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“प्रयागराज: अतीत बोलता है”:10: डॉ राम नरेश त्रिपाठी

डा. रामनरेश त्रिपाठी

 वरिष्ठ पत्रकार, ज्योतिषाचार्य

निदेशक भारतीय विद्या भवन, प्रयागराज एवं भरवारी

प्रयाग की देन जगतगुरु रामानंदाचार्य

“भारतवर्ष आचार्यों का देश रहा है।”

“सत्यम वद धर्मं चर, स्वाध्यायात मा प्रमादः”।

सत्य बोलो, धर्म का आचरण करो, स्वाध्याय के प्रति प्रमाद मत करो। ये उपदेश हमारे वैदिक आचार्यों द्वारा दिए गए हैं। आश्चर्य है कि आचार्यों की परंपरा दक्षिण भारत से प्रादुर्भूत होकर संपूर्ण देश में पुष्पित पल्लवित होती रही है। उत्तर भारत एक लंबे अरसे तक मौन रहा।आदि शंकराचार्य से लेकर रामानुजाचार्य, यमुनाचार्य, माधवाचार्य निंबार्काचार्य वल्लभाचार्य,सभी आचार्यों की परंपराएं दक्षिण से उत्तर की ओर प्रवाह मान होती रही परंतु सभी आचार्य अपनी पूर्णता को तभी प्राप्त हुए जब वे काशी और प्रयाग की पवित्र भूमि का स्पर्श किया।शिव के त्रिशूल पर बसी काशी में जहां ज्ञान की देवी विराजमान है और प्रजापति क्षेत्र प्रयाग जहां भगवान विष्णु स्वयं 12 रूपों में अष्ट दिशाओंकी रक्षा करते हैं, वहां इन आचार्यों का आगमन अनिवार्य सा रहा है।

आचार्य परंपरा का ऐतिहासिक अनुशीलन किया जाए तो मिलता है कि उत्तर भारत के एकमात्र आचार्य रामानंदाचार्य को देने वाली यह प्रयाग की धरती ही रही है । 1299 ईस्वी माघ मास की सप्तमी को जन्मे भगवान रामानंदाचार्य 1410 ईस्वी तक इस भूतल में रहकर मध्यकालीन भक्ति आंदोलन को गति प्रदान की और अपनी अद्भुत शिष्य परंपरा को जन्म दिया। रामानंदी संत परंपरा में सर्वमान्य है कि वह प्रयाग में वशिष्ठ गोत्री कुल में उत्पन्न हुए और वाराणसी के उनके कुल पुरोहित का आदेश था कि बालक 3 वर्ष तक घर से न निकले और 1 वर्ष तक उन्हें आईना नहीं दिखाया जाये, उसका अक्षरश: पालन हुआ था। इसके बाद 8 वर्ष की आयु में उनका उपनयन संस्कार संपन्न हुआ और पश्चात वे काशी की धरती पर दीक्षा के लिए प्रस्थान किया।

यद्यपि रामानंदाचार्य, रामानुजाचार्य की परंपरा से कहीं न कहीं से जुड़े रहे हैं, परंतु कालांतर में उन्होंने स्वयं अपने आप में आचार्य पद की गरिम को प्रतिस्थापित किया और उन्हें आचार्य के रूप में सर्वत्र ख्याति प्राप्त हुई। लाखों की संख्या में भारत तथा भारतवर्ष से बाहर उनके अनुयायियों की एक लंबी श्रंखला है। उनके प्रमुख शिष्यों में अनंतानंद, संत सुखानंद, संत सुरा सुरा नंद, नरहरीया नंद, योगानंद, पीपा नंद, संत कबीर दास, संत से जान्हावी, संत धन्ना, संत रविदास, पद्मावती, संत सुरसरी प्रमुख थे। द्रविड़ भक्ति श्री संप्रदाय का होने के बाद भी उन्होंने राम और सीता दोनों की भक्ति को वरीयता दी। ” द्रविड़ भक्ति उपजी लायो रामानंद”।

रामानन्द: स्वयम  राम:


