदेश से आजमगढ़ से सीधे लखनऊ पहुँचा दिये गये थे। जल्दी-जल्दी मुख्यमंत्री पद का शपथ उन्होंने लिया और फिर प्रेस से वार्ता करने के लिए हाजिर हो गये। उन्हें इतना समय नहीं मिला कि अपनी दाढ़ी बना सकते। बढ़ी हुई दाढ़ी वाली तस्वीर ही प्रेस में छपने के लिए चली गयी थी।
संभवतः 1977 के अंत की बात है। पत्रकारों को आवासीय सुविधा देने के लिए शासन ने एक योजना बनाई कि लखनऊ में पत्रकारिता के जिनके 5 वर्ष हो चुके होंगे, उन्हें पत्रकार कालोनी में एक प्लाट मिलेगा। बहुतों को प्लाट मिल गये लेकिन मुझे अभी सिर्फ साढ़े चार साल हुए थे, इसलिए मैं इस सुविधा से वंचित रह गया। बाद में इस समय सीमा को साढ़े चार साल कर दिया गया था, लेकिन तब तक मैं लखनऊ छोड़कर इलाहाबाद जा चुका था।
क्रमशः – 9