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“PCS दयाराम की क्रूरता के किस्से”: संस्मरण: हरिकांत त्रिपाठी IAS

कबीरा खड़ा बाजार में: 27

हरिकांत त्रिपाठी IAS

         बीहड़ व्यक्तित्व !!! 

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              दयाराम को पहली बार तब देखा जब मैंने वर्ष 1983 में बिक्री कर अधिकारी के पद पर लखनऊ में सेवा ज्वाइन की। यों तो मेरा चयन 1981 की पीसीएस परीक्षा में डिप्टी कलेक्टर के पद पर हो चुका था पर यूं ही मज़ा लेने के लिए मैंने बिक्री कर अधिकारी के पद पर ज्वाइनिंग कर ली। तब इन्दिरा नगर में, जिसे तब लोग रामसागर मिश्र नगर भी कहते थे, में किराए के भवन में बिक्री कर अधिकारी प्रशिक्षण केन्द्र चल रहा था और वहीं भूतनाथ मार्केट के पास पानी की टंकी से सटे एक शानदार भवन को किराए पर लेकर हॉस्टल बनाया गया था। हॉस्टल में दो तीन कुक रखकर खाने नाश्ते की बढ़िया व्यवस्था की गई थी। 

                  दयाराम प्रथम दृष्टि में ही द्रष्टा को आकर्षित कर लेते थे। वे थोड़ा उम्रदराज, लम्बे, गंजेपन की ओर अग्रसर चिकने चेहरे पर गोल टीका लगाए पूर्णतया संत लगते थे बस काषाय वस्त्र के बजाय हमेशा सफ़ारी सूट पहने रहने थे। चन्दन से सजे मस्तक के साथ पंडित दयाराम अद्भुत मधुरी वाणी वाले थे और सबकी प्रीति आसानी से अर्जित कर लेते थे। दयाराम सेना से वियोजित थे और पूर्व सैनिकों के कोटे में ही उनका चयन भी हुआ था। इतना ही काफी नहीं था, उनके शरीर में नुस्ख भी था, वे हल्का लंगड़ा कर चलते थे पर शायद विकलांग कोटे का लाभ उन्होंने नहीं लिया था। यह भी स्पष्ट नहीं था कि वे सेना में अधिकारी थे या सिपाही या क्लर्क या और कुछ…. बहरहाल उन्हीं के ज़िले के निवासी हमारे मित्र वी पी सिंह कहा करते थे कि यह सेना में वायरलेस ऑपरेटर थे और सिविल सेवा में अधिकारी पद पर आरक्षण पाने के लिए पात्रता नहीं रखने के बावजूद तिकड़म से उस कोटे में आरक्षण का लाभ प्राप्त कर लिया। 

              दयाराम के संत की बाना में असंत होने का भेद तब खुला जब उन्होंने मेस में मांसाहारी भोजन बनने का न केवल विरोध किया बल्कि पूरे षड्यंत्र के साथ शाकाहारी अधिकारियों को लामबंद कर दिया। मैं पूर्णतया शाकाहारी था पर खान-पान में यह कट्टरता मुझे निहायत नागवार गुज़री और मैंने कहा कि मेस में सामिष और आमिष दोनों भोजन बनेंगे, जिसे जो पसंद हो वो वही खाएगा। अन्त में इस तर्कसंगत बात से सभी सहमत हो गए पर दयाराम ने अपने एक मित्र कपिल नारायण मिश्र को आगे कर डिप्टी डायरेक्टर डी एस पालनी से शिक़ायत कराई कि लोग मेस में मीट बनवा रहे हैं और वे उस मेस में खाना नहीं खा सकते जिसमें मीट बनता हो। पालनी साहब बिगड़ गए और कहा कि लोग अगर मीट खाना चाहते हैं तो आप उन्हें कैसे रोक सकते हैं? कपिल नारायण के पास जब कोई तर्क न बचा तो वे धौंस देने की गरज से बोले कि उनके श्वसुर सीनियर पीसीएस अधिकारी हैं और वे स्वपाकी हैं। पालनी जी और नाराज हो गए और बोले..Mr. Mishra! Don’t talk of your father-in-law. Talk of you and at maximum of your father. If you can’t adjust then make your own arrangement somewhere else. कपिल और दयाराम दोनों ठंडे पड़ गए। 

