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“प्रयागराज: अतीत बोलता है”:9: डॉ राम नरेश त्रिपाठी

डा. रामनरेश त्रिपाठी

 वरिष्ठ पत्रकार, ज्योतिषाचार्य

निदेशक भारतीय विद्या भवन, प्रयागराज एवं भरवारी

प्रयाग की एक और देन: प्रभुपाद

प्रयाग की माटी को जो जिस भाव से स्पर्श करता है वह उसी प्रकार से फल की प्राप्ति करता है। भक्ति भाव का संकल्प लेकर आने वाला व्यक्ति भक्ति से ओत-प्रोत होता है, साधना और मोक्ष की संकल्पना लेकर आने वाला सभी पापों से मुक्ति प्राप्त करकर मोक्ष को प्राप्त करता है। क्योंकि यहां पर धर्म अर्थ काम मोक्ष चारों पुरुषार्थ विद्यमान है गोस्वामी जी के शब्दों में….
चार पदारथ भरा भंडारू।

पुण्य प्रदेश देस यह चारू।
यहां भाव की सर्वाधिक प्रधानता है, प्रयाग में किया हुआ पाप और पुण्य दोनों का क्षरण नहीं होता है, वे अक्षय होते हैं।

प्रयाग में कृष्ण भक्ति की शाश्वत परंपरा का अपना अलग इतिहास है, जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण यहां कृष्ण प्रिया यमुना है जो विष्णुप्रिया गंगा से मिलकर विष्णु और कृष्ण भक्ति का समन्वय स्थापित करती है। पौराणिक कथा के अनुसार श्री कृष्ण गोलोकधाम में विरजा देवी के अनन्य सुंदर स्वरूप मे रीझ गए। भगवती श्री राधा ने विरजा को श्राप दिया कि “तू जल स्वरूप में परिवर्तित हो जा”, विरजा डर के मारे जल रूप में भगवान श्री कृष्ण के चरणार विंद में छिप गई।

श्री राधिका ने श्रीकृष्ण से कहा कि आप उससे इतने आसक्त हैं तो शरीर से नहीं जल रूप से उससे मिल सकते हैं। उसी समय श्री ब्रह्मा जी भगवान गोलोक में पधारे और वहां श्री राधिका कृष्ण स्वरूप को एक साथ देख कर यह समझ न सके कि वह स्त्री है या पुरुष ।भगवान ने कहा “ब्रह्मा ध्यान से दर्शन करो “।

तब उन्होंने श्री राधा को श्रीकृष्ण के हृदय में दर्शन किया भगवान ने कहा “अरे ब्रह्मा तुम अच्छे समय में आए हो देखो वामन अवतार में ब्रह्म द्रव ही श्री राधा कृष्ण संभूत स्वरूप तुम्हारे कमंडल में स्थापित होंगे। यह ब्रह्म द्रव गंगा देवी के रूप में जिवों का उद्धार करेगी और मेरी प्रिय बिरजा सूर्य तनयाके रूप में जन्म लेकर कालिंदी नाम से पृथ्वी में जाएगी तब हमारा और बिरजा कालिंदी का जो संगम होगा वह पृथ्वी के जिवों के उद्धार का साधन होगा”।

ब्रह्मा जी दर्शन और आज्ञा प्राप्त कर लौट गए।  फलस्वरूप वामन अवतार में भगवान श्री वामन ने राजा बलि के संकल्प को पूर्ण करने के लिए अपने एक चरण से ऊपर के लोकों को नापते हुए सात लोक में अपने एक चरण को स्थापित किया तो ब्रह्मा धन्य हो गए और उनके चरणों को धोकर उन्होंने अपने कमंडल में संजोया वह राधा-कृष्ण के संयोग स्वरूप ब्रह्म द्रव गंगाजल था जिसे राजा भगीरथ की प्रार्थना पर अमृत स्वरूप गंगाजल भगवान श्री शंकर के शिरोधार्य हो प्रयाग में पहुंचा, जहां कृष्ण की भक्ति स्वरूपा कालिंदी प्रवाहित हो रही है तथा सरस्वती संतों के प्रवचन से जीवों में वैराग्य की धारा रुप संयोजित है। यही कारण है कि प्रयाग में राम और कृष्ण भक्ति शाखा का प्रादुर्भाव एवं विकास युगों-युगों से होता रहा है।


अभय चरण से प्रभु पाद तक चैतन्य महाप्रभु वल्लभाचार्य और रूप गोस्वामी की सारस्वत परंपरा किसी न किसी रूप में आगे बढ़ती गई और जिसका प्रस्फुटन हमें “इस्कान” के रूप में भी देखने को मिला। अभय चरण डे से भक्तिवेदांत स्वामी प्रभु पाद बनाने वाली इस माटी तथा त्रिवेणी का ही प्रभाव है जो संपूर्ण विश्व में देखने को मिलता है। आधुनिक युग में कृष्ण भक्ति शाखा का उदय और सात्विक साधना के साथ साथ भक्ति रस का प्रवाह अगर किसी ने प्रवाहित किया है तो वह थे भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद।