प्रयाग के लिए यह गौरव की बात है कि यहां की धरती ने रामानंद जैसे सपूत को जन्म दिया। रामानंद प्रयाग के रामबाग मोहल्ले में परम पवित्र कुक्षवती सुशीला देवी के गर्भ से जन्म लिया। उनके पिता का नाम पुण्य सदन था। वे कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे “रामानंद: स्वयं राम: प्रादुर्भूतो महीतले”अर्थात भगवान राम स्वयं रामानंद के रुपए प्रकट हुए थे, ऐसा अगस्त संहिता में कहा गया है।बालक रामानंद बचपन से ही मेधावी एवं प्रखर बुद्धि के थे। उनके चेहरे पर स्वाभाविक रूप से तेज था जिससे स्पष्ट हो रहा था कि बालक कोई सामान्य नहीं कोई अलौकिक शक्ति है जो परमात्मा ने स्वयं भेजा है। जिस समय उनका जन्म हुआ उस समय का वातावरण कुछ और था। सनातन धर्म संकट के दौर से गुजर रहा था। समाज में नाना प्रकार की विकृतियां थी जिससे भारतवर्ष को ही नहीं संपूर्ण विश्व को मानवता का संदेश देने के लिए किसी महापुरुष का जन्म लेना स्वाभाविक था। प्रत्येक माता-पिता बालक को काशी भेज कर उसे ज्ञान संपन्न कराने के बारे में विचार करता था। समय पर संस्कार देना, सनातन धर्म की आज्ञा का पालन करना था और वय होने के पश्चात सीधे काशी में शिक्षा और दीक्षा दोनों के लिए भेज दिया जाता था।क्योंकि काशी ही एक मात्र ज्ञान का केन्द्र था।

इसी के अनुपालन में काशी के सुप्रसिद्ध विद्वान राघवानंद जी महाराज के यहां माता पिता ने रामानंद को शिक्षा के लिए भेज दिया। राघवानंद जी न केवल उच्च कोटि के विद्वान थे, अपितु एक अच्छे साधक थे। पंचगंगा घाट श्रीमठ आज भी अपनी साधना के लिए सर्वविदित है। यहीं पर एक लंबे अंतराल तक रहकर बालक रामानंद ने गुरु राघवानंद के सानिध्य में ज्ञान अर्जित करने के तत्पश्चात दक्षिण भारत की यात्रा पर गए जहां रामानुजाचार्य और उनकी परंपरा से उन्हें संस्कार मिले। उस संस्कार को ही उन्होंने राम भक्ति में परिवर्तित कर अपने आप को आचार्य परंपरा के केंद्र बिंदु में रखा।


काशी के श्री मठ में रहकर दीक्षा में पारंगत होने के पश्चात उनके माता-पिता ने उन्हें गृहस्थ आश्रम की ओर लाने के लिए काफी प्रयास किया परंतु संभव नहीं हो सका क्योंकि उन्हें तो सनातन धर्म के लिए कुछ और ही करना था ।इसीलिए शायद उनका जन्म प्रयाग की इस पवित्र धरती पर हुआ था। फिर सिद्ध पुरुष तो कभी जन्म लेता नहीं, वह तो परमात्मा के द्वारा भेजा जाता है। शायद उन्हें इसीलिये भेजा गया था कि वह तत्कालीन समाज को सही दिशा देने के लिए गुरु राघवानंद का स्थान ले सकें और वैसा ही हुआ। राघवानंद जी ने उन्हें तारक मंत्र से दीक्षित कर अपना दायित्व सौंपकर इस नश्वर संसार से विदा ली थी। राघवानंद जी विशिष्टादद्वेत सिद्धांत के पोषक होने के साथ-साथ अष्टांग योग के सिद्ध महायोगी थे और राम भक्ति पर उनका अधिक विश्वास था। जो सिद्ध पुरुष होता है उसे इस बात का पहले से पता होता है कि उनके स्थान पर कौन आने वाला है। इसलिये रामानंद जी का गृहस्थ आश्रम में वापस आना संभव ही नहीं था।

रामानंद दक्षिण भारत से वापस आने के बाद श्री मठ को अपना केंद्र बिंदु बनाया और उनके द्वादश शिष्य समाज की सेवा के लिए आराधना और राम भक्ति को लेकर सामने आए। इन शिष्यों में सभी वर्ग एवं समुदाय के लोग शामिल थे क्योंकि उनकी दृष्टि में जात-पात ऊंच-नीच का कोई अर्थ नहीं था। सभी राम के भक्त थे और सभी का दायित्व था कि वह समाज की कुरीतियों से लोगों को मुक्त करायें। उनके इन 12 शिष्यों में से कबीर और रैदास दो प्रमुख थे पीपा क्षत्रिय वर्ण के थे कबीर जुलाहा, रैदास दलित वर्गका प्रतिनिधित्व कर रहे थे और सभी ने समाज को जो कुछ दिया अनंत काल तक व्याप्त रहेगा।