              मैंने तीन महीने तक बिक्री कर अधिकारी का प्रशिक्षण लिया और तभी प्रोबेशनर डिप्टी कलेक्टर के पद पर मेरी तैनाती मिर्ज़ापुर में हो गई और मैंने अवमुक्त होकर मिर्ज़ापुर में ज्वाइन कर लिया। 

           दयाराम ने ट्रेनिंग के बाद अपनी पोस्टिंग गाज़ियाबाद में मोहननगर चेक पोस्ट पर करा ली। मोहननगर चेकपोस्ट पर तब धन वर्षा होती रहती थी और बिक्री कर विभाग के सभी स्तर के जुगाड़ू अधिकारी अपनी तैनाती उसी चेक-पोस्ट पर कराने को उद्यत रहते थे। पंडित दयाराम भी दिन रात चांदी काटने लगे। जब पर्याप्त समृद्ध हो गए तो उन्हें याद आया कि उनका चयन वर्ष 1981 की पीसीएस परीक्षा में पूर्व सैनिकों के कोटे में ही डिप्टी कलेक्टर के पद पर भी हुआ था पर पांव में नुस्ख की वज़ह से मेडिकल बोर्ड ने उन्हें फेल कर दिया था। उन्होंने आनन-फानन में इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका प्रस्तुत कर दी कि वे डिप्टी कलेक्टर के पद के लिए शारीरिक रूप से सक्षम हैं और उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें पीसीएस सेवा से वंचित कर उनके साथ अन्याय कर दिया। कुछ समय बाद हाई कोर्ट ने यह कहते हुए कि पीसीएस की सेवा में विकलांग व्यक्ति के चयन की व्यवस्था नहीं है अतएव दयाराम को उचित रूप से अनुपयुक्त ठहराया गया है। दयाराम ने हार न मानी। अकूत धन तो वे कमा ही रहे थे और संयोग से दिल्ली की सीमा पर उनकी तैनाती भी थी सो उन्होंने हाईकोर्ट के आदेश को सर्वोच्च न्यायालय में चैलेंज कर दिया। लड़ते लड़ाते कई साल बाद सर्वोच्च न्यायालय ने मानवीय पहलू को वरीयता देते हुए दयाराम के पक्ष में यह कहते हुए कि पीसीएस सेवा बहुत बड़ी है, उसमें भांति भांति के पद हैं इसमें उसमें विकलांग व्यक्ति भी समायोजित किया जा सकता है। 

                अब दयाराम पीसीएस अधिकारी बन गए और उस समय के नियमों के अनुरूप हमारे ही बैच में उन्हें मेरिट के अनुसार नीचे समायोजित कर दिया गया। 

दयाराम की प्रशिक्षण के बाद सोनभद्र में पोस्टिंग हो गई और वे एसडीएम बन गए। मोहननगर चेकपोस्ट पर धनखोरी की उन्हें आदत बन गई थी अतएव उन्हें एसडीएम की पोस्ट पर बेचैनी महसूस होने लगी। जब यह बेचैनी बहुत बढ़ जाती तो दयाराम अपनी जीप लेकर सड़क पर निकल जाते और बिक्री कर अधिकारी की तरह उस औद्योगिक क्षेत्र से गुज़रने वाले वाहनों की चेकिंग करने लगते। धीरे धीरे दयाराम बहुत बदनाम हो गए पर आईएएस पीसीएस सेवा में अधिकारी उस समय अमूमन बहुत सुरक्षित रहते थे सो जैसे तैसे उनकी नौकरी चलती रही। अब वे धुआंधार मदिरापान भी करने लगे थे और सेवा के साथी लोग उन्हें मज़ाक में दारूराम कहने लगे थे। 

              चूंकि वे देर से पीसीएस में पूरी वरिष्ठता लेकर आए थे सो जल्दी ही उनकी पदोन्नति हो गई और वे डीडीसी फतेहपुर के पद पर तैनात हो गए। पद की शक्ति और धन की महिमा ने कुछ ऐसा किया कि वे पूरी दबंगई से पैसा ले लेकर फैसले करने लगे। धन था ही, ऊपर से पीसीएस अधिकारी, उन्हें शस्त्र लाइसेंस भी मिल गया और उन्होंने रिवाल्वर खरीद ली और कोर्ट में भरी रिवाल्वर लेकर बैठने लगे।

