स्वयं से प्रेम, परिवार से प्रेम, पड़ोसी से प्रेम, समाज से प्रेम, पूरे देश और विश्व से प्रेम।
कृष्ण मोहन अग्रवाल
“प्रेम बिना सब सूना”
ईश्वर (प्रकृति) की हमें सबसे बड़ी देन तो प्रेम ही है। प्रेम के बिना क्या हम जिंदा रह सकते हैं ? स्वयं से प्रेम, परिवार से प्रेम, पड़ोसी से प्रेम, समाज से प्रेम, पूरे देश और विश्व से प्रेम।
प्रेम एक विस्तार है जो हमें संकुचित नहीं करता, एक विस्तार देता है। पूरा विश्व हमारे भीतर समा जाता है। काले-गोरे अथवा धर्म के भेदभाव नहीं रह जाते। हम अलग-अलग रास्ते पर चल रहे हैं, लेकिन अंत में एक ही स्थान पर पहुँचते हैं। फिर…?
यदि मन कभी व्यथित हो तो क्या चाहिए ? प्रेम की टिकिया, सिरप या इंजेक्शन ही तो चाहिए। हम अपने स्वयं से भी प्रेम करने लगते हैं। यही व्यथित मन कभी-कभी जब बाहर झांकता है, तब हम किसी सहारे की तलाश करते हैं।ऐसा सहारा जो पवित्र हो, निष्कपट हो, निश्छल हो, झरने की तरह कल-कल बहता हुआ हो। उस क्षण हम शून्य में तैरते होते हैं। हवा ठहर सी जाती है। हम भीतर डूब सा जाते हैं।
कभी-कभी प्रेम के बीच यदि लोभ या मोह आ जाता है, तो हम प्रेम से भटक जाते हैं। वहाँ स्वार्थ आ जाता है। वह प्रेम भौतिक प्रेम हो जाता है, जहाँ स्वार्थ है, कुछ क्षणिक प्राप्त करने की चाहत है। फिर प्रेम कहाँ है ?
कृष्ण भी कहते हैं, जीवन(संसार)का आधार ही प्रेम है। एक निश्छल प्रेम, जहाँ न राग है, न द्वेश है। उसकी कोई सीमा नहीं होती, असीमित है।
कभी-कभी लगता है, प्रेम को जानना आसान नहीं है, जितना जाना, उतना ही अनजाना है। इसमें भाषा, जाति अथवा रंग-रूप का कोई भेद नहीं होता। प्रेम तो मूक होता है।कुछ कहना नहीं होता, फिर भी सब कुछ कह दिया सा होता है। वह बड़ा ही तरल, पारदर्शी सा होता है।
बुद्ध कहते हैं, प्रेम में अपेक्षा न करें अन्यथा दु:ख और निराशा प्राप्त होती है। सदाशयता पर आधारित उदात्त प्रेम से शांति और प्रसन्नता प्राप्त होती है।
बुद्ध यह भी कहते हैं, दु:ख के बीज प्रेम में ही विद्यमान हैं। प्रेम से दु:ख तो होता ही है। जिसे आप चाहते हैं, उसके कष्टों (दु:खों) और आकांक्षाओं को समझ कर ऐसा उपाय करें कि उसका कष्ट दूर हो और आकांक्षा की पूर्ति हो। यही सच्चा प्रेम है।
एक तुर्की कहावत है, एक सुन्दर, प्रेमपूर्ण हृदय कभी बूढ़ा नहीं होता।
शहीदे आजम भगत सिंह कहते हैं, मनुष्य में प्यार की गहरी से गहरी भावना होनी चाहिए, जिसे एक ही आदमी में सीमित न कर दे, बल्कि विश्वमय रखे।
जरा फिराक गोरखपुरी को भी देख लें —
थोड़ी बहुत मुहब्बत
से काम नहीं चलता
ऐ दोस्त,
ये वो मामला है
जिसमें या सब कुछ
या कुछ भी नहीं।
एक बात और, जरा सोचें, एक उम्र के बाद जब कभी हम अकेला महसूस करते हैं तो क्या ऐसा नहीं लगता कि काश,कोई होता, जिससे हम कुछ कह लेते, जो हमें समझता/समझती हो।यह क्या है? एक निश्छल प्रेम ही तो है।
अंत में अपनी एक कविता से प्रेम को समझने की कोशिश करता हूँ–