” हम प्रकृति के पांच तत्वों की चर्चा कर सकते हैं, नव तत्व तथा नवीन संदर्भों की चर्चा कर सकते हैं, किंतु इतना स्पष्ट है कि श्रीमद्भागवत कहती है कि हम इन संदर्भों की केवल चर्चा ही करते हैं या इनको अपने जीवन में चरितार्थ करने का भी प्रयास करते हैं?”
आचार्य श्री अमिताभ जी महाराज
जब आप क्रुद्ध हों और किसी व्यक्ति को अपने पीछे लगा कर के चुपचाप किसी सीसीटीवी कैमरे से अपनी वीडियो रिकॉर्ड करा ले तो निश्चित तौर पर आपके क्रोध का आवेग उतरने के बाद जब आप उस वीडियो को देखेंगे तो आपको लगेगा अरे यह तो कोई और ही राक्षस है, मैं तो यह हूं ही नहीं बहुत लज्जा का अनुभव होगा।

“श्रीमद्भागवत में प्रकृति के गुणों को समाविष्ट कर लेने का उपदेश सन्निहित”
जब हम धर्म विषयक चर्चा करते हैं तो यह आवश्यक नहीं है कि बहुत बड़े-बड़े संदर्भ भारी भारी वाक्य बड़े-बड़े श्लोकों के माध्यम से ही अपनी बात संप्रेषित की जाए। सहज रूप से छोटे संदर्भों को सामने रखते हुए तथा अपने वातावरण को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हुए भी अपनी बात को सहज रूप से रखना संभव हो सकता है। श्रीमद्भागवत की यदि चर्चा करें, तो बहुत स्पष्ट हो जाता है कि अपने प्रारंभ से ही उसमें प्रकृति के गुणों को अपने भीतर समाविष्ट कर लेने का उपदेश सन्निहित है।
प्रारंभ से लेकर अंतिम चरण तक हम उस संदर्भ को उसी रूप में प्राप्त करते हैं जैसे कि गन्ने में गन्ने की गांठ के प्रत्येक हिस्से में चीनी या शक्कर समाहित होती है।
हम प्रकृति के पांच तत्वों की चर्चा कर सकते हैं, नव तत्व तथा नवीन संदर्भों की चर्चा कर सकते हैं, किंतु इतना स्पष्ट है कि श्रीमद्भागवत कहती है कि हम इन संदर्भों की केवल चर्चा ही करते हैं या इनको अपने जीवन में चरितार्थ करने का भी प्रयास करते हैं।
यदि हम मात्र पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश इन पंच संदर्भों को या पंचमहाभूतओं को ही स्वीकार करें और सहज रूप से विचार करें तो यह स्पष्ट होता है कि इन पंच भूतों के गुणों को यदि हम अपने भीतर समाविष्ट कर पाएं तो श्रीमद्भागवत के मूल तत्व चिंतन को, जो सहज रूप से प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित कर जीवन को जीने का संदेश प्रदान करता है, हम समझ सकते हैं।
जब हम पृथ्वी की बात करते हैं तो धर्म की व्याख्या सामने आ जाती है। जो धारण करने की सामर्थ्य प्रदान करता है, वह धर्म है आप इसे दायित्व कह सकते हैं। आप इसे ऑब्लिगेशन कह सकते हैं। यदि हम पृथ्वी को देखें तो पृथ्वी में कितनी शांति है, कितनी नम्रता है ,कितनी सहनशीलता है। हम उसको खुरपी से खोदते हैं, उसके भीतर बमों के विस्फोट करते हैं, उसमें जो चाहे करते हैं।
पृथ्वी का हृदय इतना विशाल है, विराट है कि वह प्रत्येक प्रकार की आचरण को सहज रूप से स्वीकार करती है और किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं करती, संक्षेप में वह हमें धारण करती है।
अपने जीवन की यदि हम बात करें तो हम को निष्पक्ष होकर यह विचार करना होगा कि हम इस धारण करने की वृत्ति से कितना युक्त हैं या कितना पृथक हैं। हम मात्र बड़ी कठिनाई से अपनी पत्नी अपने बच्चे के दायित्व का निर्धारण और धारण करने का संकल्प करते हैं। बाकी समाज से हमारा कुछ भी लेना देना नहीं है। घर में कोई छोटी सी भी बात हो जाए तो हम इस प्रकार से कंधा झटक कर के आगे बढ़ जाते हैं जैसे इस बात का हम से कोई लेना-देना ही नहीं है। माता का दायित्व, पिता का दायित्व समाज का दायित्व जिन्होंने हमको बड़ा किया, जिनकी वजह से हमने प्रतिष्ठा प्राप्त की उनके प्रति हमारा दायित्व हम इन सब दायित्वों से मुक्त हो जाना चाहते हैं। हम अधिकार और आनंद की बात करते हैं। हमारे भीतर क्षमा शीलता नहीं है।
मैं आपसे सत्य कहता हूं कि जब आप क्रुद्ध हों और किसी व्यक्ति को अपने पीछे लगा कर के चुपचाप किसी सीसीटीवी कैमरे से अपनी वीडियो रिकॉर्ड करा ले तो निश्चित तौर पर आपके क्रोध का आवेग उतरने के बाद जब आप उस वीडियो को देखेंगे तो आपको लगेगा अरे यह तो कोई और ही राक्षस है, मैं तो यह हूं ही नहीं। बहुत लज्जा का अनुभव होगा।
तो पृथ्वी भी यह कहती है कि धारण करने की सामर्थ्य प्राप्त करो, क्षमाशील रहो और और उनके प्रति अपने दायित्व को अधिक समझने का प्रयास करो बजाय इसके कि वह तुम्हारे लिए कुछ करें तुम्हें उनके लिए करने के लिए तत्पर रहना चाहिए।
यदि हम जल की बात करें तो आजकल तो आप देखो कि जल की जो स्थिति है।हजारों लीटर पानी बड़े बड़े बंगलों के गार्डेन्स में बहा दिया जाता है गाड़ियों को धोने में, पेड़ों की पत्तियों को चमकाने में।
लेकिन द्वार पर खड़ा होकर के कोई व्यक्ति अगर अपनी तरफ से तो होठों की प्यास को बुझाने के लिए दो घूंट पानी मांग लेता है तो उस पर कुत्ता छोड़ देते हैं। आप सोचो, गार्डन की चमक क्या व्यक्ति की आंखों में आई हुई उस तृप्ति की चमक से अधिक प्रभावशाली हो सकती है?