एक दिन जब वे कोर्ट में मुकदमे निबटा रहे तभी किसी वकील से उनसे वादा विवाद हो गया। यह वाद विवाद धीरे धीरे झगड़े में तब्दील हो गया। नौबत मारपीट तक पहुंच गई। दयाराम ने रिवाल्वर निकाली और वकील पर फायर झोंक दिया।

संयोग से वकील साहब तो बच गए और गोली दयाराम के अपने ड्राइवर को लगी और वो ग़रीब परलोक सिधार गया। सारी सिविल फ़ौजदारी प्रक्रिया हुई और दयाराम सेवा से बर्खास्त कर दिए गए। दयाराम ने फिर हाई कोर्ट की शरण ली और हाई कोर्ट में उन्होंने आत्मरक्षा आदि के जो भी तर्क़ रखे हों, हाई कोर्ट ने उनकी बर्खास्तगी पर रोक लगा दी।

               यह व्यवस्था बड़ी विचित्र है यहां वो सब कुछ होता है जो नहीं होना चाहिए। इतने विवादित और हाई कोर्ट के स्थगन आदेश पर सेवा में लौटे दयाराम को महत्वपूर्ण पदों पर तैनाती नहीं देनी चाहिए थी पर लगातार उन्हें न्यायिक कार्य से सम्बंधित पदों जैसे डीडीसी और अपर आयुक्त मंडल के पदों पर तैनात किया गया। यदि सरकार और उसके महत्वपूर्ण पदधारकों के प्रति आमजन में घृणा और अविश्वास का भाव है तो वह अकारण नहीं है। अपर आयुक्त के पद पर नियुक्ति वरिष्ठ आईएएस या वरिष्ठ पीसीएस अधिकारी की ही होनी चाहिए क्योंकि अपर आयुक्त मंडल के कमिश्नर के रूप में मंडल में आने वाले डीएम, एडीएम और एसडीएम के न्यायिक आदेशों की रिवीजन/अपील सुनकर उन पर अपने फैसले देता है। पर होता यही है कि इस पद को दंड बना दिया गया है और इस पर भ्रष्ट, दागी और उत्पीड़ित अधिकारी भले ही बहुत जूनियर हों को तैनात किया जाता है। 

              इसी कड़ी में दयाराम गोरखपुर में अपर आयुक्त के पद पर तैनात हो गए। मैं उस समय गोरखपुर मंडल के महराजगंज ज़िले में एडीएम के पद पर तैनात था। दयाराम मेरे ही बैच के वरिष्ठता सूची में मुझसे नीचे के अधिकारी थे यानी कि तकनीकी रूप से मुझसे कनिष्ठ। मैंने महराजगंज ज़िले में बड़े परिश्रम से वर्षों से लम्बित सीलिंग के मुकदमों का निर्णय करके ज़िले के बड़े और प्रभावशाली भू स्वामियों की हज़ारों हेक्टेयर भूमि सरप्लस घोषित की और भूमिहीनों में उसका आबंटन कर दिया। मेरे इस कार्य से बड़े नेता नाराज़ हुए और उन्होंने मुख्यमंत्री से मेरे ट्रांसफर की सिफारिश कर दी। ज़िले के बार एसोसिएशन ने मेरे विरुद्ध हड़ताल कर दिया। ख़ैर मैंने इन सबसे तो निबट लिया पर दयाराम से मैं पार न पा सका। मेरे सभी आदेशों की भूस्वामियों ने कमिश्नर कोर्ट में अपील की। कमिश्नर साहब ने उन जटिल मामलों की अपीलें अपर आयुक्त दयाराम को ट्रांसफर कर दी। दयाराम के लिए तो यह स्वर्णिम अवसर था। दयाराम ने पैसे ले लेकर मेरे सारे फैसले रद्द कर दिया और सीलिंग वादों की फिर से सुनवाई के लिए मेरे न्यायालय में रिमांड कर दिया। वकील साहबान आ कर मुझे हर मुकदमे के किस्से हंस हंस कर सुनाते और चुटकी लेते कि सरकार के इतने खैरख्वाह बनते थे आखिर क्या हासिल हुआ?

               बीहड़ व्यक्तित्व के दयाराम ने मेरे किए कराए पर पानी फेर दिया।

(दयाराम से मैं पिछले लगभग पच्चीस साल से सम्पर्क में नहीं रहा, सो मुझे यह नहीं पता कि उन्हें सज़ा मिली कि नहीं मिली, वे दोषमुक्त होकर रिटायर हुए या बर्खास्त हुए, पेंशन पाए या नहीं।)

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