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“टोपी वाला”: उदय भान तिवारी: आज का व्यंग्य

लेखक श्री उदय भान तिवारी उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग के सेवा निवृत्त अधिशाषी अभियंता हैं

“टोपी वाला”

कहानी बहुत पुरानी है लेकिन मित्रों को सुनाने में कोई हिचक नहीं है क्योंकि अभी सभी लोग एकांतवास में हैं।

ओशो कहा करते थे कि एक टोपी वाला था। वह अपनी टोपी बेचता हुआ गांव गांव घूम रहा था। गर्मी का महीना था। वह एक बाग में विश्राम करने के लिए बैठ गया। गर्मी के महीने में गांव के बाग में पहले कुंए हुआ करते थे जहां पानी पीने की समुचित व्यवस्था आदि होती थी। अर्थात घड़ा, रस्सी इत्यादि रखा रहता था। कुंए पर उसने पानी पिया और वृक्ष के नीचे लेट गया। टोपी अभी बिकी नहीं थी और खुले झोले में रखी थी। टोपी वाला खुद टोपी लगाए हुए था।

लेटते ही उसको नींद आ गई। जब नींद से उठा तो झोले की तरफ निगाह गई। झोला टोपियों से खाली हो चुका था। टोपी वाला इधर-उधर आगे पीछे देखा मगर कहीं टोपी दिखाई नहीं दी। उसने सोचा अगर कोई सभी टोपियां ले जाता तो झोला भी ले जाता। झोला क्यों छोड़ दिया?

इसी बीच पेड़ से उछलने कूदने की आवाज आई। ऊपर देखा तो सारे बंदर उसकी टोपियां लगाए हुए थे और प्रसन्न मुद्रा में इधर-उधर कूद रहे थे। उसने अपने बाप से सुना था कि बंदर नकलची होते हैं। जो तुमको करते हुए देखते हैं वही करते हैं। अत: उसके दिमाग में आइडिया कौंध गया।

बाग में एक खाली स्थान पर उसने अपनी टोपी उतार कर फेंक दी। देखते देखते सभी बंदरों ने भी एक-एक कर सभी टोपियां उतार कर फेंक दीं। टोपी वाले का काम बन गया। उसने टोपियां बटोरीं, झोले में रखा और बंदरों को नमस्कार कर के चला गया।

जमाना बीता। अब उसका बेटा टोपी बेचता है। वह भी टोपी बेचता-बेचता उसी गांव में, उसी बाग में आकर रुका। घड़े से पानी पिया, पेड़ के नीचे लेट गया और सो गया। झोला खुला होने के कारण सारे बंदर एक-एक कर पेड़ से उतरे और एक एक टोपी लेकर वापस पेड़ पर चढ़ गये। बेटा उठा, देखा कि टोपियां गायब हैं।

उसे अपने पिता द्वारा आचरित बुद्धिमत्तापूर्ण घटना की याद आई। उसने सोचा कि बंदर‌ ऐसे ही चकमें में आ सकते हैं। उसने अपनी टोपी उतार कर फेंक दी। देखते देखते एक बंदर का बच्चा जिसे टोपी नहीं मिल पाई थी, उतरा और टोपी लेकर पेड़ पर जा बैठा। टोपी वाला बहुत हैरान परेशान हुआ। गांव वाले जुटाए लेकिन बंदरों की टोपी उतरवाना इतना आसान नहीं था।

बंदरों ने अपने पूर्वजों द्वारा आचरित बेवकूफियों से सीख ले ली थी लेकिन टोपी वाला कहां से सीख ले पाता? क्योंकि उसके पिता का तो गौरवमय इतिहास था। देश विदेश के कलाकार उसके पिता के जन्मदिन पर हवाई जहाज से आते थे। अपना नाच गाना दिखाकर सलामी भेंट करते और चरणस्पर्श कर के आनंदपूर्वक चले जाते थे।

आज टोपी वाले का बेटा टोपी बेचने निकला है लेकिन उसको दिखाई नहीं दे रहा है कि टोपी वालों के बीच उनका खुद का टोपी वाला आ गया है। अब उनको टोपी बदलने की आवश्यकता है। लेकिन वह अपने बाप के गौरव की प्रतीक्षा में है और उसे ये जिद है कि वह टोपी बेचकर ही मानेगा! उसका बाप कभी टोपी नहीं लगाया, लेकिन ये टोपी उतारता ही नहीं कभी।

बंदरों की जमात का टोपी वाला असली टोपी वाला है और उसकी ही टोपी जमात को भाती है।

भारत वर्ष सदा से ही उत्सव प्रिय रहा है। दिल्ली भारत की राजधानी होने के कारण सदा ही किसी न किसी उत्सव से आंदोलित रहती है। आजकल पंजाब के किसानों का उत्सव चल रहा है लेकिन दुर्भाग्य है कि उसमें कोई किसान नहीं है। इसमें बहुत बड़े बड़े लोग हैं जो किसान की टोपी पहने हुए हैं। उसमें गरीब किसान का प्रवेश कहां संभव है। सरकार और इनका युगल गीत चल रहा है। न सरकार अपना मार्ग बदल रही है और न किसान ही। अच्छा है इस तरह के आयोजन होते रहने चाहिए। जन सामान्य का मनो -विनोद होता रहता है।

ये किसान अब जायेंगे तो CAA वाले आयेंगे, फिर धारा ३७० वाले आयेंगे और फिर जेल में बंद आर्थिक, सामाजिक, अनैतिक कदाचारी लोगों का गुणगान करते हुए उनका महिमा मंडन करते हुए उनको जेल से छुड़ाने वाले आयेंगे।
कथा अनंत है। लोग आते ही रहेंगे।

~  यू बी तिवारी

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