जल को मधुरता प्रदान करने वाला तीर्थ कहा जाता है वह जिसको ग्रहण करके चित्त शांत होता है, चित्त मधुर हो जाता है और बहुत शांति का अनुभव प्राप्त होता है। यह जो मधुरता है, शीतलता है, युद्ध करने की सामर्थ है, क्या यह हमारे भीतर है? कोई व्यक्ति उद्वेग से युक्त हो और हमारे संपर्क में आ गए उसका चित् शांत हो जाए ,उसको तृप्ति की अनुभूति हो और भविष्य के प्रति आशा उत्पन्न हो! और वह पुनः लड़ने के लिए नहीं होते हैं!
अन्यों के कष्ट को देखकर हमारा हृदय द्रवित नहीं होता तो हम और चाहे जो भी हों, हम मनुष्य कहलाने के अधिकारी नहीं हो सकते।
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परम पूज्य संत आचार्य श्री अमिताभ जी महाराज
एक परिचय
परम पूज्य संत आचार्य श्री अमिताभ जी महाराज राधा कृष्ण भक्ति धारा परंपरा के एक प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं।
श्रीमद्भागवत के सुप्रतिष्ठ वक्ता होने के नाते उन्होंने श्रीमद्भागवत के सूत्रों के सहज समसामयिक और व्यवहारिक व्याख्यान के माध्यम से भारत वर्ष के विभिन्न भागों में बहुसंख्यक लोगों की अनेकानेक समस्याओं का सहज ही समाधान करते हुए उनको मानसिक शांति एवं ईश्वरीय चेतना की अनुभूति करने का अवसर प्रदान किया है
आध्यात्मिक चिंतक एवं विचारक होने के साथ-साथ प्राच्य ज्योतिर्विद्या के अनुसंधान परक एवं अन्वेषणत्मक संदर्भ में आपकी विशेष गति है।
पूर्व कालखंड में महाराजश्री द्वारा समसामयिक राजनीतिक संदर्भों पर की गई सटीक भविष्यवाणियों ने ज्योतिर्विद्या के क्षेत्र में नवीन मानक स्थापित किए हैं। किंतु कालांतर में अपने धार्मिक परिवेश का सम्मान करते हुए तथा सर्व मानव समभाव की भावना को स्वीकार करते हुए महाराजश्री ने सार्वजनिक रूप से इस प्रकार के निष्कर्षों को उद्घाटित करने से परहेज किया है।
सामाजिक सेवा कार्यों में भी आपकी दशकों से बहुत गति है गंगा क्षेत्र में लगाए जाने वाले आपके शिविरों में माह पर्यंत निशुल्क चिकित्सा, भोजन आदि की व्यवस्था की जाती रही है।
उस क्षेत्र विशेष में दवाई वाले बाबा के रूप में भी आप प्रतिष्ठ हैं ।
अपने पिता की स्मृति में स्थापित डॉक्टर देवी प्रसाद गौड़ प्राच्य विद्या अनुसंधान संस्थान तथा श्री कृष्ण मानव संचेतना सेवा फाउंडेशन ट्रस्ट के माध्यम से आप अनेकानेक प्रकल्पओं में संलग्न है
जन सुलभता के लिए आपके द्वारा एक पंचांग का भी प्रकाशन किया जाता है “वत्स तिथि एवं पर्व निर्णय पत्र” जिस का 23 वां संस्करण प्रकाशित होने की प्रक्रिया में है, यह निशुल्क वितरण में सब को प्रदान किया जाता है
मानव सेवा माधव सेवा आपके जीवन का मूल उद्देश्य है।