पूर्वजों की धरती

चैतन्य महाप्रभु जिस समय प्रयाग आए थे और दशाश्वमेध घाट पर भगवान बेनी माधव का दर्शन प्राप्त कर जिस परिवार में ठहरे हुए थे, जहां पर उन्होंने रूपगोस्वामी को आत्मसात किया था, वह परिवार अभय चरण डे के पूर्वजों से जुड़ा हुआ था। शायद उसी समय भक्ति वेदान्त का बीजारोपण हो चुका था जो कालांतर में प्रस्फुटित हो अंतरराष्ट्रीय मख्याति प्राप्त की।
1 सितंबर 18 सो 96 को कोलकाता में जन्मे प्रभुपाद 14 नवंबर 1972 तक के अपने जीवनकाल में श्रीमद्भागवत गीता का संदेश लेकर विश्व में भक्ति भाव को प्रचारित किया। यह एक अद्भुत प्रयास था। वह गौडीय वैष्णव के रूप में संपूर्ण विश्व में गीता को अपने साथ लेकर सनातन धर्म के अनुसार शुद्ध कृष्ण भक्ति का प्रवर्तन किया। ब्रह्म मध्य गौड़ीय संप्रदाय के पूर्व आचार्यों का अनुगमन तथा उनकी रचनाओं की व्याख्या करते हुए उन्होंने उनका प्रचार किया और अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावा मृत संघ की स्थापना की। प्रभुपाद ने भक्त सिद्धांत सरस्वती ठाकुर से 1933 में दीक्षा प्राप्त कर 1959 में संन्यास लिया और अभया चरण डे से वे प्रभुपाद बन गए। 1944 में वे अपने गुरु के आदेश का पालन करते हुए अंग्रेजी माध्यम से पाश्चात्य देशों में कृष्ण भक्ति के प्रचार का संकल्प लिया।बिना किसी सहायता के वे अमेरिका गए और वहां भक्ति वेदांत की स्थापना के साथ ही साथ नव वृंदावन की स्थापना की और करोड़ों अनुयाइयों को जन्म दिया। 1947 में उन्हें गौड़ीय वैष्णव समाज ने भक्ति वेदांत की उपाधि से अलंकृत किया। 1959 में ही सन्यास ग्रहण करने के बाद उन्होंने श्रीमद् भागवत का कई खंडों में अंग्रेजी अनुवाद किया और वृंदावन को अपना केंद्र बनाया।


1966 में अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ की स्थापना करने के पश्चात 1968 में वर्जीनिया की पहाड़ियों में नव वृंदावन की पहल की। 1972 में टेक्सास के डेलस में गुरुकुल की स्थापना और वैदिक प्रणाली का सूत्रपात किया और भक्ति वेदांत इंस्टीट्यूट की स्थापना की।
दीक्षा का केंद्र प्रयाग
प्रयाग में कभी भक्ति वेदांत स्वामी प्रभुपाद अपने परिवार के साथ रहते थे। गुरु भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर से उनकी भेंट कलकत्ते में हुई परंतु उन्होंने १९३३ में दीक्षा गौ डियामठ प्रयाग में प्राप्त की। अभय चरण का प्रभुपाद नाम उसी समय पड़ गया था। प्रयाग उनके पूर्वजों की भूमि थी। बहादुरगंज में” प्रयाग फार्मेसी ” नाम से दवा की दूकान थी जिससे वे 13 वर्ष की अवस्था तक जुड़े रहे और उनके परिवार ने यहां गौडियां मठ की स्थापना में महान योगदान दिया। प्रभुपाद एक साधारण वेशभूषा में गौड़ीय मठ में प्रवेश किया था और एक लंबे अंतराल तक वहां रहकर पुस्तकालय की स्थापना कर अनेक रचनात्मक कार्य किये। यहां से उन्होंने गौड़ा नाम के एक पत्र का भी प्रकाशन किया। प्रभु पाद की चर्चा तो मैंने इसलिए की कि उनके अनुयायियों का समर्पण भारतवर्ष के अलावा चीन जापान अमेरिका थाईलैण्ड कनाडा आदि सैकड़ों देशों में आज भी देखने को मिलता है। प्रयाग की धरती से जो आध्यात्मिक चिंगारी उठी थी, वह एक विश्वव्यापी लौ बनकर संपूर्ण विश्व में फैल गई। इस्कान के अन्तर्गत न केवल हिंदू अपितु लाखों विदेशी कृष्ण हरि कीर्तन करते देखे जा रहे हैं।

डा० रामनरेश त्रिपाठी, प्रयागराज
94 152 35 128

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