कबीर का जन्म काशी के लहरतारा नामक स्थान में हुआ। वे रामानंद जी के शिष्य बनना चाहते थे संभवतः पहले तो उन्हें शिष्य बनने की अनुमति रामानंद जी से प्राप्त नहीं हुई। परंतु पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर प्रातः लेटे हुए कबीर पर पैर पड़ने के बाद अकस्मात निकल पड़ा था राम राम और वही उनका दीक्षा मंत्र हो गया ।संभव है कि उसी के बाद से रामानंद जी व्यापक दृष्टि रखते हुए प्रत्येक वर्ग को दीक्षा का रास्ता खोल दिया। रामानंद जी का शिष्य होने के नाते कबीर का गुरु जन्मभूमि पर आना जाना लगा रहा और यहां प्रतिष्ठान पुर की ओर एक स्थान था जहां कभी वह बैठकर तपस्या किया करते थे, वह स्थान कबीर नाले के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी प्रतिष्ठान पुर में दयाराम की कोट के समीप एक स्थान है जहां पर गुरु नानक ,शेख तकी और कबीर मिले थे और सभी धर्म एक हैं ,जाति विशेष का कोई महत्व नहीं ,इसका संदेश दिया था ।इस श्रंखला में रैदास का भी गुरु जन्म भूमि में बराबर आना जाना बना रहा।

रामानंद के सात प्रमुख शिष्यों की परम्परा में एक गोस्वामी तुलसीदास भी थे, जिन्होंने प्रयाग का अद्भुत वर्णन रामचरितमानस में किया है। यह सब कुछ प्रयाग की माटी में जन्मे रामानंद जी की ही देन कही जा सकती है।

जिस समय रामानंद का जन्म हुआ उस समय देश की परिस्थितियां कुछ और थी। देश में अनेक प्रकार की कुरीतियां जन्म ले रही थी संस्कारों का ह्रास हो रहा था और जातिवाद के भेदभाव में उलझे लोग अनेकानेक संप्रदायों का सहारा ले रहे थे। रामानंद ने राम और सीता की जगह-जगह प्रतिष्ठा की और उन्हें ही सर्वोपरि आराध्य देव के रूप में स्वीकार किया। रामानंद की दक्षिण यात्रा और उनके वैष्णव साधना का ही प्रतिफल था कि श्री क्षेत्र नाडीजे को वैष्णव पीठ घोषित किया गया। इतना ही नहीं अखाड़ों की परंपरा के अंतर्गत और तेरह अखाड़े हैं जिसमें 3 वैष्णव के हैं निर्मोही, दिगंबर, निर्वाणी और 7 शैव और तीन उदासीन अखाड़े देखने को मिलते हैं रामानंद, रामानुज विशिष्टाद्वेत के प्रतिपादक हैं मध्याचारी माधवाचार्य, भास्कराचार्य द्वारा निंबार्क तथा वल्लभाचार्य द्वारा पुष्टिमार्ग या सुधार वाद का प्रचलन किया गया।

 

वैष्णव संप्रदाय के अंतर्गत तो बैरागी, दास राधाबल्लभ, सखी, गौडीय विष्णु स्वामी, श्री संप्रदाय हंस संप्रदाय, ब्रह्म संप्रदाय श्री चतु: संप्रदाय और इन सब के कुल 52 द्वार हैं जिनमें से अधिकांश रामानंद वैष्णव संप्रदाय से जुड़े हुए हैं।

जगतगुरु रामानंदाचार्य की रचनाओं में वैष्णव मताब्ज भास्कर श्रीरामार्चन पद्धति, गीता भाष्य, उपनिषद भाष्य, आनंद भाष्य सिद्धांत पटल, राम रक्षा स्त्रोत, योग चिंतामणि, राम राघवम, वेदांत विचार, रामानंददेश, ज्ञाना तिलक, ज्ञान लीला, आत्मबोध, राम मंत्र जोग अध्यात्म रामायण आदि शामिल हैं।

प्रयाग में जगद्गुरु रामानंदाचार्य के प्रतीक स्वरूप उनका आश्रम दारागंज स्थित हरि माधव मंदिर में प्रतिष्ठित है, जो उनके प्रयाग गौरव होने का संदेश दे रहा है। आचार्य पद पर जगतगुरु रामानंदाचार्य रामनरेशाचार्य प्रतिष्ठित है।

डा० रामनरेश त्रिपाठी, प्रयागराज
94 152 35 128

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